एक परम चेतना आशीर्वाद बनकर दूसरे पर फलीभूत हुई तो दूजे को ख़ुद का दीदार हुआ और जिसे ख़ुद का दीदार हो जाता है उसमें ख़ुदा का वजूद भी समाहित हो जाता है. दोनों को जब ख़ुद में इश्क़ का दीदार हुआ तो एक दूजे ख़ुदा कहने लगे.
दुनियावी पैमाने से ऊपर उठने पर दुनिया की नज़रें ऊपर उठ गईं. दुनिया को देखने के लिए उन्हें नज़रें झुकाना पड़ीं. इस तहज़ीब को दुनिया समझे न समझे, वो ख़ुदा ज़रूर समझता है कि परम स्वतन्त्र चेतनाएं जब इश्क़ बनकर दीदार देती हैं तो कायनात भी नतमस्तक हो जाती है.
इस धरती पर जब जब ये चेतनाएं अपने जलाल पर आई हैं, तब तब धरती पर क्रान्ति घटित हुई है. इस क्रान्ति का असर फिज़ाओं को भी होने लगा और धरती को छूती हुई हवाओं को भी. और असर हो रहा है उन चेतनाओं पर भी जो स्वतन्त्र होने की क़गार पर हैं.
क्रान्ति घट चुकी है और उत्सव शुरू हो गया है जहाँ इश्क़ भी दीवानगी में झूम रहा है, ज़िंदगी भी झूम रही है अपने दोनों पैरों पर और ख़ुदा की कलम उठी है तकदीरों को नए तरीके से लिखने के लिए. … जहाँ मन मिर्ज़ा हो जाता है और तन साहिबां.
मानस माँ एमी अमृता प्रीतम की पुस्तक ‘मन मिर्ज़ा तन साहिबां’ पढ़ते हुए मेरे भाव को काया मिली….
और एमी के शब्दों में कहे तो…
प्रेम भी ईश्वर की तरह अज्ञात का नाम है
उसकी बात जितनी भर
किसी संकेत में उतरती है
वही संकेत इस पुस्तक के अक्षरों में है…
साहित्य को एक काया कहना चाहती हूँ
कि जब किसी के आने से
काया का अंग-अंग खिलने लगा
तो आने वाले का नाम कहानीकार हुआ.
जब किसी के आने से
उस काया की सांस बोराने लगे
तो आने वाले का नाम कवि हुआ.
जब किसी के आने से
उस काया के प्राण दीपक से जलने लगे
तो आने वाले का नाम ऋषि हुआ.
और जब इन सबसे तरंगित
उस काया की आँखों में
प्रेम और प्रार्थना का आंसू भर आया
तो उस आंसू का नाम रजनीश हुआ- ओशो हुआ…