वो अपनी नाभि को सुसज्जित करती है
देती है इत्र का एक छिड़का
निहारती है अपना रूप आईने में
वो चैतन्य है
यह सृष्टि उस से ही है
इसी नाभि से सींचा है उसने
अपने अजन्मे शिशु को
नाभि का धागा काटा जाएगा
जन्म की पहली चीख़ के साथ
नारायण की कमल नाभि से निकले थे ब्रह्मा
कायनात को रचने हेतु
ऐसे ही अव्यक्त ( unamnifest ) हुआ मैनिफ़ेस्ट
इसी नाभि पे रख देता है जब वो
अपनी छोटी वाली उँगली
वो प्यार से भर जाती है
काम से भर जाती है
वो देखती है अपने काले घने गेसू
बड़े प्यार से फेरती है उनमें कंघा
छोड़ती है सुगन्धियों से उठता हुआ धुआँ
अपने बालों पे
लहरा -लहरा जाते हैं उसके गेसू
किसी को भी मोहित करने को काफ़ी है
उसके साजन को पसंद है
अपने चेहरे पे बादलों से गिरते हुए गेसू
शान्ति, प्यार, उत्तेजना से भरे गेसू
करती है वो आँखों को रोशन काजल से
लगाती है चाँद सी बिंदिया
पहनती है रुनझुन रुनझुन पायल
झलकाती है कानों में बुँदे
नाक पे जड़ती है एक तारा हीरा
होठों को करती है मदहोशी सा लाल
काम देवी है वो
रचियता है वो
जननी है वो
उसकी देह में छिपे हैं सारी क़ायनात के राज़
परत दर परत उठते हैं परदे
इसी देह में विचरते, डूबते, तैरते
वो एक हो जाती है सारी क़ायनात के साथ
उसका यही एक रिचुअल है
उसे नहीं ज़रूरत किसी क़ाबे, किसी मंदिर, किसी मस्जिद की
अपनी मोहब्बत में खुदा हो लेती है वो
सृष्टि की सबसे कोमल रचना
असहनीय दर्द सहने की क्षमता लिए
रचती है अपनी नाभि से
एक और नया, भरा पूरा संसार
वो एक प्यार में डूबी औरत है
कमज़ोर नहीं है, कोमल है
कमल है
प्यार की अभिलाषी है
उसकी देह का तिरस्कार उसकी दिव्यता, उसकी आत्मा का तिरस्कार है
कहीं ऐसा न हो किसी दिन
वो अपना शिव तत्व इतना विकसित कर ले
कि तुम शव हो जाओ
और ढूँढते फिरो कि जीवन का कोई सिरा तो तुम्हारे हाथ लगे