‘राजा’ की यात्रा से तैयार नया सियासी तानाबाना

यात्रा करना मनुष्य की नैसर्गिक प्रवृत्ति है. हम अगर मानव इतिहास पर नजर डालें तो पाएंगे कि मनुष्य के विकास की गाथा में यायावरी का महत्वपूर्ण योगदान है.

अपने जीवन काल में हर आदमी कभी-न-कभी कोई-न-कोई यात्रा अवश्य करता है लेकिन सृजनात्मक प्रतिभा के धनी अपने यात्रा अनुभवों को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर यात्रा-साहित्य की रचना करने में सक्षम हो पाते हैं.

यात्रा-साहित्य का उद्देश्य लेखक के यात्रा अनुभवों को पाठकों के साथ बांटना और पाठकों को भी उन स्थानों की यात्रा के लिए प्रेरित करना है.

इन स्थानों की प्राकृतिक विशिष्टता, सामाजिक संरचना, समाज के विविध वर्गों के सह-संबंध, वहां की भाषा, संस्कृति और सोच की जानकारी भी इस साहित्य से प्राप्त होती है.

प्रस्तुत रिपोर्ट एक राजा की है, जो नाम से ही नहीं बल्कि कर्म से भी राजा है… मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह ने पुण्य सलिला नर्मदा की यात्रा में कई सियासी समीकरण खड़े कर दिए हैं.

उनकी इस आध्यात्मिक यात्रा से प्रदेश में नया सियासी तानाबाना तैयार हो रहा है. जाहिर है सत्ताधारियों का इस पर सीधा असर होगा…

राजा यानि दिग्विजय सिंह ने नर्मदा परिक्रमण पूरी करने के बाद ऐसे स्थानों पर जाने का मन बनाया है, जहां वे अपनी यात्रा के दौरान पहुंच नहीं पाए.

उनके साथी और सहयोगी इस यात्रा की तैयारी में जुट भी गए हैं. लेकिन राजा के साथ इस बार रानी, यानि उनकी धर्मपत्नी शामिल नहीं रहेंगी.

[नर्मदा परिक्रमा के बाद एक और यात्रा की तैयारी में दिग्विजय, पक्ष-विपक्ष में खलबली]

14 वर्ष बाद मध्यप्रदेश में आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सक्रिय हुए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव दिग्विजय सिंह अपनी नर्मदा परिक्रमा को पूर्ण करने के पश्चात अपने गृह प्रदेश के उन जिलों, तहसीलों या ब्लॉकों में जाने की तैयारी कर रहे हैं जहां वह परिक्रमा के दौरान नहीं पहुंच पाए हैं.

राजनैतिक विश्लेषकों की मानें तो दिग्विजय की यह नई यात्रा ना आध्यात्मिक हैं और न राजनैतिक हैं और न दिग्विजय सिंह की चुनाव लड़ने की मंशा हैं, तो फिर इस यात्रा के मायने क्या होंगे…? इस पर कांग्रेस और भाजपा में मंथन शुरू जो गया है.

यात्रा ने मिटा दी ‘पत्थर की लकीर’

दरअसल दिग्विजय सिंह की इस यात्रा से सियासी गलियारों में ऐसे ही हलचल नहीं है. इस यात्रा में ऐसे भी वाकये सामने आए हैं, जिसने नई मिसाल कायम कर दी हैं. पत्थर की लकीर, इस मुहावरे को बदल कर रख देने वाला एक वाकया संघ से जुड़े एक पदाधिकारी ने पेश कर दिया.

उस शख्सियत का नाम है शैलेन्द्र दुबे. 36 वर्ष के इस युवा का जन्म राष्ट्रकवि पं. माखनलाल चतुवेर्दी की जन्मस्थली बाबई, जिला होशंगाबाद, मध्यप्रदेश में हुआ.

समाजशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट हैं और परिवार का व्यवसाय है दूध डेयरी. शैलेन्द्र पत्रकारिता में भी हाथ आजमा चुके है.

इनके दादाजी जनसंघ से जुड़े रहे. परिवार भाजपा का समर्थक है और शैलेन्द्र उर्फ शैलू भाजपा युवा मोर्चा बाबई के अध्यक्ष रहे हैं.

शैलेन्द्र का मानना था कि दिग्विजय सिंह अधार्मिक हैं, और इन्हें लगता था कि वे हिन्दू धर्म के विरोधी हैं.

नर्मदा परिक्रमा में कुछ दिन पूर्व शामिल हुए फिल्म अभिनेता आशुतोष राणा ने कहा था ‘किसी का प्रभाव जानना है तो उसे दूर से देखिए और यदि स्वभाव जानना है तो उसे करीब से देखिए.’

शैलू, दिग्विजय सिंह का स्वभाव देखना चाहते थे. चूंकि इस परिक्रमा में दिग्विजय सिंह जी ने किसी को आमंत्रित नही किया और किसी को आने से इंकार भी नही किया, इसलिए शैलू उनका स्वभाव जानने की इच्छा से चल दिये उनके साथ नर्मदा परिक्रमा पर.

यात्रा के बाद बदल गई धारणा

शैलेन्द्र ने यात्रा में दिग्विजय सिंह के साथ पूरा अवलोकन किया. शैलू, राजा साहब से तो काफी प्रभावित हैं और उनके व्यक्तित्व और धार्मिकता के मुरीद हो गए है लेकिन जब मैंने उनसे सवाल किया कि क्या परिक्रमा के बाद आप कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता बनेंगे?

शैलू कहते है “यह मेरा व्यक्तिगत निर्णय है.” जब इनसे पूछा गया कि आपको यदि आपकी पार्टी ने निकाल दिया तो?

“तो फिर उनसे बड़ा अधार्मिक कौन होगा, जो नर्मदा परिक्रमा करने पर पार्टी से निकाल दे. फिर मुझे क्या करना है यह परिक्रमा पूरी होने पर तय करूँगा.” ये जवाब शैलेन्द्र ने बड़ी विनम्रता के साथ दिया.

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