इस वीकेंड पर काम पर था. दुर्भाग्य से मेरा जूनियर नहीं आया. जिसकी ड्यूटी थी उसने छुट्टी ले ली… दूसरा कोई मिला नहीं.
एक मैं, और मेरा एक इंटर्न, जिसका कुल एक्सपीरियंस 4 महीने का.
यहाँ वीकेंड पर वार्ड में रिव्यू करने के लिए मरीज़ों की एक लिस्ट होती है. हर वार्ड उसमें अपने सीरियस मरीज़ के नाम डाल देता है.
लिस्ट देखी तो कुल 106 मरीज. एक शिफ्ट में आदमी इतने मरीज़ कैसे देख सकता है? ऊपर से जो क्रैश कॉल्स हैं, वे अलग से.
और सिर्फ मरीज़ देखना ही नहीं है… डॉक्यूमेंटेशन भी पूरा होना चाहिए…
रोज़-रोज़ नए नए रेगुलेशन आते जाते हैं. हर रेगुलेशन मरीज़ की सेफ्टी के नाम पर आता है और वह काम करने को बिल्कुल असंभव बना देता है.
लिस्ट के 106 मरीज़ कहाँ से आये?
कोई रिस्क नहीं लेना चाहता. लोगों ने अपने आधे वार्ड को लिस्ट पर डाल दिया था. कि मरीज़ बिगड़े तो जिम्मेदारी किसी और की हो. यानि ऐसी एक सिक-लिस्ट का कोई मतलब ही नहीं रह गया.
अब इसमें विषैला वामपंथ कहाँ से आ गया?
कुछ दिनों पहले मुझे क्लोवर्ड-पिवेन स्ट्रेटेजी के बारे में पता चला.
1960 के दशक में अमेरिका के एक वामी दम्पत्ति ने एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने अपने कॉमरेड बंधुओं को समझाया था कि अगर ज्यादा से ज्यादा लोगों को सोशल सपोर्ट पर डाल दिया जाए तो पूरी आर्थिक व्यवस्था ही चौपट हो जाएगी.
तो कॉमरेड लोग, लोगों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने के नाम पर जा-जा कर लोगों को उकसाते थे कि वे नौकरी छोड़ कर बेरोज़गारी भत्ता के लिए आवेदन करें.
जुडिशियल एक्टिविज्म भी कुछ ऐसा ही है. यह लीगल क्लोवर्ड-पिवेन स्ट्रेटेजी है.
इतने नियम बना दो कि उनका पालन करना असंभव हो जाये और व्यवस्था काम ही ना कर सके.
तो हमारे मीलॉर्ड लोग जो कूद-कूद कर हर बात में घुसते हैं… हमेशा उसके पीछे एक नेक मिशन का हवाला देते हैं… मेरे केस में मरीजों की सुरक्षा का, तो कभी पर्यावरण का तो कभी इसके अधिकार का तो कभी उसके अधिकार का…
और लोगों को कानून के डर से कुछ ऐसे बर्ताव करने पर मजबूर कर देते हैं कि व्यवस्था को पैरालिसिस हो जाये… यही इनका मूल उद्देश्य है, यही नीयत है… और जैसा कि मैंने कहा था – वामपंथी को सिर्फ उसकी नीयत से ही पहचाना जा सकता है.