बकौल नायक –
आप अखंड नहीं है. आपका एक अंश ओशो और अमृता प्रीतम की आध्यात्मिकता से प्रभावित होता है, दूसरा अंश सुरेन्द्र मोहन पाठक के थ्रीलर उपन्यास से. आपका एक अंश पिछले जन्मों की बातों और आध्यात्मिक अनुभूतियों में संलग्न हो जाता है, तो एक अंश घर-गृहस्थी की छोटी मोटी परेशानियों में.
इन सबके बावजूद भी यदि आपकी अंतरआत्मा इन सब बातों से अप्रभावित और शांत रहे तो कोई बात है. वरना समंदर की हर लहर को लगता है कि मैं सबसे ज़्यादा ऊंची उठती हुई लहर हूँ, जो किनारे पर आते आते बहुत छोटी हो जाती है.
किनारे पर जो छोटी छोटी लहरें बन रही है वो वही पीछे की बड़ी लहरों का रूप है, जो एक के पीछे एक बनती चली आ रही है. एक लहर ऊपर उठकर जब आगे बढ़ती है तभी तो दूसरी लहर बन पाती है. सारी लहरें एक दूसरे से जुडी हुई है.. इसी तरह जीवन की हर घटना और हर वो व्यक्ति जिनसे आप मिलते हैं कहीं न कहीं एक दूसरे से जुड़े होते हैं. हर घटना का होने वाली दूसरी घटना से नाता होता है.
फिर ये शिकायत क्यूं करना कि काश ऐसा होता तो कैसा होता या काश वैसा होता तो कैसा होता. यदि गुलाब के साथ कांटे न होते तो गुलाब, गुलाब कैसे हो पाता. गुलाब की तो गुलाब होने में ही नियति है, वो और कोई फूल कैसे हो सकता है. और गुलाब को पाना है तो काँटों के चुभने की क्या शिकायत करना.
बकौल नायिका-
लेकिन जैसे गुलाब को देखकर मन खुश हो जाता है वैसे ही काँटा चुभने पर यदि मुंह से सिसकारी न निकले तो काँटा, काँटा कैसे कहलाएगा. और गुलाब को छूते समय काँटा चुभ जाए तो क्या ये ख़याल न आएगा कि काश इतने सुन्दर फूल के साथ काँटा न होता…
आज का सबक –
जीवन की सारी ऊहा-पोह और सारी बहस के बाद उस विस्मृत मौन का ज़रूर स्मरण करें, जो सभ्यता और भाषा की खोज के पहले भी उपस्थित था और उसके विलुप्त होने के बाद भी उपस्थित रहेगा…..
– माँ जीवन शैफाली की डायरी से
नए वर्ष की डायरी से : किसी को छोड़ देना इतना मुश्किल नहीं होता जितना अपना बनाना