एक समय मुझे कुछ भी पढ़ जाने की अपनी क्षमता पर बहुत अभिमान था.
जेफरी आर्चर और फ्रेडरिक फोरसिथ को पढ़ने से शुरू करके जब नायपॉल और मारकेज़ तक पहुंचा तो थोड़ा सा घमंड से अकड़ सा गया था.
2003 की बात है. मेरठ में एक सीनियर थे, उन्होंने एक दिन एक किताब दी और शर्त लगाई कि इसे पढ़ के दिखाओ…
किताब थी फ्रांज़ काफ्का के तीन उपन्यासों का एक संकलन.
मैंने कई दफा कोशिश की. साल भर तक कोशिश करता रहा… तीस चालीस पेज से आगे नहीं बढ़ पाया.
जब मेरठ छोड़ने लगा तो उन्हें वह किताब लौटाने की कोशिश की… उन्होंने वापस भी नहीं ली. कहा, तुम्हें क्या लगता है, मैं इसे पढ़ने वाला हूँ क्या?
वह किताब आज भी भारत में घर के किसी कोने में पड़ी होगी. आज नाम भी याद नहीं है.
2005 में काफ़्का से दूसरा परिचय हुआ. लंदन में एक बंगाली मित्र से घर शेयर करता था. वे घोर वामपंथी थे. घोर मने घनघोर समझिये.
उन्हें कहा – क्या तुम अभी तक मार्क्स-लेनिन में अटके हो. वामपंथ मार्क्सवाद से आगे बढ़ चुका है, आज पोस्ट-मॉडर्निज्म की बात होती है.
उन्होंने कहा, तुम्हें काफ़्का और मारकेज़ बोझिल और डिप्रेसिंग लगते हैं? तो गुंटर ग्रास को पढ़ो… उसके सामने तो काफ़्का तुम्हें कॉमेडी लगेगा…
इस बार मैंने यह चारा नहीं लिया और गुंटर ग्रास को दूर से प्रणाम किया. पर एक गलती की, पोस्ट-मॉडर्निज्म को समझने की कोशिश नहीं की.
आज हम जिस फ्रैंकफर्ट स्कूल के कल्चरल मार्क्सवाद की बात कर रहे हैं, वही है पोस्ट-मॉडर्निज्म.
2010 में काफ़्का का एक रियल लाइफ अनुभव हुआ.
इमरजेंसी में एक मरीज आया. मैं देखने गया. उसके इमरजेंसी कार्ड पर साफ साफ नहीं लिखा हुआ था कि वह क्यों आया है. 45-50 के आसपास का, स्टाइलिश दाढ़ी और मोटे चश्मे वाला एक इम्प्रेसिव व्यक्ति था.
मैंने इज्जत से उससे पूछा कि क्या मदद कर सकता हूँ, वह इमरजेंसी में क्यों आया है. उस व्यक्ति ने बहुत ही अच्छी अंग्रेज़ी में बताना शुरू किया. मैं ध्यान से सुनता रहा, 4-5 मिनट में मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा. लगा कि वह कुछ भटक गया था.
मैंने उसे टोका और वापस ट्रैक पर लाने की कोशिश की. उसने फिर से बताना शुरू किया, फिर भटक गया. मैं लगभग 20 मिनट तक उसे सुनता रहा, टोकता पूछता रहा… पल्ले कुछ नहीं पड़ा.
हर बार लगता कि वह कुछ बहुत ही गूढ़ और महत्वपूर्ण बात कहने वाला है, फिर कुछ और कहने लगता.
20 मिनट बाद मैं ‘एक्सक्यूज़ मी’ कहकर क्यूबिकल से बाहर आया और कंप्यूटर पर उसकी पास्ट मेडिकल हिस्ट्री चेक करने लगा.
तब तक मेरा बेचैन ऑस्ट्रेलियन कंसलटेंट आया और पूछा, इतनी देर से एक बन्दे से इतनी क्या बात कर रहे हो? भीड़ है, जल्दी करो… क्या है इसे?
मैंने कहा, पता नहीं! उससे बात करके लगता है जैसे फ्रांज़ काफ़्का की किताब पढ़ के उठा हूँ.
उसने मुझसे कंप्यूटर ले लिया, और उसके पुराने क्लिनिक लेटर्स देखे… उसे सीज़ोफ्रेनिया था. वह पास के साइकियाट्री हॉस्पिटल से लाया गया था. और उसके साथ के अटेंडेंट उसे छोड़ कर बाहर निकल गए थे फ़ोन करने या सिगरेट पीने.
उस दिन मुझे वामपंथी साहित्य का एक रहस्य समझ में आया… वामपंथी साहित्य किसी मनोरोगी के प्रलाप जैसा होता है. गूढ़-गंभीर होने का भ्रम देता हुआ, अर्थहीन प्रलाप. उससे बात करके मुझे काफ़्का अकारण ही नहीं याद आया.
आज गूढ़ गंभीर होने का भ्रम देने वाली पुस्तकों पर समय बर्बाद नहीं करता. वामपंथी यूँ भी कुछ भी स्पष्ट नहीं कहते. यूँ ही गोल गोल लच्छे बनाते हैं… पर उनमें अर्थ खोजना गरई मछली पकड़ने जैसा है.
खैर, अपना यह संकल्प तोड़ते हुए कुछ वामपंथी साहित्य छू लेता हूँ आजकल. ऐसी ही एक किताब है, सैमुएल बैकेट का नाटक – वेटिंग फ़ॉर गॉडो.
बैकेट को नोबेल पुरस्कार मिला है और यह उसकी सबसे प्रसिद्ध रचना है. करीब दो घंटे का नाटक है, दो अंकों का.
दो लोग बैठ कर गॉडो की प्रतीक्षा करते हैं और वह नहीं आता. वे सारे समय कहते रहते हैं… क्या करें, करने को कुछ नहीं है… हम गॉडो की प्रतीक्षा कर रहे हैं.
सारे समय वे गॉडो की प्रतीक्षा में बैठे अर्थहीन बातें करते रहते हैं. थोड़ी देर के लिए दो और लोग आते हैं, वे भी अर्थहीन बातें करके चले जाते हैं.
उसमें से एक लकी नाम का चरित्र है और वह लगभग पाँच मिनट का मोनोलॉग करता है, जो एक वाक्य के रूप में भी अर्थहीन है. आखिर में कुछ भी नहीं होता और गॉडो नहीं आता.
उस नाटक के बारे में किसी ने कहा है कि यह दुनिया का अकेला ऐसा नाटक है जिसमें “कुछ नहीं” दो बार होता है. आप यह भी नहीं समझते कि गॉडो कौन था और ये दो लोग उसकी प्रतीक्षा क्यों कर रहे थे…
लोग तरह तरह के अनुमान लगाते हैं और इस नाटक के अर्थ खोजते हैं. पर जब बैकेट से पूछा गया कि गॉडो कौन था, तो उसने कहा कि अगर उसे पता होता तो वह इसे अपने नाटक में ही बता देता.
और यह है एक नोबेल पुरस्कार विजेता नाटककार की सबसे प्रसिद्ध कृति. सोचें यह साहित्य कितना बड़ा फ्रॉड है…
वेटिंग फ़ॉर गॉडो सिर्फ एक अंतहीन प्रतीक्षा और निराशा की कहानी है. पूरा वामपंथी साहित्य ही निराशा और क्लेश की पूजा करता है. निराशा वामपंथ का बहुत ही सशक्त हथियार है.
प्रख्यात वामपंथी विचारक जॉर्ज लुकास का कथन है – मैं निराशा की संस्कृति चाहता हूँ… एक ऐसा विश्व जिसे ईश्वर ने त्याग दिया हो…