भारतीय इतिहासकारों का झूठ : कोरेगांव का सच

500 वीर महार योद्धा बनाम 28000 पेशवा योद्धा, परिणाम पेशवा की हार और ब्रिटिश सेना की जीत

सच्चाई

हम भारतीयों की एक समस्या है कि हम आसानी से किसी की भी बात मान लेते हैं और उस पर दो तीन झूठे तथ्य कोई रख दे तो हम उसका सोर्स भी कन्फर्म नहीं करते कि सच भी या सिर्फ झूठ का पुलिंदा.

कोरेगांव की लड़ाई मराठों और ब्रिटिश शासन के बीच लड़ी गयी तीसरी लड़ाई थी जिसमें न तो किसी की जीत हुई न हार फिर मराठा हार गए ये कहना सरासर गलत है. आइये इसकी सच्चाई तथ्यों और आकड़ो के आईने से देखते है-

मराठा संघ (साम्राज्य)

पुणे के पेशवा, ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होल्कर, बड़ौदा के गायकवाड़ और नागपुर के भोसले शासित राज्यों को एक साथ मराठा साम्राज्य बोला जाता था. और सभी पेशवा के आदेशों का पालन करते थे.

ब्रिटिश हुकुमत ने 2 लड़ाइयों में बुरी तरह हारने के बाद शांति समझौता कर लिया था, लेकिन अपना “devide and rule” थीम के तहत लोगों को पेशवा के खिलाफ भड़काना नहीं छोड़ा और इसी के फलस्वरूप पेशवा और गायकवाड़ के बीच राजस्व-साझाकरण विवाद हो गया और गायकवाड़ ने ब्रिटिश हुकूमत से मदद मांगी तो 13 जून 1817 को, कंपनी ने पेशवा बाजी राव द्वितीय को समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया जिसमे ये लिखा था कि पेशवा गायकवाड़ राजस्व जो अब ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा है उस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं होगा. पुणे की इस संधि ने औपचारिक रूप से अन्य मराठा प्रमुखों पर पेशवा की उपनिष्ठा समाप्त कर दी, इस प्रकार आधिकारिक तौर पर मराठा संघ का अंत हो गया.

कोरेगांव की लड़ाई

5 नवंबर 1817 को पुणे के पास खड़की में पेशवा और ब्रिटिश सेना की मुठभेड़ हुई और जब बाजीराव को लगा कि वो बंदूकों और तोपों के सामने तलवारों से नहीं लड़ सकते तो उन्होंने पीछे हटने का निर्णय लिया और कोंकड की ओर बढ़ने की सोची. सतारा से हटने के बाद भीमा नदी के सहारे उन्होंने कोंकड की ओर बढ़ना शुरू किया और कोरेगांव के पास नदी जब पार करने जा रहे थे तभी उन्हें ब्रिटिश सेना द्वारा देख लिया गया जो शिरूर से भेजे जा रहे थे पुणे में पेशवा से लड़ने के लिए लेकिन उनकी मुठभेड़ कोरेगांव में ही हो गयी.

सेनाओं के संख्याबल

अब आते हैं उस मुद्दे पर जिस पर राजनीति की रोटी सेकी जाती है कहा जाता है कि 28000 मराठा से 500 महार लड़े लेकिन ये सिर्फ झूठ है. बॉम्बे गजेटियर की एक रिपोर्ट के अनुसार,

पेशवा की सेना में 20,000 घुड़सवार और 8,000 पैदल सेना शामिल थीं. इनमें से लगभग 1200 पुरुषों को लड़ने के लिए भेजा गया जिनमें 300 गोसाई 300 अरब और 600 मराठा योद्धा थे यानी कुल 1200 पेशवा लड़ाके हमला बापू गोखले, अप्पा देसाई और त्रिंबकजी डेंगले की अगुवाई में लड़ा गया. जिनके पास सिर्फ तलवार भाले और तीर कमान ही थे.

ब्रिटिश सेना में बॉम्बे नेशनल इन्फैंट्री की पहली रेजिमेंट के दूसरे बटालियन के 500 सैनिक (महार कितने इसका कोई उल्लेख कही नही मिलता), लेफ्टिनेंट और एडजंटेंट पैटिसन लेफ्टिनेंट जोन्स सहायक-सर्जन विंगेट लेफ्टिनेंट स्वानस्टोन के तहत करीब 300 सहायक सवार थे 24 यूरोपीय और 4 निवासी मद्रास आर्टिलरीमेन, जो छह 6 पौंड बंदूकें के साथ यानी 834 कि संख्या में वो भी 28 टोपे और 300 बंदूखो के साथ.

युद्ध का परिणाम

600 मराठाओं ने 300 अरब योद्धाओं के साथ नदी पार करने और कोरेगांव में स्थित ऊँचाई पर खड़े पहली पंक्ति की आर्टिलरी पर कब्जा करने का लक्ष्य रखा ताकि उसके पीछे स्थित कच्ची मिट्टी की दीवार के पीछे तैनात तोप के गोलों का जवाब तोप के गोलों से और बन्दूको से दिया जा सके नही तो पहली पंक्ति जीतने के बावजूद सब मारे जाते.

इस नदी को पार करने और ब्रिटिश आर्टिलरी तक पहुँचने में 400 मारे गए जिनमे से 150 के आसपास अरब योद्धा थे, बाकी बचे 500 सैनिकों में अगुवाई कर रहे सभी योद्धाओं में सिर्फ त्र्यंबकजी ही जीवित बच पाए और 300 सैनिक जो गोसाई थे पिछली पंक्ति में वो आगे आ गये ,और ब्रिटिश सेना के पहली पंक्ति में तैनात सभी 150 सैनिक मारे गए.

दूसरी बार जब दीवार के पीछे के फायर कर रहे सैनिकों तक पहुँचने की कोशिश में 800 सैनिकों में से 150 मारे गए और छीनी गयी तोपों और बंदूकों के हमले से ब्रिटिश सेना के 200 सैनिक मारे गए. और सेना की क्षति को देखते हुए त्र्यंबकजी ने बचे हुए 650 सैनिकों के साथ पीछे हटने का निर्णय लिया , और पेशवा के साथ नासिक के ओर बढ़ने का निर्णय लिया मतलब साफ है — 1200 तलवारों के सामने 800 सैनिक तोपो और बंदूखो क साथ फिर भी वो डटे रहे युद्ध में किसी भी पक्ष ने निर्णायक जीत हासिल नहीं की.

ब्रिटिश बॉम्बे गजेटियर कहता है कि –
834 कम्पनी सैनिकों में से 275 लोग मारे गए, घायल हो गए या लापता हो गए. मृतों में दो अधिकारी शामिल थे – सहायक-सर्जन विंगेट और लेफ्टिनेंट चिशोल्म; लेफ्टिनेंट पैटिसन बाद में शिरूर में उनके घावों के कारण मृत्यु हो गई. पैदल सैनिकों में से 50 मारे गए और 105 घायल हुए. तोपखाने में 12 लोग मारे गए और 8 घायल हुए. पेशवा के लगभग 500 से 600 सैनिक युद्ध में मारे गए या घायल हुए.

माउंटस्टुआर्ट एलफिन्स्टन ने इसे पेशवा के लिए “छोटी सी जीत” बताया फिर ये महारो के शौर्य का प्रतीक किस इतिहासकार ने बनाया ऊपर वाला ही जाने.

विशेष

अपने मृत सैनिकों की स्मृति में, कंपनी ने कोरेगांव में “विजय स्तंभ” (एक ओबिलिस्क) का निर्माण किया. स्तंभ के शिलालेख घोषित करता है कि कप्तान स्टॉन्टन की सेना ने “पूर्व में ब्रिटिश सेना की गर्वित विजय हासिल की.”

फिर ये विजय स्तम्भ और महार संबंध कहा से आये तो इसका जवाब है अम्बेडकर की राजनैतिक महत्वाकांक्षा, 1 जनवरी 1927 तक इस विजय स्तम्भ पर कोई नाम महार या महार योद्धा जैसा कुछ नहीं था. इसी दिन अम्बेडकर ने उस विजय स्तम्भ पर महारों के नाम खुदवाए हुए संगमरमर एक शिलालेख लगवाया जिसका किसी ने विरोध नहीं किया क्योंकि सब राजनीति की रोटी सेकना चाहते थे. उसका परिणाम हम आज भुगत रहे हैं गलत इतिहास का खंडन छोटे स्तर से ही सही लेकिन हो चुका है.

कोरेगांव की लड़ाई कहीं से भी महार शौर्य का प्रदर्शन नहीं करती है ये बस राजनैतिक महत्वाकांक्षा में हमे आपस में लड़ाने का एक सुनियोजित प्रोपगंडा है.

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