इस समय आपको आश्चर्य हो रहा है ना? होना भी चाहिए ये भी कोई समय है होली मनाने का? होली नहीं मना रहे हम हम मना रहे हैं उत्सव.
आसमान में उड़ती पतंगे, हाथों में गुलाल, चेहरे पर खुशियों के रंग, काले आसमान में उजालों की आतिशबाजियां, रंग बिरंगी कपड़े और ढोल की आवाज़ के साथ नव दुर्गा को आह्वान, या फिर गणेश को घर बुलाकर दस दिनों तक उसकी खातिरदारी..
क्या उत्सव इसी का नाम है? कुछ विशेष दिन या कुछ विशेष दिनों तक चलने वाले तीज त्यौहार पर ही उत्सव का आनंद रहता है? ऐसा क्यों नहीं होता कि आज मन है कि होली खेलना है तो कुछ दोस्तों और निकट सम्बन्धियों को और पड़ोसियों को बुलाकर बिना होली के त्यौहार के ही होली मना ली? दिवाली कि दिनों में गणेश उत्सव मना लिया? और गणेश उत्सव के दौरान गरबा खेल लिया? जो सब कर रहे हैं वही हम भी दोहराएं ज़रूरी तो नहीं ना? उत्सव मनाने के लिए हम क्यों किसी ख़ास दिन का इंतज़ार करते रहते हैं?
उत्सव का भाव अन्तः करण से जागता है, और ऐसा ज़रूरी तो नहीं कि वो भाव किसी ख़ास दिन ही जागे. बल्कि कई बार ऐसा होता है कि किसी और महत्वपूर्ण कार्य या किसी भी काम की व्यस्तता के बीच जब कोई त्यौहार आ जाता है, तो वो हमें बोझ-सा लगाने लगता है. उस विशेष त्यौहार के आ जाने पर हमें अपना काम छोड़कर उसकी तैयारी में लगना मजबूरी सा लगने लगता है. क्या उस समय भी मन में उत्सव का या आनंद का भाव उतना ही प्रगाढ़ होता है?
उत्सव किसी ख़ास त्यौहार या दिन को नहीं कहते. उत्सव एक भाव है जो हमारे अन्दर सदैव रहता है, बल्कि इतना कूट कूट कर भरा है कि जैसे ही कोई मौक़ा मिलता है, हम उसका आनंद लेने लगते हैं.
उत्सव तो उस पल को भी कहा जाना चाहिए जब हम दोस्तों के साथ फिल्म का आनंद लेने निकल पड़ते हैं, बच्चों के साथ किसी बगीचे में खेलने कूदने लगते हैं या परिजन के बीच बैठकर गपशप और हंसी-ठहाकों का आनंद लेने लगते हैं.
उत्सव का भाव तो हमारे चेहरे पर सदैव बने रहना चाहिए. जिसके आनंद में हम खुद ही नहीं सामने वाला जो हमें देख रहा है वो भी आनंदित हो उठे. तो भर लो मुट्ठी में रंग और चलो इस नवरात्री पर खेले होली.
- माँ जीवन शैफाली