वह दौर और था जब अभिवादन पत्र (ग्रीटिंग कार्ड) के द्वारा नववर्ष का संदेश भेजा जाता था. जिसमें नववर्ष की बधाई का उद्देश्य कम बल्कि अपनी प्रेमिका तक यह बात पहुंचाना अधिक था कि विगत वर्ष से मैं आपके प्रेम की चिमनी में घुट रहा हूँ यदि आप अपनी हृदय की खिड़की खोल देंगी तो हम भी जी लेंगे इस वर्ष खुलकर.. नहीं तो घुटघुट कटी रही है जिन्दगी.
वैसे आज सूचनाओं और संदेशों की धकमपेल मची है. हर जगह संदेशों का ट्रैफिक जाम लगा है. इन्टरनेट ने इतनी सामग्री उड़ेल दी है कि दुनिया की महान कलाकृतियाँ भी नजर में बहुत देर तक नहीं ठहरतीं, लेकिन उस दौर में एक आठ आने के ग्रीटिंग कार्ड पर गुलाब का फूल अपनी कली के साथ जो भावात्मक वार्तालाप करता था वह बड़े-बड़े प्रेमपत्र न कर पायें. पान की रक्त आकृति में टहनियाँ लिये गुलाब प्रेम की समस्त अभिव्यक्तियों की क्षमता रखता था भले उसका मूल्य डेढ़-दो रूपये ही क्यों न हो.
आज के दौर में संदेश भेजने और पाने वाले दोनों में व्यग्रता है यदि मैसेज प्रेषित न हो रहा या ग्रहित न हो पा रहा दोनों अवस्था में लोग बेचैन. लेकिन पहले ऐसा नहीं था दिसम्बर के प्रथम सप्ताह से ही अभिवादन पत्रों की खरीदारी शुरु हो जाती थी. रिश्तों के हिसाब से चित्रों का चयन होता था. डायरी से शायरियाँ निकाली जाती थी. संदेश के महत्वपूर्ण भाग को बकायदे स्कैच पेन से दर्ज किया जाता था.
डाकविभाग की लापरवाही को ध्यान में रखकर पन्द्रह दिन पहले से ही ग्रीटिंग्स डाकविभाग पहुंचा दिये जाते थे. विशेष सम्बन्धों के अभिवादन पत्रों की चमक और चित्र दोनों विशेष होते थे. एक विद्यार्थी के लिये उस माह का सबसे बड़ा निवेश अपनी प्रेमिका के लिये ग्रीटिंग कार्ड्स खरीदना ही था भले उसकी उसकी खरीदारी में दो रजिस्टर अथवा माट्साब की ट्यूशन फीस की आहुति दी गई हो.
ऐसे ग्रीटिंग्स को खरीदना ही बड़ी बात नहीं थी. बड़ी बात उसको तब तक अपने पास सहेज कर रखना था जब तक उसे लक्ष्य तक प्रक्षेपित न कर दिया जाये. एक विद्यार्थी के लिए अपने बस्ते और कॉपी में पन्द्रह-बीस दिन तक वह मोटा कार्ड छिपाना वैसा ही था जैसे किसी वांटेड अपराधी को घर में पनाह देना. उससे कठिन था एक माकूल संदेशवाहक ढूंढना और इतना विश्वास भरना कि बात खुले न. इन दोनों से भी अधिक कठिन था लक्ष्य तक कार्ड विश्वसनीयता और गोपनीयता के साथ प्रेषित करना वो ऐसे ही था जैसे मुजरिम का कोर्ट में हाजिर होना.
क्या गारंटी की इतने चक्रव्यूह तोड़ने के बाद आप लक्ष्य तक पहुंच ही जाये और इस बात की क्या गारंटी की आवेदनकर्ता का आवेदन स्वीकार ही हो. बहुत से आवेदन तो लिफाफा खोले बिना बैरंग लौट आते थे. कुछ का खुलने पर भी विचार नहीं किया जाता था. कठिन प्रकिया से गुजरता था अभिवादन पत्र… न जाने कितने पत्र तो अस्पताल पहुंचने के पहले ही दम तोड़ देते थे बिना डाक्टर के स्पर्श एवं परामर्श.
बड़ी सीमित शायरियों में असिमित भावनाओं का आदान प्रदान किया जाता था. लोग वर्षों छिपा, चुरा कर रखते थे ऐसी शायरियाँ और कार्ड.. दरअसल महत्वपूर्ण तो भावनाएँ हैं…. शब्दों का क्या ये तो छलिया हैं… अब शब्दों की कलाकारी अधिक है भावनाओं की कम. पहले भावनाएँ ही सुनामी बनकर उपद्रव कराती थीं.
मैं आपको एक वाकया सुना रहा हूँ लेकिन शर्तें इतनी जरूर है कि आप इस वाकये में भावनाओं को समझने का प्रयास करेंगे न कि शब्दों को-
हुआ यूं कि एक दस-ग्यारह साल का एक बच्चा जो दीनदुनिया की कलाबाजियों से अपरिचित था. उसकी बहन का विवाह उसी वर्ष हुआ एवं उसकी बहन नववर्ष पर अपने ससुराल थी. जमाना ग्रीटिंग्स का था तो भाई ने अपनी प्रिय बहन के लिये अपने पाकेट खर्च से एक सुन्दर सा कार्ड खरीदा एवं वह नववर्ष के की मंगलकामना के संग यह बात भी दर्ज करना चाहता था कि दीदी आपकी बहुत याद आती है. घर सूना-सूना सा लगता है…
खैर वह तो ठहरा निश्छल बालक.. बच्चे ने अपनी समझ के हिसाब से किसी डायरी के पन्ने से एक प्रसिद्ध शायरी उठाकर अपनी नन्हीं अंगुलियों में पेंसिल पकड़कर अपनी भावना दर्ज कर दी..
शायरी कुछ यूं थी कि
खाता हूँ पान.. लगाता हूँ तकिया
दीदी तेरी याद में……………..
डाकिया जब यह अभिवादन पत्र लेकर उसकी दीदी घर पर पहुंचा तो वह पत्र उसके जीजाजी के हाथ आया. उसके जीजाजी जब ग्रीटिंग खोले तो हँसकर लोटपोट हो गये….. उसकी दीदी को खूब चिढ़ाये. घंटों मजाक चला..
खैर! बहना शर्मिंदा भले हुई हो लेकिन अपने भाई के निश्छल प्रेम को अवश्य महसूस की होगी कि मेरा भैया मुझे बहुत प्रेम करता है. इसलिए बहुत बार शब्दों से अधिक भावनाओं को समझना पड़ता है… कार्ड, फोन, सोशल मीडिया आदि तो एक माध्यम हैं.. समय के साथ बदलते रहेंगे लेकिन भावनाएं निश्छल होनी चाहिए. भावनाएं किसी न किसी माध्यम से अपनों को सूचित कर देतीं हैं.