शरीर साधन है : कठोपनिषद 2

गतांक से आगे…

शरीर को दोष देने वाला बिलकुल निर्बुद्धि है. उपनिषद की इस धारणा को समझकर, आप इस सूत्र में प्रवेश करें.

सरल विशुद्ध ज्ञानस्वरूप अजन्मा परमेश्वर का ग्यारह द्वारों वाला मनुष्य शरीर नगर है, पुर है.

इसलिए हमने मनुष्य को पुरुष कहा है. पुरुष का अर्थ है जिसके भीतर, जिस पुर में परमात्मा बसा है, जिस नगर में छिपा है.

पुरुष बड़ा बहुमूल्य शब्द है, पुर से बना है – नगर. और नगर ही कहना चाहिए, घर कहना ठीक नहीं है, क्योंकि घर बड़ी छोटी चीज़ है.

आपका शरीर सच में ही नगर है. और छोटी—मोटी आबादी नहीं है उस नगर की. सात करोड़ जीवकोष्ठ हैं. सात करोड़ जीवित कोष्ठ आपके शरीर को बना रहे हैं. एक विशाल नगर है.

उन कोष्ठों की दृष्टि से अगर हम सोचें, अगर आपके शरीर के एक कोष्ठ को, एक सेल को आपकी ऊंचाई के बराबर बड़ा कर दिया जाए, तो आपका शरीर लंदन के बराबर बड़ा नगर हो जाएगा, उसी अनुपात में.

और लंदन में जैसी सड़कें हैं, और लंदन में जैसी नदी बहती है, और लंदन में जैसे तारों का जाल है, टेलीफोन का, टेलीग्राफ का; पुलिस के सिपाही हैं, मिलिटरी है, नगर—निवासी हैं; मालिक हैं, गुलाम हैं, गरीब हैं, अमीर हैं – इन सात करोड़ निवासियों में सारी की सारी ऐसी अवस्था है. इसमें पुलिस के सिपाही हैं.

अगर आप चिकित्साशास्त्र से पूछें, तो आप बड़े चकित हो जाएंगे.

शरीर बड़ी अनूठी घटना है. जरा सी चोट लगती है आपको और आप पाते हैं कि थोड़ी ही देर में वहां मवाद इकट्ठी हो गई. आपने कभी सोचा नहीं होगा कि मवाद चोट लगते ही क्यों इकट्ठी होती है?

यह मवाद नहीं है, ये आपके खून के सफेद सेल हैं, जो कि शरीर में पुलिस का काम कर रहे हैं, पूरे समय. जहां भी खतरा होता है, उपद्रव होता है, दुर्घटना होती है, भागकर वहां पहुंच जाते हैं. और उस जगह को घेर लेते हैं. क्योंकि उस जगह को घेर लेने के बाद फिर कोई इकेक्यान भीतर प्रवेश नहीं कर सकता.

और अगर वह जगह खुली रह जाए, तो कोई भी कीटाणु, बैक्टीरिया, कोई भी बीमारियों के वाहक तत्काल भीतर प्रवेश कर सकते हैं. तो आपके खून के सफेद सेल हैं.

वे तत्काल भागकर पहुंच जाते हैं और जहां भी घाव लगता है उसको चारों तरफ से घेरकर ढांक देते हैं. उसको आप मवाद कहते हैं. वह मवाद नहीं है, वह आपके शरीर की सुरक्षा का उपाय है.

अब यह बड़ी हैरानी की बात है. चिकित्साशास्त्र समझाने में असमर्थ है कि इन सफेद सेलों को कैसे पता चलता है कि चोट पैर में लगी, कि सिर में लगी, कि हाथ में लगी!

और वे पूरे शरीर से भागकर, खून में यात्रा करके वहां पहुंच जाते हैं, तत्काल उस जगह को घेर लेते हैं. अगर आपके शरीर के सफेद सेल कम हो जाएं, तो आप बहुत ज्यादा बीमार पड़ने लगेंगे, क्योंकि आपके सुरक्षा दल की कमी हो गई.

इसलिए सफेद सेल की एक मात्रा आपके शरीर में होनी ही चाहिए. अगर वह न हो तो आपका रेसिस्टेन्स, आपकी बीमारी से लड़ने की ताकत कम हो जाएगी. क्योंकि वे लड़ रहे हैं. उनको आपका कोई भी पता नहीं है.

बड़ा मजा यह है कि इन सात करोड़ सेलों का जो बसा हुआ नगर है, आपका इसको कोई अनुभव ही नहीं है, कि आप भी इसमें हैं. हो भी नहीं सकता. आपसे इनकी कोई मुलाकात भी नहीं होती.

वे अपने काम में लगे रहते हैं. कुछ खून बनाने का काम कर रहे हैं, कुछ भोजन को पचाने का काम कर रहे है. भोजन आप कर लेते हैं, उसको जीवाणु तोड़ रहे हैं, पचा रहे हैं, रासायनिक द्रव्यों में बदल रहे हैं. खून, मांस बन रहा है. पूरा काम चल रहा है. और सब काम ठीक से विभाजित है.

हिंदुओं ने बहुत पुराने समय में चार वर्णों की कल्पना की थी, करीब-करीब चार वर्णों के सेल शरीर में हैं. उसमें शूद्र सेल हैं, जो सेवा में लगे हैं. उसमें वैश्य सेल हैं, जो चीजों को रूपांतरित करने का व्यवसाय कर रहे हैं.

एक चीज को दूसरे में बदलते हैं. एक रासायनिक को हारमोन बनाते हैं, एक हारमोन को कुछ और बनाते हैं. पूरे वक्त व्यवसाय में लगे हैं. उसमें क्षत्रिय हैं, जो पूरे समय रक्षा में लगे हैं. उसमें ब्राह्मण हैं, जो पूरे समय विचार में संलग्न हैं. आपके मस्तिष्क के सब सेल ब्राह्मण सेल हैं.

हिंदुओं ने जो कल्पना की थी कि शूद्र पैर से, और ब्राह्मण सिर से, वह प्रतीक कीमती है. पूरा शरीर विभाजित है. इस बात की बहुत संभावना है कि योगियों के अंतर्दर्शन से भीतर की जो व्यवस्था खयाल में आई हो, उसी व्यवस्था को उन्होंने समाज में लागू किया हो और वर्ण की व्यवस्था प्रचलित हुई हो.

इसकी बहुत संभावना है. क्योंकि ये चार वर्णों का खयाल कैसे पैदा हुआ? और यह सिर्फ भारत में पैदा हुआ. भारत के बाहर कहीं भी चार वर्णों का, वर्णों का कोई खयाल पैदा नहीं हुआ.

असल में भारत के बाहर शरीर के नगर में प्रवेश की कोई चेष्टा ही नहीं हुई. तो भीतर के गहरे दर्शन से यह समझ में आया होगा. इस दर्शन को ही फैलाकर समाज पर…

चाहे दुनिया में चार वर्ण माने जाते हों या न माने जाते हों, चार वर्ण होते तो हैं ही. चाहे रूस हो और चाहे अमरीका हो, शूद्र तो होता ही है. शूद्र को रूस में वे प्रोलोतेरियेत कहते हैं, सर्वहारा. नाम बदलने से कुछ फर्क नहीं पड़ता.

कोई है, जो मजदूर का काम करता ही रहता है. चाहे समाज बदले, राज्य की व्यवस्था बदले, अर्थशास्त्र बदले, लेकिन कोई तो वहां शूद्र का काम करता ही रहेगा.

लोकतंत्र हो, कि तानाशाही हो, कि किसी तरह का तंत्र हो, कोई तो वहां होगा कि जो क्षत्रिय की तरह छाती पर बैठा ही रहेगा.

और कैसा ही तंत्र हो, ब्राह्मण को सिर से नीचे उतारना असंभव है. उसका कोई उपाय नहीं है. क्योंकि ब्राह्मण सिर है, उसको उतारने का कोई उपाय नहीं. कितनी ही चेष्टा की जाए, ब्राह्मण सदा सिर पर पहुंच जाएगा.

आज रूस में प्रोफेसर की, डॉक्टर की, इंजीनियर की, वैज्ञानिक की जो प्रतिष्ठा है, वह किसी और की नहीं है. वे ब्राह्मण हैं. उनका सबका धंधा विद्या है.

अमरीका में तो यह डर पैदा होता जा रहा है कि आने वाले सौ वर्षों में वैज्ञानिक इतने ज्यादा शक्तिशाली होते जा रहे हैं कि कहीं वे पूरे राज्यतंत्र पर कब्जा न कर लें, क्योंकि सारी कुंजी उनके हाथ में है.

आज राजनीतिज्ञ बाहर दिखता है ताकत में, लेकिन पीछे वैज्ञानिक ताकत में है. क्योंकि एटम की कुंजी उसके हाथ में है. वह आज नहीं कल, कभी भी छाती पर सवार हो सकता है. और राजनीतिज्ञ भी उसके पास पहुंचता है सलाह-मशविरा लेने.

केनेडी जैसे ही अमरीका के राष्ट्रपति हुए, उन्होंने अमरीका में जितने बुद्धिमान लोग थे, उनमें से चुने हुए लोगों को तत्काल बुला लिया – अपने सलाहकार के लिए.

बड़े प्रोफेसर, बड़े वैज्ञानिक, बड़े लेखक, बड़े कवि, केनेडी ने अपने चारों तरफ इकट्ठे कर लिए. क्योंकि क्षत्रिय की खुद की बुद्धि तो ज्यादा चल नहीं सकती. वह क्षत्रिय सदा ब्राह्मण से सलाह लेता रहा है. ब्राह्मण सामने नहीं होता; वह पीछे होता है. क्षत्रिय सामने होता है, लेकिन ब्राह्मण गहरे में चलाता रहता है.

शरीर के भीतर एक बड़ा नगर है. और यह बड़े नगर का इतना व्यवस्थित काम है, जितना अभी तक किसी नगर का भी नहीं है. इतना व्यवस्थित काम है और सब चुपचाप चलता जाता है, बिलकुल ऑटोमैटिक है, स्वचालित है.

आप सो रहे हैं, तो चल रहा है; आप जग रहे हैं, तो चल रहा है. आप काम कर रहे हैं, तो चल रहा है; आप विश्राम कर रहे हैं, तो चल रहा है. और आपको कोई बाधा भी नहीं है इससे.

अपने आप चलता रहता है. कब भोजन पच जाता है, कब खून बन जाता है, कब हड्डी निर्मित होती है, कब मुर्दा सेल बाहर फेंक दिए जाते हैं – आपको कुछ प्रयोजन नहीं. पूरा नगर स्वचालित है.

इस नगर के बीच में आप हैं. यह नगर सम्मानयोग्य है. और इस नगर ने आपको मौका दिया है कि आप चाहें तो नरक की यात्रा कर लें इसके सहारे, और आप चाहें तो स्वर्ग पहुंच जाएं. और आप चाहें तो स्वर्ग और नर्क दोनों से मुक्त होकर मोक्ष की उपलब्धि कर लें. शरीर साधन है.

ओशो, कठोपनिषद, 11वां प्रवचन

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