शरीर ने तुम्हें नहीं, तुमने शरीर को पकड़ा है : कठोपनिषद-1

उपनिषद के ऋषियों के मन में मनुष्य के शरीर की कोई भी निंदा नहीं है. मनुष्य के शरीर के प्रति बहुत सदभाव है, बहुत श्रद्धा भाव है, क्योंकि मनुष्य का शरीर वस्तुत: मंदिर है.

उस परमात्मा का निवास जिसके भीतर है, उसकी निंदा तो कैसे की जा सकती है! परमात्मा जिसके भीतर बसा है, उस परमात्मा के बसने के कारण ही शरीर पवित्र हो जाता है.

उपनिषद की दृष्‍टि में शरीर अपवित्र नहीं है. साधारणत: धार्मिक लोग, तथाकथित धार्मिक लोग, शरीर के प्रति एक तरह की गहरी निंदा से भरे होते हैं, एक कडेमनेशन, जैसे शरीर कुछ बुरा है, गर्हित, घृणित.

जैसे शरीर के कारण ही जीवन में दुख, पीड़ा और बंधन है. जैसे शरीर ही नर्क का द्वार है. लेकिन इस तथाकथित धार्मिक दृष्टि के लिए कोई भी आधार नहीं है.

शरीर आपको बांधे हुए नहीं है. शरीर आपको पकड़े हुए भी नहीं है. शरीर तो आपको पकड़ भी कैसे सकता है! आपने ही शरीर को पकड़ा है. आपने ही शरीर को चुना है. यह आपकी ही वासनाओं और इच्छाओं का मूर्तरूप है.

तो पहले तो इस बात को समझ लें कि जो भी शरीर आपको उपलब्ध हुआ है – मनुष्य का, कि पशु का, कि पक्षी का, कि वृक्ष का, कि पत्थर का, कि स्त्री का, कि पुरुष का. सुंदर या कुरूप, स्वस्थ या बीमार, जैसा भी, जो भी देह आपको उपलब्ध हुई है, यह आपकी ही कामनाओं, आपकी ही वासनाओं और इच्छाओं का मूर्तरूप है.

जो आपने चाहा था, वह आपको मिल गया है. लेकिन यह हमें दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि चाह में और पूरे होने में बड़ा फासला है.

एक आदमी बीज बोता है. वर्षों बाद अंकुर निकलता है. वह भूल ही जाता है कि बीज बोया था. आप जानकर चकित होंगे कि सैकड़ों ऐसी जातियां जमीन पर रही हैं, और आज भी अफ्रीका के कुछ कबीले हैं, जो यह नहीं मानते कि बच्चे का जन्म संभोग से होता है. क्योंकि संभोग किए हुए तो महीनों बीत जाते हैं, तब बच्चे का जन्म होता है.

तो कई जातियां यह तर्क ही नहीं उठा पाईं कि बच्चे का जन्म संभोग से होता है. फिर सभी संभोग से जन्म होता भी नहीं. सैकड़ों संभोग में एक संभोग जन्म बनता है. फिर जो संभोग जन्म बनता है वह भी तत्काल नहीं बन जाता, उसमें भी महीनों लग जाते हैं.

तो उन जातियों को यह स्मरण ही नहीं आ पाया कि संभोग से जन्म का कोई संबंध है. वे सोचते हैं कि जन्म परमात्मा की कृपा है, या किसी देवता का वरदान है, या किसी गुरु का आशीष है. लेकिन संभोग से उसका कोई संबंध नहीं जोड़ पाते. फासला इतना है.

आदमी के कर्म और आदमी की वासनाओं और इच्छाओं और उनके पूरा होने में तो कई बार बहुत लंबा फासला हो जाता है. आप खुद ही भूल जाते हैं कि यह आपने चाहा था.

मनसविद कहते हैं कि बहुत सी बीमारियां आप ही बुला लेते हैं. आप उन्हें चाहे हैं कभी, और वह चाह अचेतन में दबी रह गई. फिर धीरे-धीरे शरीर उस बीमारी को पैदा कर लेता है.

यह थोड़ी हमें सोचकर कठिनाई होगी, मानने में थोड़ी मुसीबत होगी, क्योंकि बीमारी तो कोई भी चाहता नही, इसलिए कौन बीमार होना चाहेगा? उसके बीज कोई क्यों बोएगा? लेकिन बड़े गहरे कारण मनुष्य के जीवन में हैं, बड़ा जटिल जाल है.

एक छोटा बच्चा है. जब भी वह बीमार पड़ता है, तो लोग उसकी चिंता करते हैं, फिक्र करते हैं. जब वह स्वस्थ रहता है, तब उसकी तरफ कोई भी ध्यान नहीं देता. बच्चे के अचेतन में एक बात निश्चित हो जाती है कि बीमार होना भी एक गुण है, तभी लोग उस पर ध्यान देते हैं.

और सभी लोग चाहते हैं कि ध्यान दिया जाए. बड़ी गहरी आकांक्षा है कि लोग आप पर ध्यान दें, क्योंकि ध्यान भोजन है. जब कोई आपकी तरफ देखता है, आप प्रफुल्लित होते हैं. जब कोई भी नहीं देखता तो आप उदास हो जाते हैं.

एक छोटा बच्चा धीरे-धीरे अनुभव करता है कि वह जब बीमार होता है, तब जरूर कोई गरिमापूर्ण घटना घट जाती है. पिता ज्यादा प्यार करता है, मां पास बैठती है. बहुत चाहता है वह कि मां पास बैठे, पिता प्यार करे, सब उसकी फिक्र करें, लेकिन कोई उसकी फिक्र नहीं करता. लेकिन जब बीमार होता है, तब उसकी सब इच्छाएं पूरी हो जाती हैं. बीमारी के साथ एक आकांक्षा जुड जाती है.

यह बच्चा जिंदगी में बहुत वर्षों बाद जब भी अनुभव करेगा कि कोई ध्यान नहीं दे रहा, तभी इसकी भीतरी इच्छा प्रबल हो जाएगी कि मैं बीमार पड़ जाऊं. यह चेतन में नहीं होगी, यह गहरे अचेतन, अनकांशस में होगी.

स्त्रियों की तो अधिकतम बीमारियां ध्यान न मिलने की बीमारियां हैं. जब एक स्त्री को कोई प्रेम करता है, तो वह स्वस्थ होती है. जैसे ही प्रेम विदा होने लगता है, या समाप्त हो जाता है, या क्षीण हो जाता है, वह रुग्ण होने लगती है. उसका रोग यह कह रहा है कि अब उस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा.

स्त्रियों की पचास प्रतिशत बीमारियां कामना से, कोई ध्यान दे, उस आकांक्षा से पैदा होती हैं. पति के घर आते ही स्त्री बीमार हो जाती है. जब तक वे घर नहीं, तब तक वह ठीक है.

और ऐसा नहीं कि वह कोई झूठा आडंबर रचती है. नहीं, पति को देखते ही बीमार हो जाती है. पति को देखते ही… पति उस पर ध्यान दे, उसके सिर पर हाथ रखे, उसकी फिक्र करे, चिंता करे, यह वासना जगती है.

यह वासना भीतर बहुत सी चीजों को छोड़ देती है अचेतन में. और वह उन स्थितियों में अपने को रख लेती है, जहां पति ध्यान करेगा, उसका विचार करेगा, उसकी सेवा करेगा.

आदमी का मन बहुत गहरे जाल से भरा हुआ है. मनसविद यह आज कहते हैं. लेकिन पूरब के मनोशास्त्री निरंतर यह कहते रहे हैं कि यह बात – हम जो कुछ भी हो जाते हैं, हम जो भी हैं, हमारी ही इच्छाओं का सघन रूप है. इस जन्म में, पिछले जन्म में, और पिछले जन्मों में हमने जो चाहा है, जो इकट्ठा किया है, वह आज पूरा हो गया है.

तो शरीर को घृणा करने का कोई भी कारण नहीं है. यही शरीर आपने मांगा था, यही शरीर आपको उपलब्ध हो गया है.

दूसरी बात ध्यान रखनी ज़रूरी है कि यह शरीर आपको नहीं पकड़े हुए है. शरीर कैसे आपको पकड़ेगा! आप शरीर को पकड़े हुए हैं. और जिस दिन भी आप शरीर को छोड़ने में समर्थ हो जाएंगे, शरीर विदा हो जाएगा. एक क्षण भी रुकेगा नहीं.

एक क्षण को भी भीतर आप शरीर से अपने को पूरा अलग कर लें, शरीर विदा होने लगेगा. इसलिए संत स्वेच्छा से मर सकते हैं. स्वेच्छा से मरने की कला यही है कि वे उस राज को जानते है कि शरीर से कैसे अलग हो जाएं.

शायद एक-आध खूंटी शरीर में गड़ाए रखते हैं, ताकि शरीर का कोई उपयोग है, वह पूरा हो ले. जिस दिन भी उन्हें लगता है कि विदा हो जाना है, आखिरी खूंटी भी उखाड़ लेते हैं, नाव छूट जाती है.

इसलिए संत अक्सर अपनी मृत्यु की खबर दे देते हैं कि फलां दिन मैं मर जाऊंगा. यह कोई भविष्य—दर्शन के कारण नहीं, जैसा कि लोग समझते हैं कि संत को भविष्य का पता है. नहीं, संत शरीर से अपने को किसी भी क्षण मुक्त कर सकता है. यह उसकी स्वतंत्रता है.

वह जिस दिन चाहे, उस दिन विदा हो सकता है. उसने इस रहस्य को समझ लिया है कि शरीर उसे नहीं पकड़े हुए है, उसने ही शरीर को पकड़ा है. तो जब तक पकड़ना हो, ठीक है, जब छोड़ना हो तब छोड़ा जा सकता है.

आप यह बात बिलकुल भूल ही गए हैं. आप ऐसा समझते हैं कि जैसे शरीर ने आपको पकड़ा हुआ है. और तब इससे बहुत नासमझियां पैदा होती हैं.

ईसाइयों का एक संप्रदाय था, जिसके फकीर अपने को दिन-रात कोड़े मारते थे, शरीर को कष्ट देने के लिए. क्योंकि शरीर दुश्मन है. और जो जितने ज्यादा कोड़े मारता, उतना बड़ा संत समझा जाता.

अगर आज वैसे संत हों, तो हम उनको कहेंगे कि वे मैसोचिस्ट हैं, वे अपने को सताने में रस लेने वाले बीमार लोग हैं. उनको हम पागलखाने में रखेंगे. लेकिन मध्य-सदी में पूरा यूरोप ऐसे संतों से भरा था. वे संत नहीं थे, सिर्फ रुग्ण, बीमार लोग थे.

ऐसे ईसाई फकीर हुए हैं, जो जूते पहनेंगे जिनमें अंदर कीले लगे होंगे; कमर में पट्टे बाधेंगे जिनमें अंदर कीले चुभे होंगे, ताकि शरीर में कीले चुभे रहें और शरीर को पीड़ा दिन-रात सोते-जागते मिलती रहे. लोग उन्हें बड़ा आदर देते थे.

हम भी उसी तरह के लोगों को आदर देते हैं जो शरीर को सता रहे हैं. कोई भूखा मरकर सता रहा है. कोई धूप में खड़ा होकर सता रहा है. कोई पैर के बल खड़ा है तो बैठता ही नहीं, खड़े होकर सता रहा है. कोई काँटों पर लेटकर सता रहा है. काशी में जाकर देखें, ऐसी बहुत सी प्रदर्शनियां लगी हुई हैं. कुंभ के मेले में चले जाएं, वहा पूरा प्रदर्शन इस सब पागलपन का है.

लेकिन यह शरीर को सताने वाले आदमी के लिए हमारे मन में भी आदर उठता है कि क्या गज़ब की बात है! कुछ भी नहीं हो रहा है. शरीर को सताने का मतलब केवल इतना ही है कि तुम्हें अभी यह भी पता नहीं चल सका कि शरीर तुम्हें नहीं पकड़े हुए है, तुमने शरीर को पकड़ा है.

यह तो वैसे ही है जैसे कोई उठकर अपनी कार की पिटाई करने लगे, क्योंकि यह कार मुझे कहीं भी ले जाए जा रही है. कार तुम्हें कैसे कहीं ले जाएगी? तुम उसमें पेट्रोल डालते हो, तुम उसकी साज—संवार करते हो, तुम उसका स्टिअरिंग सम्हालते हो. तुम्हीं कहीं जाना चाहते हो, इसलिए कार जाती है. हालांकि तुम उसके भीतर बैठे हो, लेकिन कार तुम्हारे पीछे जा रही है. तुम कार के पीछे नहीं जा रहे.

शरीर रथ है, जैसा कि इस उपनिषद में कहा है. एक कार है, उसमें भीतर बैठकर तुम्हीं चला रहे हो. तो अगर तुम पाप की तरफ जाते हो, तो यह मत सोचना कि शरीर ले जा रहा है. यह बहुत नासमझी की बात है. तुम पाप की तरफ जाना चाहते हो, शरीर तुम्हारे साथ चला जाता है. तुम कार को वेश्यालय की तरफ ले जाते हो, कार वेश्यालय चली जाती है.

कार को कोई प्रयोजन नहीं कि तुम कहां जा रहे हो. कार का काम चलना है. तुम मंदिर ले जाना चाहते हो, कार मंदिर के द्वार पर रुक जाती है. लेकिन जब वेश्यालय के द्वार पर रुकती है, तो तुम उतर कर कार की पिटाई शुरू कर देते हो. तुम नासमझ हो.

और ऐसा नहीं कि तुम, जिनको बहुत लोगों ने आदर दिया है, ऐसे अनेक लोग इस तरह का काम करते रहे हैं. हाथ काट दिए हैं फकीरों ने, क्योंकि हाथ ने कोई बुराई की. हाथ कैसे बुराई कर सकता है? आंखे फोड़ दी हैं फकीरों ने, क्योंकि आंख ने वासना जगाई. आंख क्या वासना जगाएगी? आंख के भीतर तुम छिपे हो. तुम जहा आंख को ले जाते हो, आंख वहां जाती है. आंख अपने आप चलती नहीं, तुमसे चलती है. दोष तुम करते हो, आंख फोड़कर सजा तुम किसको दे रहे हो?

फकीरों ने जबान काट दी है, जननेंद्रीय काट दी है. विक्षिप्तताएं हैं ये. यह तुम समझ ही नहीं पा रहे हो कि शरीर तो सिर्फ यंत्र है. शरीर के पास कोई चेतना नहीं है, चेतना तो तुम हो. इसलिए अगर दोष है तो तुम्हारा, अगर गुण है तो तुम्हारा. अगर नर्क जाओगे तो तुम, अगर स्वर्ग जाओगे तो तुम.

ओशो, कठोपनिषद, 11वां प्रवचन

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