ईसवी सन 2006 का फरवरी महीना, अवसर था सवाई मानसिंह चिकित्सा महाविद्यालय, जयपुर के भव्य सभागार में ‘धर्म-संस्कृति संगम’ के आयोजन का. यहाँ दुनिया के 41 देशों के 257 प्रतिनिधि जमा हुए थे.
ये दुनिया भर के वो लोग थे जो ये मानते थे कि उनकी संस्कृतियों, जिन्हें इस्लाम और ईसाईयत ने नष्ट कर दिया, की आदिभूमि भारत है.
इस सम्मेलन में आने वाले का मज़हब चाहे जो भी रहा हो पर सबके अंदर सवाल एक ही था कि ठीक है हम आज मुस्लिम हैं या ईसाई मताबलंबी हैं पर उसके पहले क्या?
रसूल साहब 1400 और ईसा मसीह 2000 साल पहले आये पर मानवजाति और मानव सभ्यता तो उससे काफी पहले से है फिर उसके पहले हम क्या थे? हमारी पहचान क्या थी? हमारी विशेषताएं और मान्यताएं क्या थी?
हमारे पूर्वज जिन पूजा-पद्धतियों को, जिन मान्यताओं और विचारों को मानते थे क्या वो खोखले और मूर्खतापूर्ण थे? क्या करोड़ों वर्ष का उनका अर्जित ज्ञान कुफ्र और इतना हेय था कि उसे नष्ट ही कर दिया गया?
5 से 10 फरवरी तक चले इस महासंगम में दुनिया के अलग-अलग भागों से आये ऐसे विद्वानों ने इन विषयों पर अपने विचार रखे थे. 42 चर्चा सत्र चले थे और 125 से अधिक शोधपत्र प्रस्तुत किये गए थे.
इनमें से एक दिल को छू लेने वाला प्रसंग आपके साथ बाटूँगा ताकि आपके सामने ये स्पष्ट हो जाये कि न तो मतान्तरण से बड़ा अपराध कुछ है और न ही मतान्तरण से बड़ी कोई हिंसा है और इसके खिलाफ़ अब आवाज़ खुद ईसाई समाज के अंदर से उठ रही है.
एक दिन कार्यक्रम में आये एक अफ्रीकी देश के विद्वान् ईसाई प्रोफेसर ने बयान देते हुए कह दिया कि दुनिया का सबसे बड़ा चोर रोमन कैथोलिक चर्च है. उनका ये कहना था कि मीडिया में हंगामा मच गया.
चूँकि कार्यक्रम में आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक पू. सुदर्शन जी भी मौजूद थे इसलिए मीडिया ने तुरंत ये न्यूज़ चलानी शुरू कर दी कि संघ के लोगों के बहकावे पर या उन्हें खुश करने के लिए ये अनर्गल बात कही गई है.
विवाद बढ़ने पर जवाब देने के लिए वही ईसाई प्रोफेसर सामने आये और बड़े संयमित स्वर में उन्होंने अपना पक्ष रखते हुए कहना शुरू किया.
मैं अफ्रीका के एक बहुत ही निर्धन देश के एक आदिवासी परिवार में पैदा हुआ था, हमारे यहाँ काफी अभाव थे पर मेरे माता-पिता की ये चाहत थी कि मैं पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनूँ.
और इसलिए जब मैं पांच साल का हुआ तब अपनी हैसियत के अनुसार उन्होंने मेरा दाखिला वहां के एक सामान्य स्कूल में करा दिया. कुछ दिन बाद वहां ईसाई मिशनरियों का आगमन हुआ और उन्होंने हमारी बस्ती के पास एक बड़ा भव्य स्कूल खोला.
एक दिन मेरे माता-पिता ने मेरा हाथ पकड़ा और उस स्कूल के प्रबंधक के पास उस स्कूल में मेरे दाखिले के संबंध में बात करने गए. वो जो बातें कर रहे थे वो तो मेरी समझ में ज्यादा नहीं आया पर मैं इतना जरूर समझ गया कि ये लोग मेरा नाम बदलने की बात कर रहे हैं.
ये समझते ही मैं अपना हाथ छुड़ाकर वहां से भागा. मेरे माँ-बाप दौड़ते हुए पीछे आये और मुझे पकड़ा, मैं एक ही बात लगातार कह रहा था कि मुझे अपना नाम नहीं बदलना है.
मेरी माँ ने अपने दोनों हाथों से मेरा चेहरा थामा और कहा, देखो मेरे बच्चे, अगर हम वैसा नहीं करेंगे जैसा वो कह रहे थे तो हम न तो अपनी हालात सुधार सकेंगे और न ही तुम्हें अच्छी शिक्षा दिला सकेंगे और उनके महंगे स्कूल की फीस भरने का सामर्थ्य हममें नहीं है.
अपने माँ-बाप की मजबूरी ने मेरी ज़िद को मात दे दी. हम वापस उस स्कूल प्रबंधक के पास पहुंचे और उसकी हर वो शर्त मानी जो वो कहते गए. हमारे नाम बदले गए, हमारे कपड़े उतार दिए गए और हमें जीवन-जल से अभिषिक्त किया गया. पवित्र बाईबल और क्रॉस थमाया गया.
मैंने पहले चर्च के स्कूल और फिर कॉलेज में पढाई की और आज प्रोफ़ेसर हूँ, दुनिया के कई विश्वविद्यालयों में मेरी लिखी किताबें पढाई जाती हैं, दुनिया भर से मुझे लेक्चर देने के लिए आमंत्रित किया जाता है, अखबारों और टीवी में मेरे इंटरव्यू आते हैं…
पर (ये कहते-कहते उस अफ्रीकी प्रोफेसर का गला रुंध गया)…पर आज दुनिया मुझे उस नाम से नहीं जानती है जो नाम मेरे पैदा होने पर मेरी दादी ने मुझे दिया था, चर्च ने मुझसे मेरा वो नाम छीन लिया.
अब दुनिया मुझे उस नाम से जानती है जो नाम मेरे गर्दन में क्रॉस लटकाकर उस मिशनरी ने दिया था. ये नाम मेरे माँ-बाप की मजबूरी की बोली लगाकर दिया गया था.
आज दुनिया ये नहीं जानती कि मैं उस कबीले का हूँ जिसकी एक समृद्ध संस्कृति थी, अपनी पूजा-पद्धति थी, अपने मन्त्रों के बोल थे, जिसकी अपनी संस्कार-पद्धतियाँ थी, क्यूंकि चर्च ने मेरे उस कबीले को उसकी तमाम विशेषताओं के साथ निगल लिया.
इतना कहने के बाद वो प्रोफेसर मीडिया से मुखातिब हुए और पूछा, “जिसने मुझसे मेरा नाम, मेरी पहचान, मेरी जुबान सब छीन ली, दुनिया में उससे बड़ा चोर कौन होगा?”
मानवजाति की भलाई का काम, किसी को शिक्षित और संस्कारित करने का काम, सेवा के काम में मतान्तरण कहाँ से आता है?
क्या हक़ था ईसाई चर्च को मुझसे मेरी वो बोली छीन लेने का जिसमें मैंने पहली बार अपनी माँ को पुकारा था?
क्या हक़ था चर्च को हमारी उन परम्पराओं को पैगन रीति कहकर ख़ारिज कर देने का जिसके द्वारा मेरी बूढ़ी दादी ने मेरी बलाएँ ली थी?
और क्या हक़ था चर्च को उन देवी-देवताओं और पूजा-स्थानों को गंदगी और पाप कहने का जिनसे माँगी गई मन्नतों ने मेरी माँ की कोख भरी थी?
मीडिया के पास फिर कोई सवाल बाकी नहीं बचा था.
आज सारी दुनिया में चर्च के फैलाये दुष्प्रचार एक के बाद एक धराशायी होते जा रहे हैं. ईसाई जगत खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है क्योंकि ईसाईयत के जिन सिद्धांतों और मान्यताओं के ऊपर वो आज तक आँख बंद कर विश्वास करते रहे थे वो सबके सब भ्रम की तरह टूट रहे हैं.
ईसाईयत के जिन सिद्धांतों और मान्यताओं पर विश्वास करके उन्होंने अपनी ही मूल संस्कृति और मूल पहचान को खारिज़ कर दिया, वो उन्हें वापस बुला रहा है.
चर्च ने दुनिया के कई संस्कृतियों का विनाश तो कर दिया है पर उसका भूत अब उसके अस्तित्व को लीलने के लिये उनके पीछे लग गया है.
पश्चिम के देशों में ईसाईयत की बुनियाद दरक रही हैं. आने वाले श्रद्धालुओं की बाट जोहते-जोहते चर्च अब इस लायक भी नहीं रख गया है कि वह अपने पादरियों, ननों और कर्मचारियों को भत्ता दे सके और टेलीफोन या बिजली बिल दे सके.
नतीजतन चर्च बिक रहे हैं और जिज्ञासु ईसाई जगत परम सत्य की खोज में योग और अध्यात्म के जरिये भारत और हिंदुत्व का रुख कर रहे हैं,
स्वामीनारायण संप्रदाय और इस्कॉन इस अवसर को छोड़ नहीं रहे हैं और छोड़े भी क्यों? आखिर छले हुये और संतप्त लोगों को अपने गोद में आश्रय देना हमारे सर्व-स्वीकार्यता वाले धर्म की विशेषता रही है.
अमेरिका में 50 साल पुराना चर्च बिक कर अब स्वामी नारायण संप्रदाय वालों का है और वो उसे अहिंसा, मानवता, बंधुत्व, सर्वस्वीकार्यता और समादर की पावन स्थली यानि मन्दिर में बदल चुके हैं.