अभी कुछ दिनों से फिर सलमान खान, आरुषि तलवार और ए राजा इत्यादि पर चलने वाले केस एक बार फिर सुर्खियों में आ गए. चलिये यह सब तो बड़े लोगों के खेल हैं और शायद इसमें कहीं न कहीं राजनैतिक और व्यक्तिगत शक्ति का भी उपयोग हो जाता है.
आइये कानून के कुछ अलग से पहलुओं पर विचार किया जाये. कानून की आवश्यकता ही क्यों है? दरअसल हम हमेशा एक राजनैतिक दबाव के महत्व को व्यवस्था के दबाव से बड़ा मान लेते हैं. यह निर्विवाद है कि राजनीति साफ सुथरी होनी और इस के लिए समय समय पर इसमें सुधारों की आवश्यकता भी है.
परंतु सारे का सारे का दोष राजनीति पर मढ़ना भी ठीक नहीं है. राजनीति व्यवस्था का एक हिस्सा है पर यह सम्पूर्ण व्यवस्था नहीं है. यदि व्यवस्था सुधर जाएगी तो राजनीति को कुछ हद तक सुधारणा ही पड़ेगा. परंतु यदि राजनीति सुधर जाएगी तब भी व्यवस्था उसे अपने अनुसार ढालने की क्षमता रखती है. यह पिछले कुछ समय मे एक से बढ़ कर एक किए गए प्रयोगों से स्पष्ट भी हुआ है. राजनीतिक रूप से साफ सुथरे व्यक्ति भी इस व्यवस्था का शिकार न चाहते हुए भी हो जाते हैं.
इसमें एक और बात ध्यान देने योग्य है कि कानून व्यवस्था कठोर से अधिक व्यावहारिक होने की आवश्यकता है. कानून यदि कठोर है परंतु व्यावहारिक नहीं है तो भी उसका पालन नहीं होगा अपितु कानून के उल्लंघन की संभावना और इसके चलते भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा. आइये अभी हाल मे बनाए गए शिक्षा के कानून या Right To Education की बात करें.
सन 2009 में एक कानून बना दिया गया जिसे आप Right to Education के नाम से जानते हैं जिसके अनुसार 8 से 14 वर्ष तक के बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान है. इस मुफ्त शब्द को समझें तो आपको पता चलेगा कि सरकार के अनुसार अभिभावकों को कुछ भी पैसा नहीं देना है इस शिक्षा के लिए.
चलिये मान लीजिये कि शिक्षा मुफ्त है तो भी हर भारतीय अपने बच्चे को पढ़ाए क्यों? इस शिक्षा से एक बेहतर जीवन तो हम दे नहीं सकते (क्योंकि शिक्षा और विद्या के अंतर को नहीं समझ पाये) परंतु तथाकथित रूप से शायद अच्छी नौकरी के लिए बच्चे को तैयार कर रहे हैं. परंतु क्या जो बच्चे पढ़ गए हैं उनके लिए पर्याप्त नौकरियाँ हैं हमारे पास. उत्तर नकारात्मक ही है.
अब इसके अनिवार्य शब्द को समझें. यदि अभिभावक की मर्ज़ी हो तो ही यह अनिवार्य माना जाएगा है. सरकार पर इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है. यदि किसी स्थान पर बच्चे स्कूल नहीं जाते तो किसी भी अधिकारी को इसको दोषी नहीं माना जा सकता है. अब सोचें पढ़ाने का लाभ गरीब को नहीं है सरकार पर इसकी ज़िम्मेवारी नहीं है. इस लाचार कानून से होगा क्या?
सरकार ने सभी निजी स्कूलों को 25% निर्धन बच्चों को अपने यहाँ प्रवेश देने को कहा है और सरकार उसका खर्चा वहाँ करेगी. अर्थात सरकार उन विद्यालयों को उन बच्चों की फीस देगी. सरकार के अनुमान से 171000 करोड़ रुपये पाँच वर्षों के लिए रखे गए हैं. लगभग 34000 करोड़ प्रतिवर्ष. अब इसके इतिहास को देखें पिछले 40 वर्षों से यह देखा गया है कि देश के बच्चों में से 70% पहली कक्षा में पंजीकृत हिते हैं और कक्षा 9 के आते आते कुल 30% आगे पढ़ते हैं.
कक्षा 8 के बाद पहली बार परीक्षा होती है जिसमे से बच्चे उत्तीर्ण नहीं होते हैं और इस पर स्कूल छोड़ देते हैं यह सरकारी पक्ष है. इसका दूसरा पक्ष है कि कक्षा 8 के आते आते बच्चा 14 वर्ष का हो जाता है और कमाने लायक हो जाता है. इसके पहले स्कूल में mid day meal के नाम पर भोजन की व्यवस्था है. जिस गरीब परिवार के माता पिता दोनों काम पर जाते हैं उनके बच्चे को स्कूल में डालने से एक तो बच्चे का लालन पालन स्कूल में होता है दूसरा उसे भोजन मिल जाता है. इस लिए बच्चे को स्कूल मे डाल दिया जाता है. जब परीक्षा की घड़ी आती है तो बच्चा स्कूल छोड़ देता है. कारण स्पष्ट है कि पढ़ कर कोई विशेष भविष्य नहीं है तो बच्चा कम से कम अपने काम पर लग जाता है, मजदूरी करता है और अपना पेट पालता है.
इन्हीं प्रकार के प्रोजेक्ट के लिए विश्व बैंक से 3000 करोड़ एक बार और 6000 करोड़ दूसरी बार सरकार ले चुकी है.
अब इस योजना के कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न हैं. पहला यह कि 25% निजी स्कूलों को धन मान देने की व्यवस्था के लिए यह आंकड़ा कहाँ से आया. पूरे देश में एक आंकड़ा तो वैसे भी नहीं चल सकता है ? दूसरे 2009 के इस कानून को चलते हुए आज लगभग 8 वर्ष पूरे होने को आए हैं. क्या कहीं पर अध्ययन है कि कितने पैसा का क्या उपयोग हुआ और देश की शिक्षा व्यवस्था पर क्या असर पड़ा है.
शिक्षा से जुड़े होने के कारण मुझे यह लगता है कि पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा का स्तर गिरा ही है. दरअसल इसी के चलते 2011 में कक्षा 10 के बाहरी बोर्ड परीक्षा को CBSE ने हटा दिया गया था. जिसे इस वर्ष फिर शुरू कर दिया गया है. क्या हमारे बच्चों का भविष्य इसी प्रकार सरकारी योजनाओं की भेंट ही चढ़ेगा? शिक्षा जो कि शुरू से ही एक सामाजिक विषय रहा है और आज सका सरोकार समाज से कट कर रह गया है. फिर भी आज समाज मे लोग शिक्षा का प्रचार कर रहे हैं. पर उसका लाभ कितना हो रहा है उस पर आंकलन की आवश्यकता है.
इसे एक उदाहरण से सकझें. नोएडा की आपको बात बताता हूँ. Noida Authority ने अपने यहाँ के सभी निजी स्कूलों को ज़मीन रियायती दरों पर दी गयी है. जिसके कारण सभी स्कूलों को निर्धनों को पढ़ाना है. अब स्कूलों ने इसके लिए यह किया कि शाम के समय का स्कूलों कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं को दे दिया. कई स्कूलों में यह कक्षाएं शुरू हुई. अधिकांश नोएडा की बहनों नें वहाँ पढ़ाना शुरू किया. Bal Bharti DPS AMITY इत्यादि स्कूलों ने यह काम शुरू किया. परंतु जो भी बच्चे पढ़ते थे उनकी कक्षा 8 तक पढ़ाई कारवाई जाती है. क्योंकि कोई भी स्कूल इस बच्चों को अपने यहाँ से कक्षा 10 के बोर्ड में पंजीकृत नहीं करवाता. पढ़ाने वाले स्वयं सेवी, बच्चे ने पूरा समय लगाया पर इसके बाद उसके बाद उसके पास एक भी स्कूल का certificate नहीं है. अब इनमें से जो बच्चा आगे पढ़ना चाहता है उसे किसी अन्य निजी संस्थान में रिश्वत दे कर लगभग 9000 रुपये नकली प्रमाणपत्र बनवा कर उसी स्कूल से कक्षा 10 की पढ़ाई करवानी पड़ती है. इन बच्चों नें इतनी सी उम्र में रिश्वत के महत्व को समझ लिया. इस प्रकार की पढ़ाई से आप बच्चे को क्या एक ज़िम्मेवार नागरिक बनवा पाएंगे इसका मुझे शक है?
मूल प्रश्न वही रहा कि इस कानून से किसको क्या लाभ हुआ? गरीब बच्चा पहले भी नहीं पढ़ता आता आज भी नहीं पढ़ता क्योंकि उसे इस पढ़ाई से कुछ लाभ नहीं मिल रहा. भारत सरकार को विश्व बैंक से अनुदान मिल गया. समाज सेवी पहले भी काम करते थे और आज भी करते हैं.
और इसका समाधान भी कुछ मुश्किल नहीं है. हर स्कूल को कहा जाये कि वह अपनी कक्षाएं शाम को समाजसेवी संस्थाओं को दे और समाज सेवी संस्थाओं को सरकार उनके दी गयी शिक्षा के आधार पर अनुदान दे. जो भी संस्थान इस प्रकार कक्षा चलाये उसको चलाने के सुलभ नियम बनाए जाएँ.
राजनीति विज्ञान में शिक्षा. कवयित्री, देश के कई राज्यों में मंचों पर काव्यपाठ कर चुकी हैं. वर्षों से कला साहित्य और व्यापार से सीधे जुड़ी हुईं वीणा शर्मा इन क्षेत्रों में अपने विशेष योगदान के लिए कई मुख्यमंत्रियों, राज्यपाल, कई संस्थाओं से सम्मानित हो चुकी हैं. राष्ट्र जागरण ही उनका उद्देश्य है.