प्रेम और घृणा दो अलग-अलग छोर मालूम पड़ते हैं, मगर वे हैं एक ही सिक्के के दो पहलू. हम जिससे कम घृणा करते हैं, उससे कहते हैं- तुमसे प्रेम है. अगर घृणा की मात्रा थोड़ी सघन हो, तो प्रेम की मात्रा कम हो जाती है. इतना जरूर है कि कभी हमारा जोर प्रेम पर होता है, तो कभी घृणा पर. हम दोनों में भेद नहीं कर सकते.
अगर अमृत भी कोई बहुत मात्रा में पी ले तो वह जहर बन जाता है और ठीक खुराक में लिया गया जहर अमृत का काम करता है. अमृत और विष में कोई गुणात्मक भेद नहीं है. उनके गुण एक से हैं. दोनों का जो परिणाम है, वह उनकी मात्रा के कारण है. प्राय: हम जिसे प्रेम का संबंध कहते हैं, वह एक-दूसरे के अहं का पोषण है. हम प्रशंसा करते हैं कि तुम बहुत सुंदर हो, कितने ज्ञानवान हो. दूसरा व्यक्ति समझता है कि आप उसे बहुत प्रेम कर रहे हैं. इसलिए बदले में वह भी आपके अहं की तारीफ करता है. इस पोषण के साथ ही जुड़ा होता है- शोषण.
प्रशंसा और स्तुति के इन शब्दों की कीमत चुकानी पड़ती है. इसलिए जल्दी ही वह प्रेम घृणा में बदल जाता है. कभी प्रेम वाला पक्ष उजागर होता है, फिर कहीं घृणा सामने आ जाती है. इसलिए, प्रेम अमृत भी है और जहर समान भी.
इंद्रधनुष जैसा है प्रेम… प्रेम एक इंद्रधुनष है. एक पूरी रेंज है. इसको केवल दो टुकड़ों में तोड़कर ही देखना ठीक नहीं. यदि हम इंद्रधनुष की पूरी रेंज को देखें तो पता चलेगा कि सातों रंग एक-दूसरे में परिवर्तनशील हैं. बैंगनी ही नीला हो जाता है. नीले और पीले के बीच में हरा है. ये दोनों रंग जहां ओवरलैप करते हैं, वहीं हरा बन जाता है. इसी प्रकार और दूसरे भी रंगों की पूरी रेंज को समझें तो फिर अल्ट्रा- वॉयलेट और इन्फ्रारेड है, वह भी एक क्रम में दिखाई देगा और समझ में आएगा कि ये एक-दूसरे में परिवर्तनशील हैं.
फिर इनके भीतर की विपरीतता खो जाती है और तारतम्यता प्रकट होती है. प्रेम का संबंध भी एक इंद्रधनुष है. भिन्न-भिन्न दिखाई देने वाले रंग भी एक ही श्वेत रंग से निकले हैं. जैसे सूरज की सफेद किरण, इंद्रधनुष में सात रंग की दिखाई देने लगती है, ठीक वैसे ही हमारा जीवन ऊर्जा सात रंगों में अभिव्यक्त होता है.
प्रेम के प्रकार.. सबसे पहला है भौतिक वस्तुओं, पद, शक्ति और स्थानों के प्रति मोह. मेरेपन की यह पकड़ भी तो प्रेम है, लेकिन सबसे निम्न कोटि का. उससे ऊपर है दैहिक प्रेम. तीसरा प्रेम है विचारों और मन का प्रेम, जिसे हम मैत्री भाव कहते हैं. मन और विचार के तल का प्रेम दोस्ती है. चौथा है हृदय का तल, जिसे हम कहते हैं- प्रीति.
सामान्यत: हम इसे ही भावनात्मक प्रेम कहते हैं. यह ठीक बीच का तल है, क्योंकि तीन रंग इसके नीचे हैं, तीन इसके ऊपर. बराबर वालों के साथ, भाई-भाई के बीच, पति-पत्नी के बीच, पड़ोसियों के बीच. वात्सल्य भाव और आदर को भी हम इस श्रेणी में रख सकते हैं.
सर्वोच्च अद्वैत प्रेम… पांचवें प्रकार का प्रेम आत्मा के तल का प्रेम है. इसमें भी दो प्रकार हो सकते हैं. जब हमारी चेतना का प्रेम स्वकेंद्रित होता है तो उसका नाम ध्यान है और जब हमारी चेतना पर-केंद्रित होता है, तो उसका नाम श्रद्धा है. चेतना के बाद छठे तल का प्रेम घटता है, जहां हम ब्रह्म से, परमात्मा से परिचित होते हैं. वहां समाधि घटित होती है. वह भी प्रेम का एक रूप है. अतिशुद्ध रूप. विचारों और भावनाओं के भी पार. सातवां प्रकार है- अद्वैत की अनुभूति.
कबीर कहते हैं- ‘प्रेम गली अति सांकरी ता में दो न समाय.’ जब अद्वैत घटता है तो न भगवान रहा, न भक्त बचा. वह प्रेम की पराकाष्ठा है. यहां ‘मैं’ और ‘तुम’ के बीच अंतर समाप्त हो जाता है. ये सात रंग हैं प्रेम के इंद्रधनुष के.
‘अहम्’ से ‘ब्रह्म’ तक का जो सफर है, इसमें मध्य का पड़ाव है- प्रेम. अगर वह नीचे की तरफ गिरे तो मोह बन जाता है, कामवासना बन जाता है, दोस्ती बन जाता है. यदि वह ऊपर उठे तो ध्यान अथवा श्रद्धा बन जाता है, पराभक्ति बन जाता है और अंतत: अद्वैत में ले जाता है.
बुद्धत्व की ओर प्रेम.. प्रेम के इस पूरे इंद्रधनुष को देखें. हम जितने नीचे के तल पर उतरते हैं, उतनी ही घृणा की मात्रा बढ़ती जाती है, प्रेम कम होता जाता है. जितने ऊपर जाएंगे, घृणा की मात्रा कम होती जाएगी. प्रेम का शुद्धीकरण होता जाएगा. यदि आप स्वयं को देह समझते हैं तो आपका प्रेम कामवासना ही होगा. यदि आप स्वयं को मन समझते हैं तो आपका संबंध दोस्ती का बनेगा. अगर स्वयं को हृदय मानते हैं, भावनाओं के तल पर जीते हैं तो आपका प्रेम मध्य में होगा. यदि आप स्वयं को चैतन्य, साक्षी आत्मा समझते हों, तब औरों से आपका प्रेम चेतना के तल पर होगा.
दूसरे में हम वही देखते हैं, जो स्वयं के भीतर देख पाते हैं. स्वयं देह केंद्रित रहते हुए दूसरे के भीतर की चेतना को जान पाना संभव ही नहीं है. जो स्वयं के भीतर अपनी चेतना को महसूस करेगा, वही दूसरे के भीतर भी चेतना को महसूस कर पाएगा. और जो अपने भीतर भगवत सत्ता को जान लेता है, वही सारे जगत के कण-कण में उस भगवान को पहचान पाता है. तब उसका प्रेम भक्ति बन जाता है. और प्रेम में अंतत: वह अद्भुत घटना भी घटती है, जिसका नाम बुद्धत्व है.
– ओशो