इस आलेख का तात्कालिक संदर्भ आप 2G से जोड़ सकते हैं लेकिन इसकी व्यापकता उससे कहीं बढ़ाकर है. देखिये कैसे.
2G कांड में सबूतों के अभाव में आरोपियों को छोड़ देना पड़ा. काँग्रेसियों ने तुरंत इसे भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. सीधा दावा किया कि इसके तहत जिन लोगों ने जेल काटी वे निर्दोष थे.
काँग्रेसियों की ज़रखरीद लश्कर ए मीडिया ने इसी बात को आगे बढ़ाया और इस बात को याद रखें कि इतिहास में यही डॉक्यूमेंट होगा क्योंकि सभी लिखित रेकॉर्ड्स यही कहेंगे.
इस पर सोशल मीडिया में बड़ी बहस चल रही है और इसे मोदी सरकार की नाकामी बताई जा रही है.
यह भी एक परसेप्शन बिल्डिंग और मैनेजमेंट की लड़ाई है जिसमें कानून को हथियार बनाया जा रहा है. एक बहुत ही इंट्रेस्टिंग गेम है. देखते हैं क्या हो रहा है.
हमारे देश का कानून सबूतों पर चलता है. सबूत भी admissible याने कानून के निकषों पर स्वीकार्य होने चाहिए. सब से बड़ी समस्या यही है. यहाँ एक और बात बता रहा हूँ जिसका बहुत बड़ा संबंध है भी लेकिन सीधा संबंध कुछ भी नहीं.
आज तक काँग्रेस राज में भी कई लोगों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले चले. सजाएँ भी हुई. यहाँ अगर हम भावना को अलग रखकर देखें तो शायद दिखे कि यह वाकई तत्कालीन काँग्रेस सरकार की न्यायप्रियता भी थी या कोर्ट द्वारा पंख कतरने और रास्ते से हटाने की कवायद अधिक थी.
लेकिन इससे होता यह गया कि भ्रष्ट नेताओं और बाबुओं को यह समझ में आ गया कि कौन सी बातें किस तरह से सबूत बन सकती हैं. समय समय पर इनके रास्ते खोजे गए जो इन मामलों के विशेषज्ञ विधिज्ञ बता सकते हैं.
यहाँ बस इतना समझिए कि संबंध सिद्ध करने वाले कोई प्रमाण न रहें, इसपर बारीकी से काम होने लगा. विदेश के क़ानूनों की भी सहायता ली गयी, फर्जी कंपनियाँ बनाने में. और भी बारीकियाँ बहुत निकलेगी, ग्रंथ बन जाएगा और यहाँ एक लेख में बात समेटनी है.
इसलिए इतना कहना पर्याप्त है कि सब चौकन्ने हो गए और due diligence का अर्थ सबूत न छोड़ना भी हो गया. सत्ताधारियों को भी समझ में आ गया था कि वे सदा के लिए सत्ता में नहीं रहेंगे तो अगर दिन फिर गए तो लापरवाही नहीं बरतनी है. और सेफ खेलने के लिए ब्यूरोक्रेसी को यहाँ वहाँ उपकृत किया जाने लगा. गंगा स्नान का लाभ लेने को हर कोई तत्पर था, आने वाली पीढ़ियों के उद्धार की व्यवस्था कर ली लोगों ने.
2G कांड के जज अगर रो रहे हैं कि मैं बैठा रहा कि कोई तो आए एक कागज़ ले कर जिसे मैं प्रमाण के रूप में स्वीकार कर सकूँ – तो श्रेय इसी चौकन्नेपन को जाता है, इसी उपकृत ब्यूरोक्रेसी को जाता है.
इससे हुआ यह कि जनता को दिखता है कि कानून या मौजूदा सरकार, भ्रष्ट व्यक्ति का कुछ नहीं बिगाड़ सकती. इससे जनता में एक गुस्सा पैदा हुआ है. असंतोष की खेती की शुरुआत यहीं से होती है.
एक बात का ख्याल हमेशा रहे, हर जनता हमेशा खूंखार खेल की शौकीन होती है. हमेशा. बड़े स्टेडियम में एक दूसरे से fight to death लड़ते रोमन ग्लैडिएटर हो या अपनी गली नुक्कड़ पर लड़ाये जाते मुर्गे हों.
इसमें एक बात और है. अगर अपना खिलाड़ी हारे तो भी ठीक, लेकिन ना मारे तो ठीक नहीं. अगर वो मार खाता रहे और मज़ाक बन जाये, विरोधी उसके साथ ऐसा व्यवहार करे जैसे बिल्ली चूहे के साथ करती है तो दर्शक वहीं उसके विरोधी बन जाते हैं, उसको गालियां देने लगते हैं.
उन्हें कुछ नहीं जानना, वे बस बहता खून देखने आए हैं, अगर विरोधी का खून नहीं बहा तो अपने के बहते खून को देखकर भी संतुष्ट हो जाएँगे.
तिसपर आम जनता का कानून का घोर अज्ञान ज्ञान यहाँ तक है कि संविधान, IPC और CrPC अलग होते हैं यह भी पता नहीं और “सरकार को भ्रष्टाचारियों को पकड़ने के लिए संविधान में संशोधन करना चाहिए, बहुमत है तो किसलिए” ऐसी भी बातें कही, सुनी और फैलाई भी जाती हैं.
फैलाव की शुरुआत वहीं लोग करते हैं जिनको असंतोष फैलाना होता है, जान बूझकर गलत जानकारी फैलाते हैं. हो सकता है कोई अपने नाम के साथ Adv लिखकर भी यह गलत जानकारी फैला रहा हो.
कितने लोगों ने सोशल मीडिया पर घूमते अनगिनत मेसेजेस के साथ जुड़े मोबाइल नंबर के साथ बात कर के तसल्ली की है कि अगला आदमी वाकई वही है जो दावा कर रहा है?
या आप ने बस “नंबर दिया है तो सही ही होगा” मानकर अपने जुड़े दस ग्रुप्स में फॉरवर्ड किया है? और क्या आप यह तय करने के लिए सक्षम हैं कि अगला वाकई वकील, डॉक्टर, CA या जो भी दावा किया हो, वही है ? आप उसे कौन से सवाल पूछेंगे यह तय करने ?
2G कांड की सुनवाई क्या संविधान के तहत हो रही है?
लेख की शुरुआत में मैंने परसेप्शन बिल्डिंग और मैनेजमेंट की लड़ाई की बात की थी. अब इसी के तहत यह हो रहा है कि जनता के बीच भ्रष्टाचारी अपनी बात को बुलंद कर रहा है कि उसका साथ देना ही सही है क्योंकि कोई भी आए, उसका बाल बांका नहीं होगा.
भले ही वो उसे इतनी बेशर्मी से खुलकर नहीं कह रहा हो, लेकिन उसका संदेश यही है. जनता के दो अलग धड़े हैं जो इसको अपने अपने तरीके से समझ रहे हैं.
एक धड़ा जरा आदर्श माननेवाले लोगों का है, वो निराश होता है कि जिसपे दांव लगाया वो काबिल नहीं दिख रहा. दूसरा धड़ा उन लोगों का है जो आदर्शवाद को सही लेकिन practical होने को अधिक सही मानते हैं.
आदर्शवादी हथियार फेंक कर अंधेरे में सिमटना चाहते हैं, उन्हें लगता है कि लड़ाई व्यर्थ है और आने वाला कल भयंकर होगा तो परिणामों से बचा जाये. Practical लोग पाला बदलने को practical कदम कहते हैं. संख्या उनकी अधिक होती है.
यहाँ एक और बात का संज्ञान आवश्यक है. कोई डाकू, या विद्रोही उनके क्षेत्रों में बहुत बड़ा जनसमर्थन पा जाते हैं. उसके कुछ महत्वपूर्ण कारण होते हैं.
सब से महत्व का कारण है न्याय. अपने क्षेत्र में वो व्यक्ति तुरंत न्याय करता है. कठोर दंड देता है जो केवल पैसे चुकाकर छूट जाना नहीं होता.
उसके क्षेत्र में जनता उससे इसी कारण प्यार करती है कि वो किसी दबंग को या अमीर को कोड़े मार सकता है, नंगा करके मुंह काला करवाकर घुमा सकता है, सरेआम बेइज्जत कर सकता है या सर भी काट सकता है.
जनता को यह बहुत पसंद होता है इसी कारण ये कुछ अवधि तक लोकप्रिय हो जाते हैं और जब मारे जाते हैं तो उनकी यही कहानियों को याद किया जाता है बाकी सब अत्याचार भुलाए जाते हैं. कुल मिलकर सब जनता ‘शक्तिपूजक’ होती है.
आज जितने भी भ्रष्ट लोग हैं, जनता सब को जानती है. ऐसा नहीं कि देश के सब लोग सब को जानते हैं लेकिन उनके क्षेत्र या पहचान में में जितने भी ऐसे भ्रष्टाचारी लोग हैं उनके बारे में सब को पता है कि उसकी संपन्नता का स्रोत उसकी कुर्सी के नीचे है. सभी चाहते हैं कि उनको सज़ा हो. पहल कोई नहीं करता कि उनको सज़ा दिलाने के लिए मुक़दमा करें.
क्यों नहीं करते?
हमारे पास सबूत थोड़े ही हैं?
क्यों, अभी तो आप ही कह रहे थे कि उसकी यह महंगी गाड़ी, यह बंगला उसकी सैलरी में थोड़े ही आयेगा? तो क्या यह सबूत नहीं है?
अरे भाई, आप भी कैसी बातें करते हैं? यह सब कोर्ट में थोड़े ही चलेगा, कोर्ट को तो सबूत चाहिए ना! और कोर्ट में तो आप को पता ही है…
यह संवाद किसका है? सब का है. आप भी यही कहेंगे. सब समझते हैं कि ऐसी बातों के सबूत रखे नहीं जाते. मिलेंगे नहीं, लेकिन यही लोग दृढ़ता से मानते हैं सरकार के पास ऐसी कोई जादू की छड़ी है कि जो चाहे वो कर सकती है.
सरकार तब ही कर सकती है जब प्रशासन के साथ पूरा ताल मेल हो. काँग्रेस के राज में होता था. जब भ्रष्टाचार के बहाने किसी को औकात बताई जाती थी तो सरकार के लिए यह बहुत आसान था क्योंकि सब मिले हुए थे.
कौन से सबूत कहाँ मिलेंगे, किसके पास मिलेंगे या कौन से सबूतों के लिए किस पर दबाव बनाना चाहिए यह पता होता था क्योंकि लाभ के भागी सब होते थे.
अगर chain में अपनी जगह बनाए रखना है तो सबूत उपलब्ध कराना है, यह हर कोई जानता था. किसी के लिए तो विशेष कृपा प्राप्ति के भी ये अवसर होते थे.
सब को यह पता था कि वास्तव में क्या हो रहा है, बाकी भ्रष्टाचार तो दिखाने के दाँत थे, यह किसी को कुछ और बात की सज़ा मिल रही होती थी.
मोदी जी के लिए यह असंभव है. यहाँ तो यह परिस्थिति है कि प्रशासन बिफरा हुआ है. नोटबंदी का वार काफी गहरा था और जो हो रहा है उसकी संख्या बड़ी है. लेकिन कार्रवाई को न मीडिया हाइलाइट कर रही है और न सरकार नाम उजागर कर रही है. छुटपुट नाम ही बाहर आ रहे हैं लेकिन कार्रवाई व्यापक है.
इसीलिए तो ऐसे मुद्दों को हवा दी जा रही है जहां सरकारी यंत्रणा के नाम पर सीधा मोदी जी पर कीचड़ उछाला जा सके. असंतोष की फसल यहीं से लहलहाना शुरू होती है. बाकी भी अधूरे वादे हैं, उनका खाद पानी तो है ही.
वो “भात भात” किस्सा तो भूले नहीं होंगे आप. कर्मचारियों को बस नियमों पर उंगली रखकर चलना है, उनको कुछ भी नहीं होगा लेकिन ऐसे मुद्दे को हवा देकर मोदी जी को कठघरे में खड़ा करने का मौका नहीं छोड़ा जाएगा.
कटघरे में न वो कर्मचारी होगा न सरकार होगी, मोदी जी ही होंगे. फर्क समझिए. जिनका नोटबंदी ने नुकसान किया है वे मोदी जी का नाश कर के समाधान पाना चाहते हैं और यही सोच कर समय निकाल रहे हैं कि पाँच साल किसी तरह निकाल लें, कोई नया या बहुत बड़ा भ्रष्टाचार न करें और सरकार को ज्यादा काम भी न करने दें.
जनता को शायद ही पता है कि किसी सरकारी अधिकारी के खिलाफ एक्शन लेना कितना कठिन होता है. तंत्र का साथ न हो तो शासन भी यह नहीं कर सकता. खुलेआम घूस लेते चपरासी तक को हटाना मुश्किल है.
बाकी की बात नहीं करूंगा, बस यही समझ लीजिये सिस्टम के कवच कुंडल लगभग अभेद्य होते हैं. उन्हें सिस्टम ही तोड़ सकता है. लेकिन सिस्टम तो मोदी जी के जाने का शिद्दत से इंतजार कर रहा है.
और यहाँ जनता में जान बूझकर यह बात फैलाई जा रही है कि मोदी सरकार को रॉबिनहुड बनना चाहिए, क्यों बन नहीं सकते? आखिर सरकार है, और सरकार कुछ भी कर सकती है. काँग्रेस का समय याद कीजिये, क्या सरकार कुछ भी नहीं करती थी?
ये इस समय यह नहीं कहेंगे काँग्रेस की सरकार ‘कुछ भी’ करती थी इसलिए ही फेंकी गई.
भाई, नोटबंदी के समय यही लोग क्या कह रहे थे, जरा याद कीजिये तो? डिजिटल मनी के विरोध में आप को कितने WhatsApp फॉरवर्ड किए हैं इन्हीं लोगों ने? सिस्टम बदलना आसान नहीं है, बल्कि लगभग असंभव है. फिर भी जो कुछ हो रहा है, काफी कुछ है.
मोदी समर्थक 2G को लेकर यह कह रहे हैं कि कांड तो हुआ है, सबूतों के अभाव में चोर छूटे हैं. काँग्रेस और साथी कह रहे कि चोरी हुई ही नहीं, या हुई है तो इससे कोई नुकसान हुआ नहीं. ज़ीरो लॉस हुआ है, तो कोई गुनाह ही नहीं बनता. क्या ट्रायल बॉल फेंका था क्या, कैच लिया तो भी नॉट आउट?
असली समस्या यह है कि हर सामान्य आदमी के दिमाग में कम से कम एक भ्रष्टाचारी है. उसके भ्रष्टाचार के सभी प्रमाण भी हैं. कोर्ट में वे स्वीकार्य नहीं होंगे यह भी वो जानता है लेकिन उसे पता है कि भ्रष्टाचार से ही ये सब आया है.
उसके दिमाग में एक लेदर का मोटा पट्टा भी तैयार है जिससे वो उस भ्रष्टाचारी के चूतड़ लाल करना चाहता है, उससे उसकी सारी काली कमाई उगलवाना चाहता है. उसे पता है वो यह नहीं कर सकता इसलिए उसके लिए मोदी जी सिनेमा के हीरो हैं जिसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है.
और टीम काँग्रेस उसे यह समझाने में लगी है कि मोदी जी तो आर्ट फिल्म के हीरो हैं जो हमेशा सिस्टम का मारा होता है इसलिए यह फिल्म फ्लॉप है. बैक्ग्राउण्ड में, पर्दे पर, सिस्टम संतोष से मुस्कुरा रहा है. भेड़ को मार खाने के बाद सुस्ताते भेड़िये के चेहरे पर भी इस तरह का भाव पाया जाता है.
ऐसे में क्या होता है? दिमाग में नोटा (NOTA) का ऑप्शन ठूंस दिया जाता है. असंतोष के खेती से हुई फसल से राजनीति की रोटियाँ यहाँ उड़ाई जाती हैं.
इस लेख में मैंने दो धड़ों का उल्लेख किया है. एक आदर्शवादी जो बहुत जल्द निराश हो जाता है और खुद को ही दोषी मान कर किस्मत से समझौता कर लेता है. घुट घुट कर जीता और मर जाता है. दूसरा धड़ा खुद को practical कहलानेवाले लोगों का है जो पाला बदलने को भी practical होना कहते हैं.
आप किसमें हैं या रहना चाहेंगे, आप को तय करना है. मुंह न मोड़ें तो अधिक अच्छा होगा. यह न हो कि रास्ते में पेट्रोल भरवाना था और पेट्रोल पंपवाले ने इसलिए मना कर दिया कि उसे यकीन नहीं था कि गाड़ी यात्रा कर सकेगी या नहीं. इसलिए यात्रा अधूरी रह गयी.