विचार की प्रक्रिया ठहर जाए, सब समाप्त हो जाएं, भाषा खो जाए, मन मौजूद न रहे; सिर्फ चैतन्य रह जाए, सिर्फ भीतर जानना मात्र रह जाए और जानने में कोई विषय न हो—जैसे दर्पण है..!!!
दर्पण की दो अवस्थाएं हैं. जब दर्पण में किसी की तस्वीर बनती है, यह एक अवस्था है. जब दर्पण खाली होता है, किसी की तस्वीर नहीं बनती, यह दूसरी अवस्था है.
जब दर्पण में किसी की तस्वीर बनती है, तो दर्पण तस्वीर से आच्छादित हो जाता है. दर्पण में विषय होता है.
जब कोई तस्वीर नहीं बनती तो दर्पण शुद्ध होता है, अनाच्छादित होता है, निर्मल होता है. और उसमें कोई विषय नहीं होता है.
हमारी चेतना दर्पण की तरह है. जब चेतना में विचार चलते हैं तो चेतना आच्छादित हो जाती है. और जब चेतना निर्विचार होती है, कोई विचार नहीं चलता, तब चेतना निर्मल, शांत हो जाती है.
उस शांत स्थिति में जानने को कुछ भी नहीं होता, मात्र जानने की क्षमता रह जाती है. ‘जस्ट नोइंग’. इस अवस्था को ही ध्यान कहते हैं. और इस ध्यान में ही उस अचिंत्य का पता चलता है. पता! इस ध्यान में ही वह अचिंत्य अनुभव में आता है. विचार में नहीं.
तो विचार और अनुभव का एक फर्क और समझ लें. विचार सिर्फ बुद्धि में उठती हुई तरंगों का नाम है, अनुभव समस्त अस्तित्व में.
जब परमात्मा अनुभव होता है, तो रोएं—रोएं को अनुभव होता है. खून की बूंद—बूंद को, हड्डी के टुकड़े—टुकड़े को, चेतना के कण—कण को. आपका समस्त अस्तित्व उसे अनुभव करता है.
जब आप विचार करते हैं तो सिर्फ आपकी बुद्धि का एक कोना उसके संबंध में सुने हुए, जाने हुए शब्दों को दोहराये चला जाता है.
बुद्धि आपका एक बहुत छोटा—सा अंग है और वह भी एकदम उधार. वह आपका अस्तित्व नहीं है. वह आपका वास्तविक अस्तित्व नहीं है. वह आप प्रामाणिक रूप से आप नहीं हैं,
हम इसे ऐसा अगर समझें तो अच्छा होगा. बुद्धि आपके भीतर समाज का घुस गया कोना है. आपका अस्तित्व है, उसमें समाज ने जो—जो आपको सिखाया है, वह आपकी बुद्धि है. उसको आप दोहराए चले जा सकते हैं.
इसलिए जब एक हिंदू सोचता है ईश्वर के संबंध में तो राम का खयाल आता है. जब एक मुसलमान सोचता है, तो राम का खयाल नहीं आता. जब एक ईसाई सोचता है, तो जीसस का खयाल आता है. जब एक जैन सोचता है तो न जीसस का खयाल आता है, न राम का खयाल आता है. तो खयाल तो आपको जो दिये गये हैं वही आ जाते हैं.
खयाल उधार हैं. विचार आपकी संपदा नहीं, केवल आपका संग्रह है. बाहर से. उसको आप जुगाली कर सकते हैं. इस जुगाली से वह नहीं मिलेगा.
यह जुगाली पूरी रुक जानी चाहिए और चेतना का दर्पण ऐसा हो जाना चाहिए कि उसमें कोई प्रतिबिंब ही न बचे. जिस दिन कोई प्रतिबिंब नहीं बचता उस दिन अचिंत्य झलकता है. पहला शब्द ‘अचिंत्य’ है.
– ओशो, कैवल्य उपनिषद, प्रवचन-06