चलते-चलते, दूर बियावान में
फूलों की एक घाटी मिली
मैंने देखा तो,
पर नही रुका एक पल भी
उस घाटी में फूलों का यह पहला अपमान था.
मैंने पहली बार जाना
भीतर घुस चुकी निष्ठुरता नही पसंद करती मुस्कुराहटें
आगे पहाड़ पर एक घूप-घड़ी लेटी थी.
समय थोड़ा बचा है कहते हुए
मेरा उकताया चेहरा देख, उतर चली वह
मैं अपनी परछाई पर लात रखता हुआ
बढ़ता रहा
मानो यह जीवन छोटा है इतना ही,
खबर हुई मुझे अभी-अभी
अभी आकाश में बहुत सारी जीभें निकल आयी.
एक- प्रवचन देती हुई
दूसरी- डांटती हुई
तीसरी- पुचकार में लौटाती हुई
सभी जीभें मुझ पर नसीहतों की तरह बरसने लगी
कि
लौट जाओ, स्पंदनों की ओर
सांसो की आवाजाही में सीमित रहो!
तुम एक नदी की तरह सोचो
और समुद्र की तरह लज्जित होते रहो.
कोई हर्ज नही हैं सीमाओं में बने रहना
परिधि में उड़ते रहना
अति-शुद्ध भाषा का उज्जवल मुँह चाटते रहना
और अन्ततः ,
सिर्फ आदमी बने रहना!
कविता प्रश्न नही है न ही तुम्हारा जीवन है कोई उत्तरमाला
मैं आवाजो को कुचलता रहा, आगे बढ़ता रहा
मेरे हर कदम पर
भूमि ने एक-एक कान उगाया.
जिन्होंने आगे बढ़ कर निगल लिए आवाजो के पैर!
मैं बढ़ता रहा और मिलता रहा
पेड़ो से/गुफाओं से/शिलाओं से,
नदियों के बहाव से,
मैं दूर आ गया
आबादी और विचारों से
मैंने समूचे इतिहास की गोलियां बना कर नदी की मछलियों को खिला दिया
और निकल गया बहुत दूर
ब्रह्मांड के कानो में एक गंदी सी गाली बकता हुआ
आ गया चहलकदमी करते हुए
अपूर्णता के सुरक्षित और सहनशील निर्वात में!
पूर्णता के चेहरे पर
पहली बार यह अफसोस झलका कि
संवादों से पहले यह दुनिया कितनी खूबसूरत थी.
पर तब तक,
फूल आत्महत्या कर चुके थे
पूर्णता ‘पूजनीय’ हो चुकी थी
संवादों में सिर्फ विवाद ठहरे थे
और मनुष्यता के पास बचाने को बस ‘चेहरा’ बचा था
समय इतना तेज भागा कि
वर्तमान के हाथो में अब सिर्फ इतिहास रह गया
भविष्य की मृत-देह पर
कई विजयी देश नृत्य कर रहे थे
जिन्होंने खा लिया था सफलता-पूर्वक एक-दूसरे की जनता को.
और
मैंने एक कविता ऐसे ढूंढ ली थी आखिरकार,
मानो एक अधिक सहनशील ग्रह मिल गया हो मुझे
इसी आकाशगंगा में.
मैं बहुत भड़का हुआ था.
यह सच है कि मेरा लौटना अब असंभव है!