उपासना, पूजा-पाठ-आरती में मेरी रूचि नहीं है. ध्यान-धारणा कभी मुझसे हुआ नहीं और सच पूछिये तो कभी इसके लिये प्रयास ही नहीं किया. मंदिर अक्सर जाता हूँ पर वहां जाने के बाद कभी ध्यान ही नहीं आता कि ईश्वर से कुछ माँगना चाहिये, इसलिये कभी कुछ माँगा नहीं.
पूजा-पाठ या किसी धार्मिक कर्मकांड को करने में भी मेरा मन नहीं लगता. गीता कई बार पढ़ने की कोशिश की, पर एक हद के बाद ज्यादा कुछ समझ नहीं आया, सारे वेद मेरे घर में है पर उसे भी पढ़ने में बहुत रूचि नहीं है.
दुनिया को तुलसी की रामचरितमानस में रस आता है पर मुझे अधिक आनंद वाल्मीकि रामायण पढ़कर मिलता है, गंगा स्नान शायद बचपन में दादी के साथ किया था उसके बाद नहीं, शिखा रखता नहीं, गौ-पालन नहीं करता.
ऊपर से तुर्रा ये कि मैं खुद को पूर्ण हिन्दू मानता हूँ.
ये बात आपके लिये हैरत वाली हो सकती है क्योंकि अक्सर हमें ऐसे प्रश्नों से दो-चार होना पड़ता है जब कोई कहता है कि तुम शिखा तो रखते नहीं तो कैसे हिन्दू हो? ध्यान वगैरह नहीं करते तो काहे का हिन्दू? गाय कभी पाली है? पूजा-पाठ से भागते हो फिर किस आधार पर हिंदुत्व का अभिमान? गीता-उपनिषद पढ़ा नहीं कुरान-बाईबल पढ़ते हो ये हिंदुत्व है तुम्हारा? उर्दू-फारसी का प्रचार करके हिंदुत्व के कौन से गुण को पूरा करते हो?
मेरा जवाब है :
“हिन्दू धर्म दुनिया का अकेला धर्म है जिसकी अनुभूति एक अनपढ़ चरवाहा या किसी सूदूर ग्रामीण अंचल में बैठा इंसान भी उसी रूप में कर सकता है जैसी अनुभूति बौद्धिकता और अध्यात्म की ऊँचाई पर बैठे स्वामी विवेकानंद, सावरकर या गुरूजी गोलवलकर जैसे लोगों को होती है”.
ये मैं इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि ‘शिकागो धर्मसभा’ में स्वामी विवेकानंद ने जो कहा, क्या वही विचार हमारे ग्रामीण अंचलों तक बैठे लोग नहीं रखते? क्या वही सोच हमारी और आपकी दादी और नानी की नहीं है? क्या वही सोच आपकी और मेरी नहीं है?
वहां स्वामी जी जितना बोले वो क्या केवल वही नहीं था जो हमारे बचपन में हमारी दादी-नानी और माँ हमें किस्से-कहानियों के रूप में हमें सुनाती थी यानि राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर की कहानियां तथा हमारे उपनिषदों और पुराणों से ली गई बातें, प्रकृति और जड़-चेतन के प्रति अपनत्व का भाव?
हमारे यजुर्वेद ने कहा, “मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।” (यजुर्वेद 36/18) ‘यानि हमें विश्व के सारे प्राणी मित्र दृष्टि से नित देखें, और सभी जीवों को हम भी मित्र दृष्टि से नित देखें।’
अब बताइये, इस भाव को क्या वो सब हिन्दू नहीं जीते जिन्होंने कभी वेद को देखा तक नहीं है?
इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ ये है कि हिंदुत्व किसी भी चीज़ से बंधा नहीं है, इसे आप किसी परिभाषा में नहीं बाँध सकते. इसे आप क्षुद्रता के पैमाने से माप नहीं सकते. यही वजह है कि हम या आप गीता-वेद-पुराण को पढ़े बिना भी वही भाव रखते हैं जिसकी अपेक्षा ईश्वर की हमसे और सारी मानवजाति से है.
सोशल मीडिया पर कई मित्र हैं, कुछ को वेदों का ज्ञान है, कोई पुराणों पर महारत रखता है, किसी को उपनिषदों की व्याख्या का सामर्थ्य है पर मुझे हिंदुत्व को देखना होता है तो मैं सर्वजीत अवस्थी को देखता हूँ. हिंदुत्व समझना होता है तो उनसे बात करता हूँ. ये साहब वेदज्ञ नहीं है, इन्होने शायद गीता भी नहीं पढ़ी और न ही रामायण का पारायण किया है, पर हिंदुत्व क्या है इनको बहुत बेहतर तरीके से पता है.
हिंदुत्व को किसी खांचे में मत बांधो, मैंने भले अपने ग्रन्थ पर महारत हासिल न की हो पर मैं सेमेटिक मजहबों की सनातन अनुकूल व्याख्या का सामर्थ्य रखता हूँ. मैं उनके ग्रंथों को अपनी परिभाषा में बाँध सकता हूँ.
गाय के बारे में वेद-मन्त्र क्या कहते हैं, हो सकता है कि मुझे इसका अधिक ज्ञान न हो पर मैं एक मुस्लिम को गो-रक्षा का महत्त्व समझा सकता हूँ. मन्दिर जाने में रूचि भले न हो पर राममंदिर बनना चाहिये इसके लिए प्रतिबद्ध हूँ.
ध्यान-धारणा कभी मुझसे हुआ ही नहीं और सच पूछिये तो कभी इसके लिये प्रयास ही नहीं किया पर योग के ऊपर लिखी मेरी किताब ने कई मुस्लिमों को इस दैवीय वरदान से जोड़ा.
गंगा स्नान नहीं किया पर गंगा के पास जाकर मेरे सामने पूरे भारत का काल-चक्र घूमने लगता है. ‘भगीरथ’ से लेकर ‘श्रीराम’ और ‘विशाल मगध साम्राज्य’ के शूरवीर सम्राट सबको मेरी आँखों के सामने लेकर गंगा मैया प्रकट हो जातीं हैं और मैं गौरव से भर जाता हूँ. इसी गंगाजी में मुझे हिजाजी बेड़ा डूबता हुआ नज़र आता है.
समुद्र और हिमालय को मैं देव रूप देखता हूँ या नहीं, पता नहीं, पर समुद्र और हिमालय हमारे अतीत के गौरव को साकार रूप में लेकर उपस्थित हो जाते हैं.
सिंधु-सागर को देखता हूँ तो मुझे उसमें शरीर-त्याग करते बलराम नज़र आते हैं, हिन्दू-सागर पर नज़र जाती है तो वहां मुझे शिव का अभिषेक करते श्रीराम और सेतु बांधते वानर-वीर दिखने लगते हैं तो बंग-सागर मुझे अपने उन परिव्राजक पूर्वजों से जोड़ देती है जो इस महान धर्म की विजय पताका लहराते हुये सुमात्रा, कम्बोडिया, जावा, बाली और बोरोबदूर तक चले गये थे.
मैं जब नागालैंड घूमने जाता हूँ तो मेरे सामने उसकी वादियों में तीर-कमान लिये पांडव-वीर, पांचाली और कुंती दृश्यमान हो जाते है. मथुरा और वृन्दावन का नाम सुनकर मुझे योगेश्वर श्रीकृष्ण के शरीर से निकलती दिव्य सुगंध की अनुभूति होने लगती है.
और मुझको ये सब मेरे हिंद्त्व ने दिया है… सिखाया है.
मेरा हिंदुत्व ऐसा ही है जिससे मुझे बेहद प्यार है. मैं इसी को जीता हूँ. मेरे हिंदुत्व पर अपने विचार मत थोपिये क्योंकि मेरा हिंदुत्व आपके हिसाब से नहीं चलेगा… मैं इसी हिंदुत्व को जीता हूँ… और यही मेरी पहचान है.