हाँ, मैं हूँ
अपनी विचित्रता के आकुल पाठ में
बनती-बिखरती लय में
मुझे मर जाना चाहिए था
अपने बचे रहने की अतिसूक्ष्म संभावना की टकटकी में
पर मैं हूँ
अधिकता में बहुत थोड़ा सा बचा हुआ
तंत्र में विद्रोह सा
सन्नाटे में जरुरी शोर सा!
पहाड़ का दुःख जहाँ घाटियों में रिसता है
नदी की पगडण्डी पर
घिस रहे एक कमजोर किनारे सा,
अवांछनीयता में छूट गयी बहुत थोड़ी सी अनिवार्यता सा
नृत्य में जो लयविहीन है
आकाश में तल न बन पाने के दुःख से धरती में बिधा हुआ
संवादों में किसी गैरजरूरी उल्लेख सा
विलाप में बिना बताए चले आए आलाप सा
अपने ही अस्तित्व पर चौंकता
और फिर मिल जाता
एक जानी-पहचानी भीड़ में, सबसे अनजान हिस्सा बन कर
अपने पहचान चिन्हों को जेब में छुपाए
मैं हूँ तो सही.
कातर दृष्टि से देखता, पहचानों से भरी एक विराट पृथ्वी को
जहाँ पहचान-विहीनता से मर जाना
एक अभिशाप है
स्मृति के पंजों से खुद को निकालता
और हारता
उस वर्तमान से
जिसके हर आश्वासन से स्मृति झांकती है
चिढ़ चुके भविष्य को फुसलाता
स्वप्न में एक काव्य बुनता
जागता तो उसके चीथड़े गद्य में बटोरता
मैं हूँ तो सही.
न होने की तमाम नजदीकी शुभेच्छाओं में भी
मैं बिल्ली की उठ खड़ी हुई सतर्क पूँछ हूँ
बाघ की दहाड़ में छुपा हुआ कोई आदिम डर हूँ
कमजोर के भीतर चल रहे ताकतवर के विध्वंस की स्वप्निल परिणति में
मैं हूँ तो सही.
एक सभ्रांत बहस में घुस आए किसी आपत्तिजनक वाक्य सा
– आश्वस्ति को छू कर गुजरते
किसी अपराधी संशय सा!