अपने मित्र को चैट बॉक्स में हमने लिख भेजा “अभी अभी सुबह की पहली चाय पीने आये हैं.”
और हमारे चाय प्रेमी मित्र ने तपाक से कहा “पहली?.. आप कब से बहु-चायवादी हो गए!”
अब इस चाय को लेकर कई बार कई मौकों पर कई तरह के किस्से ज़ेहन में बसे हैं तो ऐसे में थोड़ा अंदाज़ में हमने प्रत्युत्तर दिया – “ऐसा ही है आदरणीय कि… बहु-चायवादी… होते तो सभी हैं बस जताते सब नहीं…!”
तिस पर हमारे मित्र ने अपने अनोखे अंदाज़ में विषयांतर कर एक बात छेड़ते हुए कहा “Like बहुपत्निवादी, हाहाहा… होते तो सब हैं बस जताते नहीं. क्यूँ क्या कहते हो…”
असल में तब बढ़िया अदरक वाली उस चाय की अगली चुस्की, सुबह की गुलाबी ठंड और उस सुहानी धूप के जादू में कुछ बात गहरे से आई और मैंने अपने ही अंदाज़ में कहा- “Polygamous होना मनुष्य की जैविक सच्चाई है… स्त्री पुरुष दोनों ही… बस लबादा सामाजिकता का रहता है और उसके अंदर मचती रहती है खाज… जिसे लोग विवाहेतर सम्बन्ध कहते हैं..!”
अब हमारे सुविज्ञ मित्र भी गम्भीर हो चले और उन्होंने कहा – “स्वीकारता कौन नकाबपोश है?”
एक पंक्ति में कई सवालों के आयाम छू लेना आदरणीय मित्र की ख़ासियत है…
हमने कुछ आयाम भाँपते हुए जवाब दिया- “हिम्मतवर नकाबपोश… जैसे हुआ करते थे नकाबपोश विद्रोही… मगर, हिम्मत इतनी भी नहीं कि नक़ाब हटा सकें… समाज नाम की चीज भी एक प्रत्यक्ष यथार्थ है… और समन्वयवादी व्यक्ति हर कोई नहीं… शायद यही शुभ है सब के लिए.”
उन्होंने कहा कि तनिक शाब्दिक विस्तार दें अपने इस विचार को.
‘शायद यही शुभ है सब के लिए’… इस अंतिम पंक्ति का ही विश्लेषण किया तो पाया कि ‘शायद’ लिखते ही अनेकांतवाद के स्यातवादी तरीक़े से मैंने इस मामले को देखा जो कहता है कि शायद है भी, शायद नहीं भी है ऐसा.
‘शुभ होना’… इसकी भी तमाम स्वीकृत, अस्वीकृत परिभाषाओं को माथे रख रखा है हम सबने… जैसे किसी समूह विशेष के लिए धर्म-युद्ध शुभ कार्य होता है जो समूची मानवता के लिए अशुभ है.
ऐसे ही ‘सब के लिए’, ऐसा कहते समय किस तरह हम conclusive या जजमेंटल हुए जाते हैं. निष्कर्ष की घोषणा कर देने की जल्दी में हम यह भूल ही जाते हैं कि सत्य को शतप्रतिशत समग्रता से देखना असम्भव है और उसके हर प्रयास में तमाम भूलें होना सुनिश्चित है.
Polygamous होना एक जैविक सच्चाई है, विवाहेतर सम्बन्ध होना एक सामाजिक घटना जो हर देश, दिशा, काल में सर्वथा विद्यमान रही है. राजवंशों और कबीलों के इतिहास में ऐसे असंख्य उदाहरण हैं जहाँ इसके प्रमाण हैं कि मनुष्य एक साथी से संतुष्ट नहीं रह पाता है.
नैतिकता या मोरैलिटी, ये मानवीय विकास के क्रम में ऐसे शब्द और ऐसे उदाहरण इसलिये गढ़े गए क्योंकि सामाजिक स्थिरता के लिए कुछ नीति नियम लाये जाने अत्यंत आवश्यक थे.
इस बात का प्रमाण भी यही है कि शुरु से आम जनों के लिए एक नियम और ख़ास लोगों के लिए अलग नियम रहा करते थे.
एक राजपुत्र कितनी भी स्त्रियों के साथ यौनाचार करता रहे, फिर भी जब वह राजमुकुट धारण करेगा तो जनता उसकी जयजयकार ही किया करती थी… तब उसे समृद्ध भारतीय या रोमन समाज किसी इंद्र या ‘ईश्वर-पुत्र’ के दर्ज़े से भी नवाजती थी.
मग़र यही उन्मुक्त यौनाचार कोई आमजन करे तो उसे घनघोर अनैतिक और पाशविक यौनाचार में लिप्त एक कुण्ठित और घृणित मनुष्य माना जाता था.
ये दोहरापन सही है या ग़लत, इस पर बात करना विषयांतर हो जाएगा. किंतु, संदर्भ की तरफ लौटते हुए हम देखें कि polygamous होना इंसानी फ़ितरत रही है.
इस परिचर्चा का कोई सार ऐसा नहीं निकल सकता जिसके आधार पर मैं यह कहूँ कि यौन उच्छृंखलता को सामाजिक स्वीकृति दे दी जाए…
ना ही मैं ये कह रहा हूँ कि सर्वमान्य व्यवस्था में कोई खोट है या कोई कमी है और इसमें किसी भी प्रकार की शिथिलता या किसी ऐसे बड़े बदलाव की मैं कामना करता हूँ, जिससे बहुपत्नीवाद या बहुपतिवाद जैसे किसी कॉन्सेप्ट को मान्यता और समर्थन मिले.
इस परिचर्चा का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि मनुष्य के स्वभाव की सत्यता को पूर्ण समग्रता के साथ देखा जाए, और सत्य को उसकी नग्नता के साथ स्वीकार करने का साहसिक कार्य किया जा सके.
इसी क्रम में अगर हम देखें तो हर देश, दिशा, काल में पनपे मानव समाज मे ऐसे अनेकों प्रतीक उदाहरणार्थ छिपे पड़े हैं जिनके सामान्य विश्लेषण से ही मनुष्य के यौनाचार और यौनेच्छाओं के नैसर्गिक पाशविक होने के प्रमाण मिलते हैं.
अगर पौराणिक चरित्रों का चित्रण ही देखें तो मानवीय कल्पनाओं में भोग विलास के प्रति आसक्ति के प्रमाण प्रत्यक्ष मिलते हैं.
आप किसी बहिश्त, किसी ज़न्नत या किसी स्वर्ग की mythological कल्पना के यौन सुख वाले आयाम पर ग़ौर करें… सभी व्याख्याओं में ऐसी अद्भुत सौन्दर्यशालिनी, चिरयुवा, कोमलाङ्गी स्त्रियों के वैभवपूर्ण चरित्र चित्रण देखेंगे जिनकी तुलना की सुंदर स्त्री मिलना लगभग असंभव ही हो.
क़ुरआन जैसे ग्रंथ से जुड़े हदीसों में ज़न्नत की हूरों के ख़ूबसूरत होंठ से लेकर उनके उन्नत वक्षस्थल, ख़ूबसूरत नितम्ब तक की ऐसी परिभाषाएं हैं कि आश्चर्य होगा कि ये चित्रण किसी धार्मिक किताब में क्यूँ दर्ज़ है.
भारतीय सनातन परंपरा के पौराणिक आख्यानों में स्वर्ग की अप्सराओं का चिरयौवना होना, कभी गर्भवती ना होना, अपनी कामुक चेष्टाओं से हठ योगियों के भी ध्यान भंग कर देने की कहानियाँ किस ओर इशारा करती है ये हम आप स्वयं देखें.
कहीं ना कहीं ये स्वर्ग की परिकल्पनाएं, मनुष्य की अतृप्त कामनाओं का लेखा जोखा ही नज़र आती हैं. कुछ धार्मिक मान्यताओं के आधार पर बनाई नैतिकताओं को जनमानस में स्वीकार्य बनाये रखने के लिए भी, स्वर्ग में वे सभी बातें बताई गयीं हैं जिन्हें लौकिक एवं व्यवहारिक रूप से निषिद्ध कहा गया है.
जैसे इस्लाम मे परस्त्रीगमन ‘जिन्हा’ कुफ़्र है, शराबखोरी हराम है, शरीयतन चार से अधिक स्त्री रखना भी हराम है… लेकिन वे सुनिश्चित करते हैं कि अपने ईमान में मुक़म्मल रहने वाले मुसल्लम ए ईमान, मुसलमान को ज़न्नत में अल्लाह 72 ख़ूबसूरत हूरों से नवाजेंगे और वहां फ़िरदौस में शराब के झरने बह रहे होंगे. ज़न्नत में अनंत काल तक सुखभोग की क्षमता मिल जाएगी इस देह को… और भी ना जाने क्या क्या बातें हैं.
मनुष्य की मूल प्रकृति उसे पाशविक रूप से यौनाचार में लिप्त रहने के लिए कहती है और सामाजिक/ धार्मिक व्यवस्थाएं उसे नैतिकता की चौहद्दी में रहने को बाध्य करती है, ऐसे में कल्पनालोक में अपनी अतृप्त कामनाओं को पूरा होते देखना चाहेंगे ही ये सभी कुण्ठित लोग.
बड़े आश्चर्य की बात है कि ना इस्लाम में महिलाओं के लिए ऐसे किसी 72 पुरुषों की व्यवस्था है, ना किसी पौराणिक वर्णन में ये ज़िक्र है कि स्वर्ग में चिरयुवा, बलिष्ठ और गर्भवती ना करने वाले पुरुष मिलेंगे.
Polygamous तो स्त्री पुरुष दोनों ही होते हैं ना, फिर इन क़िताबों में ये अन्याय क्यूँ… तो साहब अन्याय सिर्फ़ किताबों में नहीं है, यह पुरूष चित्त का हिस्सा रहा है.
ये धर्म की स्थापना का काम, ये क़ुरआन, बाइबिल और हदीसों को लिखने का कार्य पुरुषों का ही तो रहा है. हिन्दू सनातन धर्म में भी प्रज्ञावान स्त्रियों द्वारा पौराणिक ग्रन्थों की रचना के संदर्भ में बहुत कम उदाहरण हैं.
इस पर फिर कभी चर्चा हो जाएगी, लेकिन सत्य झुठलाया नहीं जा सकता कि जिस तरह अपनी स्वतंत्रता का आनंद पुरुष लेता दिख रहा है, उतनी आज़ादी स्त्रियों को कहीं भी नहीं दी गयी है.
यह कहना अतार्किक ना होगा कि कालांतर में कभी अगर स्त्रियों ने धर्म बनाये, अग़र स्त्रियों ने स्वर्ग की परिकल्पना बनाई तो वहां 72 बलिष्ठ सुंदर युवकों द्वारा कामेच्छाओं की पूर्ति को सुनिश्चित किया जाएगा.
पुरुष ने जिस पितृसत्तात्मक समाज की स्थापना की है, उसमें आप देखें कि कला की अभिव्यक्ति, साहित्य में लावण्यता के नाम पर लिखित बातें, स्वर्ग आदि लोकों की व्याख्या, चर्च/ मंदिरों की प्राचीर में उकेरी गई प्रतिमाएँ… लगभग हर जगह स्त्री देह के अपूर्व सौंदर्य और कामुक चेष्टाओं को इंगित किया जाता रहा है.
रोम, ग्रीस, फ्रांस से लेकर भारत के मंदिरों में भी स्त्रियों का चित्रण जिस तरह का है… लगभग वैसी ही स्त्रियाँ मिलना नामुमकिन है. ये प्रमाण जो मैं दे रहा हूँ वो किसी भी समुदाय का किसी भी तरह से चरित्र हनन का प्रयास नहीं है.
ये तो सिर्फ़ ये बतलाने का प्रयास है कि पहले के जो बौद्धिक संपन्न लोग थे… उन्होंने कितनी ईमानदारी से अपनी यौनेच्छाओं को, अपनी कल्पनाओं में बसे सौंदर्यबोध को सामने रख कर ये संकेत दिया है कि मनुष्य का मूल स्वभाव कैसा रहा है.
ऐसा दिखाई पड़ता है कि ये पुराने लोग अपनी अभिव्यक्ति में हम आप से ज़्यादा ईमानदार थे और एक हम हैं जो नग्नता मिश्रित फूहड़ता को सौंदर्यबोध और सीक्रेट रिलेशनशिप को नैतिकता की चादर ओढ़ाने में व्यस्त हैं.
बहुपत्नीवाद के सैकड़ों उदाहरण हम आपको पता हैं, बहुपतिवाद के कुछ ही उदाहरण हैं वो भी हम आपको ज्ञात हैं… ये सभी बातें किसी क्षेत्र विशेष, किसी एक परम्परा, धर्म, कबीले तक की बात नहीं है… ये सत्य है पूरी मनुष्यता का.
जैसे उदाहरण के लिए, हम जानते हैं मनुष्य एक हिंसक पाशविक वृत्ति वाला प्राणी है जिसने सामाजिकता और धार्मिकता के कई मुखौटे लगा लिए हैं. लेकिन आप उनके धार्मिक अनुष्ठानों के नाम पर दी जाने वाली पशु बलि को देखें, आप उनके युद्ध उन्माद को देखें उनके जिहाद और धर्मयुद्ध के नाम पर हुए क़त्ल ओ ग़ारत को देखें, आप धर्म और नैतिकता के आधार पर लड़े गए तमाम खूनी संघर्षों के इतिहास देखें, तो पाएंगे कि इतना ख़ून ख़राबा तो जंगली जानवरों ने भी नहीं किया होगा हजारों सालों में जितना तथाकथित मनुष्यों ने किया है.
तो सत्य को उसकी नग्नता से देख लेने से भी क्या होगा… ये प्रश्न भी स्वाभाविक है. इस ईमानदारी से देख लेने से फ़ायदा ये होता है कि हम सामाजिक, नैतिक, धार्मिक पूर्वधारणा से मुक्त होते हैं. हम किसी घटना के प्रति त्वरित प्रतिक्रिया के बजाए एक संतुलित व्यवहार करने का प्रयास करते हैं.
हम समझते हैं कि अगर कोई ऐसी बात हो रही है जिसे नैतिक आधार पर ग़लत कहा जाता है तो उसके पीछे कहीं कोई और कारण तो नहीं. क्यूँ समाज प्रेम के नाम पर बढ़ रहे उन्मुक्त यौन सम्बन्धों की कहानियों की पृष्ठभूमि में ये नहीं देख पा रहा है कि मूल कारण कुछ और ही हैं.
ऑफिस, कॉलेज, स्कूलों में जो फ़िल्मी प्रेम पनपता है, जो किसी पार्क, झाड़ियों के पीछे, होटल के कमरों या कार के बंद शीशे के पीछे अपने उत्तरोतर आयाम तलाशता है… उसकी गहराई में जो अपराध बोध है उसका कारण क्या है.
वो इश्क़ जो सलवार के सरकने से जवान होता हो, वह इश्क़ है ही नहीं, वह तो हवस है सिर्फ़. वह प्रेम भी कैसा प्रेम है जिसमें सारी चेष्टाएँ प्रेमी युगल को बस कैसे भी बिस्तर पर जाने की जल्दबाजी सिखाता है.
ये जो लव जिहाद का मामला आये दिन उभरता है उसमें सिर्फ़ धर्म विशेष का ज़िक्र क्यों है… उस समुदाय विशेष में यौनेच्छाओं को लेकर किस तरह के कांसेप्ट बताये सिखाये जाते हैं, वो क्यों किसी स्त्री की कोमल भावनाओं को धर्मांधता की वेदी पर बलि चढ़ाते हैं… ये सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के भी प्रश्न हैं.
मनुष्य मूल रूप से polygamous प्राणी है और किशोरावस्था के बाद से ही शरीर का विज्ञान अपने खेल खेलना शुरू कर देता है. हम आप मानव विकास के जिस पायदान पर आज हैं, यहाँ से चीज़ें ज़्यादा स्पष्ट देखीं और समझी जा सकती हैं. लेकिन मानवीय सोच, समझ और व्यवहारिकताओं में आये बदलाव ने स्थिति जटिल बना दी है.
इन जटिल स्थितियों से समस्याएँ भी अत्यंत जटिल ही पैदा होती हैं. मेरा मानना है कि सरलता से अगर हम हर मुद्दे का सरलीकरण करें, तो सम्भव है कि हम समस्या के मूल सन्दर्भ को समझ कर उसका समाधान भी निकाल सकने में समर्थ हो पाएंगे.
और शायद यही शुभ है सब के लिए. शुभम भवतु.