एक लड़ाकू समाज जानता है कि लड़ना कैसे है. लो लेवल वायलेंस उसकी तलवार होती है और विक्टिमहुड नरेटिव यानी खुद को पीड़ित बताने का पाठ उसका कवच.
बाकी सहनशीलता की पराकाष्ठा पार कर चुके भीरू लोग एक दिन अचानक उठ खड़े होते हैं और कहते हैं आज आर या पार.
ऐसे में पुलिस प्रशासन तो सक्रिय हो ही जाएगा. उनका क्या दोष. संगठन बनाएं, अनुशासित रहें और थोड़ा थोड़ा रोज लड़ें. करत करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान.
ये विक्टिमहुड नरेटिव गढ़ा गया है बड़ी सफाई से. एक वालंटियर नेटवर्क और दूसरा पेड नेटवर्क है इसके पीछे. और भारत ही क्यों वेस्टर्न डेमोक्रेसीज़ में तो समस्या और विकट है.
वहां पॉलिटिकल करेक्टनेस अब ऐसी महामारी है कि सच पर अब लगभग पाबंदी है जब तक कि कुछ कथित पीड़ित समूह यानी अश्वेत, मुसलमान, एलजीबीटी और महिलाएं (थोक के भाव में) उस पर सहमति की मुहर न लगा दें.
अब सच के लिए इतने लोगों की सहमति तो जुटाई नहीं जा सकती. तो तब तक सच पर पाबंदी रहेगी.