पिछले दिनों की नोटबंदी से लगभग हर कृषि जिंस के दाम घट कर आधे पौने रह गए हैं लेकिन दूध का गुड फ़ील ग्राहकों को अभी तक नहीं हुआ. बावजूद इसके कि दूध के सूखे पाउडर के एक्सपोर्ट पर प्रतिबंध लगा दिया गया है.
ग्राहक को दूध-घी ही ऊंची कीमतों पर नहीं मिल रहा बल्कि हलवाइयों की खोये की मिठाई की कीमत भी आसमानी उड़ान पर हैं…
लेकिन वास्तविकता कतई अलग है…. SMP (स्किम्ड मिल्क पाउडर) का एक्सपोर्ट बंद होने से दूध की कीमतें काफी गिरी हैं वहीं नोटबंदी के कारण अड़ोसी-पड़ोसी से ब्याज पर मिलने वाली छोटी रक़मों के मिलने की सुविधा खत्म होने से दूध का थोक व्यापारिक मूल्य भी कम हो गया है…
इन दिनों दूधियों की हड़ताल चल रही है… दूध सड़कों पर फैलाये जाने के क्रूर दृश्य एक बार पुनः दिखाई दे रहे हैं…
दूधियों का कहना है कि उनको दूध 30-35 का पड़ रहा है लेकिन कलेक्शन सेंटर वाले 20 रूपये ही ले रहे हैं… 10-15 रूपयों का घाटा जा रहा है…
समझ में नहीं आ रहा कि कलेक्शन सेंटर कोई सरकारी तो हैं नहीं और निजी क्षेत्र के व्यवसायियों के मांग पूर्ति के कंपटीशन से बनने वाले उनके खरीद मूल्य को किस आधार पर चैलेंज किया जा सकता है…
और दूसरी ओर देखेँ तो इन दिनों मॉर्निंग वॉक पर एक फैशन तेजी से बड़ा है… वॉक पर जाने वालों के हाथ में एक डोलची लटकी हुयी मिलेगी… उसमें वे थन कड़ऊ ताजा दूध लेकर आते हैं… जो कि उनको 50 से 55 रूपये में मिलता है… ये मंहगा दूध मानो उनका स्टेटस सिंबल होता है.
इस दूध के झाग रास्ते में मर जाते हैं और वो दूध किलो का 900 ग्राम रह जाता है… मतलब ये हो गया 60-61 रूपये किलो… अर्थात दूधियों को पड़ने वाली कॉस्ट से लगभग दो–पौने दो गुना महंगा और कलेक्शन सेंटर के कथित खरीद मूल्य से तिगुना महंगा…
और वहीं ब्रांडेड अर्थात अमूल आदि का दूध भी लगभग 60 से ऊपर ही पड़ता है…
कोई भी दूधिया भी अपने सामान्य ग्राहक को 45-50 से कम नहीं देता वो भी ढाई सौ ग्राम खोये वाला नहीं, हद से हद सवा दो सौ ग्राम वाला ही…
आखिर क्या विचित्र बात है… पशु पालक उपभोक्ता को 50-55 देगा लेकिन दूधिये को 30-35… और दूधिया भी कलेक्शन सेंटर या हलवाई के यहाँ पर 20-25 या तीस में दे देगा लेकिन घरेलू ग्राहक को वो भी बकरा ही मानता है…
हमारी व्यवस्था में बस ये ही कमी है… किसानों के हिमायती हर समय दलाल और बिचौलियों को कोसते रहेंगे… लेकिन ग्राहक सीधे सीधे किसानों के पास जाये तो 30-35 के 50-55 ही चाहेंगे… और उधर बीच वाला भी बड़े व्यापारी को घाटे में बेच देगा पर अपने डायरेक्ट वाले छोटे ग्राहक को छीले बिना उसको भी चैन नहीं पड़ता…
यदि भैंस पालक अपना लोभ छोड़ ग्राहक के लिए रेट 50-55 की जगह 40-45 ही कर दें और झाग मार कर नाप कर दें तो 2-4 की भैंस संख्या वाले तमाम भैंस पालकों का दूध यूं ही बिक जाये…
और दूधिया भी प्योर दूध को कलेक्शन सेंटर पर कान टेक कर डेरी के मनमाने भावों पर बेचने की बजाय सीधे सीधे हलवाई और ग्राहक को बिना मिलावट के बेचे तो कुछ तो असर उसकी बिक्री पर पड़ेगा ही……
लेकिन नहीं… ना तो भैंस पालक ग्राहक को मंदा देगा, वो दूधिये से ही शोषित होता रहेगा… और ना ही दूधिये ही ग्राहक को प्योर दूध दे पाएंगे…
और प्योर दूध के लिए ग्राहक और डेरी के खरीद मूल्यों के बीच दुगने तक का अन्तर यूं ही चलता रहेगा… यूं ही हड़ताल और सड़कों पर दूध फैलने की सीन दिखते रहेंगे… और यूं ही सब मिल कर सरकारों को कोसते रहेंगे.