25 अप्रेल 2010 की बात है … मैं सुबह सुबह ध्यान करने के बाद बब्बा (ओशो) और एमी (अमृता प्रीतम) के बारे में अपनी डायरी में लिख रही थी –
“मेरे अस्तित्व की डोर सदा इन दोनों के हाथ में रही है और आज भी है… ये दोनों मुझे मिलकर संभाले हुए हैं… क्या मेरा इन दोनों से कुछ विशेष रिश्ता है? या सिर्फ उतना ही जितना अस्तित्व के एक हिस्से का दूसरे हिस्से से होता है… नहीं मैं नहीं मानती… ये रिश्ता कोई साधारण सा रिश्ता होता तो सिर्फ इन्हीं दोनों से क्यों? मुझसे निकलने वाली किरणें इन्हीं दोनों तक क्यों पहुँचती है? क्यों मेरे जीवन के आसमान पर यही दोनों चाँद और सूरज बनकर चमक रहे हैं? क्यों जब भी स्वामी ध्यान विनय मुझे ‘गुड़िया’ कह के पुकारते हैं तो लगता है जैसे कोई सात परतों के भीतर बसे मेरी रूह को पुकार रहा है… क्या ओशो की उस ‘गुडिया’ से मेरा कोई सम्बन्ध है जो पिछले किसी जन्म में ओशो की प्रेमिका रही है? कौन हूँ मैं? कौन हूँ? क्यों मेरा अस्तित्व मेरे लिए खोज का विषय होता जा रहा है?”
और मेरे बार बार यही सवाल पूछते रहने पर जैसे बब्बा भी मुझसे परेशान हो गए और इस राज़ पर से थोड़ा सा पर्दा खिसका दिया लेकिन राज़ पर से पर्दा उठ जाने के बाद राज़ और भी ज़्यादा गहरा गया ….. मेरे हाथ में स्वामी ध्यान विनय ने उसी दिन का यानी 25 अप्रेल 2010 का अखबार (नईदुनिया) पकड़ा दिया….
ऐसा क्या था उस अखबार में कि वो पेपर आज भी मैंने ऐसे संभालकर रखा है जैसे मेरे वजूद की आखिरी निशानी हो…
उसमें बब्बा (ओशो) के बचपन के दोस्त डॉक्टर कैलाश नारद का संस्मरण लिखा था जिसमें उन्होंने उस बात का ज़िक्र किया है… जब बब्बा अपने जेब में हमेशा एक लड़की का फोटो रखे रहते थे जिसका नाम था “शैफाली” ….
यकीन नहीं होता ना?? मुझे भी नहीं होता यदि मुझे उसी दिन वही अखबार नहीं मिलता जिस दिन मैंने डायरी में बब्बा से अपने अस्तित्व की खोज का प्रश्न किया था…
एमी से रिश्ते के रहस्य पर आज भी पर्दा पड़ा हुआ है… मैं नहीं जानती वो क्यों और कैसे मेरी मानस माँ हुई और मैं उनके शब्दों की विरासत की रखवाली करती हुई उसकी मानस पुत्री?
25 अप्रेल 2010 का ‘नईदुनिया’ अखबार में स्व. कैलाश नारद जी का लेख –
समैयाजी यानी राजेन्द्र कुमार जैन, यानी रजनीश चन्द्रमोहन, यानी आचार्य रजनीश यानी भगवान रजनीश और अंत में ओशो… कितनी तो यादें हैं, व्यतीत और विस्मृति के दृश्यपटल पर अचरज और रहस्यमयता के बीच भागती हुई… उनकी सुरमई छाँह गुमनामी के बीहड़ और लावारिस बियाबान में मानो पल भर के लिए ठिठक-सी जाती है..
उस रोज़ रसगुल्लों के दाम चुकाते वक्त रजनीशजी जब अपना बटुआ निकाल रहे थे, मैंने एक तस्वीर उसमें देखी थी. एक कम उम्र लड़की का चित्र था वह, ख़ूबसूरत चेहरा, बड़ी बड़ी भावप्रण आँखें…
मैं सहसा चिंहुक उठा, कहा- सर, इस तस्वीर को तो मैंने एक जगह और देखा है…
रजनीश जी ठिठके, बोले- कहाँ?
चोपड़ा जी के पास….
रजनीशजी ने कुछ याद करने की कोशिश की, उसके बाद कहा- ‘अच्छा तो कालू भी इस तस्वीर को अपने बटुए में रखता है’, फिर वो चुप हो गए.. इसके आगे कोई शब्द नहीं ये उनकी फितरत थी…
कालू यानी इन्दर चोपड़ा, पूरा नाम इन्द्रदेव चोपड़ा, रजनीश से बिलकुल उलट उनका स्वभाव किंचित तेज था. रजनीश का ज़िक्र जब भी आता वो हत्थे से उखड जाते. मुंह में जो भी आता बकने लगते. उनको ऐसा करते देख, लगता था बीती रात को जो दारू उन्होंने पी थी, उसका नशा अब कहीं जाकर गाढ़ा हुआ है.
इन्द्रदेव चोपड़ा प्रतिभाशाली व्यक्ति थे, करोड़पति घर के कुलदीपक. पूना की फिल्म इंस्टिट्यूट से उन्होंने सिनेमेटोग्राफी में विशेषज्ञता हासिल की थी. ऋत्विक घटक और सुभाष घई से वे अपनी दोस्ती का वास्ता दिया करते थे. बीआर चोपड़ा कैंप से निकलकर अंगरेजी के प्रोफ़ेसर अमियकुमार हाजरा जब अपने घर जबलपुर वापस आए तो बाई का बगीचा चोपड़ा जी का ठिया बन गया था..
शहर की उस सबसे पुरानी बसाहट वाले मकान में बैठकर वे दोनों फ़िल्में बनाया करते सिर्फ हवा में. उनकी रसभरी बातें सुनकर मुझे भी कभी कभी ऐसा लगता था कि बस चोपड़ा जी इशारा भर करेंगे और पूना में उनके साथ पढ़ी जया भादुड़ी जबलपुर में ‘छम’ से आकर नाचने लगेगी…
लेकिन मैं जब भी रजनीश का नाम चोपड़ाजी के सामने लेता, उनका चेहरा विकृत हो जाता. दांत किटकिटाकर कहते – “उस राजेन्द्र समैया से मुझे अपना हिसाब चुकता करना है” फिर दूसरे ही क्षण, अपना बटुआ निकाल उसी लड़की की तस्वीर वो देखने लगते जिसकी एक प्रति हमारे गुरुदेव भी खोंसे रहते थे.. तब इन्द्रदेव चोपड़ा की आकृति सौम्य हो जाती. आँखों की कोर में एक दो आंसूं झिलमिलाने लगते.
रजनीशजी से कालू को कौन सा हिसाब चुकता करना है, यह मैं उनसे पूछने का साहस नहीं कर पाता और दोनों के ही बटुए में बंद वो लड़की!!!! बटुए वाली वह लड़की मेरे लिए जैसे कोई पहेली बन गयी थी…
मेरे कौतुक को एक रोज़ ख़त्म किया था हाजरा साहब ने. बोले थे- तुम रजनीश या उस लड़की की बात अगर चोपड़ा जी के सामने दोबारा करोगे तो वे तुम्हें मार बैठेंगे कैलाश.
लेकिन शायद आप उस लड़की को जानते हो – मैंने कहा…. हाजरा साहब एक लम्हा खामोश रहे फिर बोले -“वह शैफाली की तस्वीर है”
“शैफाली!!!”
“शैफाली” गाडरवाड़ा में राजेन्द्र और कालू के साथ पढ़ा करती थी… हाजरा साहब ने बतलाया… उसके पिता वहां डॉक्टर थे, लड़की पढ़ने में तेज़ थी, मौक़ा पड़ने पर उन दोनों सहपाठियों की मदद भी लिखाई पढ़ाई में कर देती थी… कभी राजेन्द्र की तरफ देखकर हंसने लगती तो वक्त ज़रुरत पर कालू की मदद से अपना होमवर्क भी निपटा लेती….
ठीक शरतचंद्र चटोपाध्याय और नीरदा जैसी कहानी…. सन 1894 में देवदास के सर्जक को अपने प्रेम का अहसास करा नीरदा ने भी धूप छाँव का यही खेल खेला था …
“शैफाली” को लेकर, कालू और राजेन्द्र समैया जैसे एक-दूसरे के दुश्मन बन गए कैलाश- हाजरा साहब बोले…
बात यहाँ तक बढ़ी कि राजेन्द्रकुमार समैया यानी तुम्हारे रजनीशजी पास में छुरा तक रखने लगे कि कालू अगर उनकी “शैफाली” से बात करता हुआ दिखे तो उस पर वार कर दें… स्कूल की सोशल गेदरिंग में “शैफाली” और चोपड़ा जी को एक साथ देखकर राजेन्द्र ने छुरा चमका दिया था ….
फिर??????
वह आख़िरी दिन था… हाजरा साहब बोले, इस हादसे से आहत और डरी हुई “शैफाली” को बड़ा धक्का लगा… वह जो बीमार पड़ी तो फिर बाप के घर से उसकी अर्थी ही उठी
चोपड़ाजी आज भी “शैफाली” की मौत के लिए राजेन्द्र को ही दोषी मानते हैं…
रजनीशजी शायद इसीलिए कहते थे – “प्रेम चित्त को मुक्त नहीं करता उलटा उसे बांधता है …
“शैफाली” जो शून्य दे गयी थी, उसी वजह से रजनीश ने अपनी गृहस्थी नहीं बसाई… अकेले वे ही क्यों चोपड़ा जी भी तो अविवाहित मरे … तनहा…..
– यह डॉक्टर कैलाश नारद जी का वही संस्मरण है जो उसी दिन 25 अप्रेल 2010 को नईदुनिया अखबार में प्रकाशित हुआ था, जिस दिन मैंने टूटकर बब्बा(ओशो) से अपने वजूद का पता माँगा था…
राजेन्द्र समैया ने मुझ तक वो अखबार तो पहुंचा दिया लेकिन एक रहस्य से पर्दा उठाने के बाद और कई जिज्ञासाएं मेरे मन में जाग गई…
जैसे क्या कालू (इन्दर चोपड़ा) वही है जिसे मैं इस जन्म में कल्लू नाम से जानती हूँ !!!
क्या कभी उस लड़की का वो फोटो मैं देख पाउंगी…….. कहाँ होगा वो फोटो!!!
और साथ ही गाडरवाड़ा देखने की चाह!!!
और कैलाश जी द्वारा उस “शैफाली” का नाम वैसे ही लिखना जैसे मैं लिखती हूँ!!!
और यदि ये सिर्फ इत्तफाक़ है, तो ये सारे इत्तफाक़ मेरे साथ ही क्यों होते हैं……
– माँ जीवन शैफाली