बच्चे बड़े होते हैं… आज़ादी खोजते हैं. आज़ादी का यह मतलब नहीं है कि माँ-पिता की अथॉरिटी खत्म हो जाती है या जिम्मेदारी कम हो जाती है…
बच्चों से बात करते हुए मैंने समझाने का प्रयास किया… बेटा, मैं और तुम, तुम्हारी बहन और तुम्हारी माँ… हम सब एक यूनिट हैं… और उससे बड़ी एक यूनिट के भाग हैं… इस इंडिविजुअलिस्म (व्यक्तिवाद) ने हमें और तुम्हें स्वतंत्र नहीं किया है… आइसोलेट (अलग-थलग) कर दिया है.
और यह अचानक या अनायास नहीं हुआ है… लोगों को आइसोलेट करके, कमजोर करके उन पर शासन करना आसान हो जाता है. एक प्लान के तहत परिवार से पैरेंटल अथॉरिटी को खत्म करके, लोगों को अकेला करके पूरे देश को अनाथों का देश बना दिया गया है…
बेटे ने पूछा – “वे कौन से लोग हैं? ऐसा करना वे क्यों चाहेंगे? उनका इसमें क्या फायदा है?”
वे कौन लोग हैं? वे दिखाई क्यों नहीं देते? दिखाई नहीं देना उनकी ताकत है. ये वो लोग हैं जिन्होंने 70 साल रूस और पूर्वी यूरोप पर प्रत्यक्ष राज्य किया. ये वो लोग हैं जिन्होंने 70 साल भारत पर अप्रत्यक्ष राज्य किया.
ये वो लोग हैं जो ओबामा को अमेरिका का राष्ट्रपति चुनते हैं… और मोदी या ट्रम्प के चुने जाने पर नाराज़ होते हैं.
अब सोचो, भारत के प्रधानमंत्री या अमेरिका के राष्ट्रपति को चुनने की ताकत कितनी बड़ी ताकत है…
पर अगर तुम्हें सिर्फ ताक़त में फायदा नहीं दिखाई देता तो यूँ सोचो – जो लोग भारत या अमेरिका जैसे देश की अर्थव्यवस्था को कंट्रोल करने की ताकत रखते हैं उसका वे क्या फायदा उठाएंगे?
क्यों भारत के 120 करोड़ मेहनती लोग गरीब हैं… उनकी मेहनत किन्हें अमीर बना रही है? और उनके साथ खड़े लोगों का क्या स्वार्थ होगा? सोचो, बरखा दत्त, सागरिका घोष, रवीश कुमार जैसे लोगों की योग्यता क्या है और उनकी संपत्ति कितनी होगी?
बेटे का जवाब था, “ओह, यह सब बहुत ही कॉम्प्लिकेटेड है… इसकी परवाह मैं क्यों करूँ? मुझे क्यों इसके बारे में जानना या सोचना चाहिए?”
मैंने कहा – तुम्हारा फील्ड कंप्यूटर है. तुम कंप्यूटर के बारे में बहुत जानते हो… मैं कुछ नहीं जानता… फिर भी मैं कंप्यूटर यूज़ तो करता हूँ. तो मुझे कंप्यूटर के बारे में कुछ तो जानना होगा.
यह तो समझना होगा कि हर बार जब मुझे एक पॉप-अप दिखाई देता है कि मैंने एक आई-पैड जीत लिया या मुझे एक मिलियन डॉलर की लाटरी निकली है तो मुझे उन्हें अपना एकाउंट नंबर और बैंक डिटेल नहीं भेजना है…
तो वैसे ही बहुत से विचार और आईडिया निकल कर आते हैं जो लिबरल और प्रोग्रेसिव सुनाई दिखाई देते हैं, पर वे स्पैम होते हैं… उन्हें तो पहचानना होगा… और इससे तो फर्क पड़ता है ना कि हम अपना प्रधानमंत्री मोदी को चुनते हैं या राहुल गाँधी को…
और यह दुनिया एक चेसबोर्ड है… अब हमें सोचना है कि हमें इसके मोहरे बनना है, या उन्हें चलाने वाले हाथ… और अगर मोहरे भी बनना है तो भी इस खेल को समझें… चुन सकें कि प्यादा बनना है या वज़ीर… क्योंकि प्यादे सबसे पहले कटते हैं.