सामंत नांदौल में ही था जब कल सायंकालीन सूचना, अजमेर से उसके पास पहुंची, कि ग़जनी का सुल्तान, महाराज धर्मगजदेव से युद्ध में बुरी तरह पराजित हुआ है. उसको संधि प्रस्ताव भेजना पड़ा, अपमानित होना पड़ा, और घायल भी हुआ. यह समाचार सुनकर सामंत के आश्चर्य की सीमा न रही. वो प्रसन्न भी था, लेकिन युद्ध नियमों के तहत महाराज द्वारा सुल्तान को जीवित छोड़ देने से दुःखी भी था.
और आज, दिन के एक प्रहर बीतते बीतते, महाराज द्वारा भेजी गई प्रेतसेना की टुकड़ी ने सामंत को अजमेर के पतन-पराभव का वृतांत सुनाया, तो सामंत को बुरी तरह झटका लगा, वह सहज नहीं रह सका. सोढल के विश्वासघात से उसका क्रोध अपने चरम पर पहुँच गया. कसमसा कर उसने अपने राजपुरोहित नंदीदत्त की ओर देखा.
राजपुरोहित जी अपनी श्वेत धवल जटा को बांधते हुए अपनी ओजपूर्ण वाणी में कह उठे, “आपातकाले मर्यादा नास्ति. महाराज ने उस मलेच्छ को जीवित छोड़ कर अच्छा नहीं किया, अब जाने यह भारत भूमि का विनाश कहाँ रुकेगा. सामंत तू अब अपनी आगे की रणनीति पर पुनः विचार तथा यथाशीघ्र अनुपालन कर. अब समय नहीं बचा है पुत्र.”
अब तक सामंत के जबड़े भिंच चुके थे, उसके गालों की हड्डियां बाहर झलकने लगीं, उसकी आंखें रक्तिम हो उठीं. उसने अपनी दोनों मुट्ठियाँ भींच कर, आसमान की ओर लहराकर कहा, “आ सुल्तान आ…, लगता है महादेव ने लिख रखा है कि तेरा सर्वनाश मेरे ही हाथों हो.”
इधर कल तक सामंत, नान्दौल के राजा अनहिल्ल राय को यही समझाने की कोशिश कर रहा था कि अपनी सारी सेना लेकर पाटन पहुंचे और राजा भीमदेव की सेना के साथ मिलकर सोमनाथ की सुरक्षा में महती योगदान दे. अनहिल्ल राय था तो वीर, लेकिन वो थोड़ी भीरु प्रवृत्ति दिखा रहा था. वो इस पर उतारू था कि वो क्यों न महमूद को रास्ता देकर अपनी और अपने राज्य की सुरक्षा कर ले.
नान्दौल इस समय गुजरात, मारवाड़ और राजपुताना के त्रिकोण पर स्थित, व्यापार में एक समृद्ध नगर बन चुका था. यहाँ के व्यापारी दूर दूर तक यश, धन, समृद्धि आदि पर्याप्त अर्जित कर रहे थे. यद्यपि कुछ वर्ष पूर्व तक नान्दौल गुजरात के राज्य के अंतर्गत ही आता था, परन्तु गुजरात के राजपरिवार में, शासन की बागडोर सँभालने की चलती उठा पठक को देखते हुए, अनहिल्ल राय ने नान्दौल को स्वतंत्र घोषित करते हुए कर इत्यादि देना बंद कर दिया था.
उसको यह ध्यान भी था निकट भविष्य में उसको गुजरात की सेना से युद्ध भी करना पड़ सकता है. मारवाड़ तो नान्दौल को अपने अधीन करने के लिए, कबसे घात लगाये बैठा ही था. यह सब देखते हुए उसने अपनी सेना बढ़ानी शुरू कर दी. धन की कोई कमी न होने से, सुदूर राज्यों से ताकतवर घोड़े, हथियार इत्यादि मंगवाना शुरू कर दिया था. लेकिन फिर भी अभी इस योग्य नहीं हो पाया था कि किसी भी छोटे मोटे राज्य की सेना से भी युद्ध कर सके. और यहाँ तो महमूद की सागर जैसी विशाल सेना को रोकने की बात थी, इसलिए वह संकोच कर रहा था.
कल रात्रि में गुप्तचरों ने सूचना दी थी कि सुल्तान को अजमेर से हार मिली, तो सभी लोग थोड़े शिथिल हो गए थे. परन्तु पुनः प्रातः जब अजमेर के अतिदुर्भाग्यशाली पतन की खबर मिली, तो सामंत ने समय व्यर्थ किये बिना, अनहिल्ल राय के साथ संक्षिप्त बैठक की, और कहा, “महाराज, आपके ये थोड़े से सैनिक महमूद का मुकाबला नहीं कर सकते. और अगर किये भी तो निश्चित ही हमारा ही विनाश होगा. इसलिए मैंने योजना में थोड़ा परिवर्तन किया है. आप युद्ध नहीं करना चाहते तो न कीजिये. आप पूरे किले की जनता को लेकर ऊपर दुर्गम पहाड़ों में तुरंत ही छिप कर बैठ जाइए. अपने साथ जितना सारा अन्न, धन ले जा सकें वो भी लेते जाइये. महमूद के हाथ एक चिड़िया तक न आये. परन्तु आपकी सेना में जितने भी चपल और साहसी घुड़सवार हों, वो मेरे अधीन कीजिये, तथा आसपास के पहाड़ियों में निवास करने वाले बर्बर मेर, कोल, मीणा, भील इत्यादि जातियों के सरदारों को तुरंत सूचित करवाइए कि घोघराणा ने अत्यंत ही महत्वपूर्ण और पवित्र कार्य के लिए, बाबा सोमनाथ के कार्य के लिए बुलाया है”.
नंदीदत्त ने पूछा, “पुत्र तेरी योजना क्या है?”
सामंत ने हाथ जोड़ कर कहा, “बाबा, अभी योजना से मैं स्वयं पूर्ण रूपेण संतुष्ट नहीं हूं. जैसे ही हुआ, आपसे तुरंत चर्चा करूँगा.” ये कह कर सामंत, राजा द्वारा दिये हुए सैनिकों की छंटनी कर उनका भलीभाँति परीक्षण किया. कुल डेढ़ सौ दुर्धष योद्धाओं को लेकर उसने पुनः अपनी प्रेतसेना तैयार की.
सामंत ने समस्त घुड़सवारों को एक स्थान पर एकत्रित कर, कहना शुरू किया, “मित्रों, आप सबको ‘साका’ के लिए चुना गया है, यह भलीभांति प्रति क्षण याद रहे. आज से हम सब प्रेत हैं, हमारी मृत्यु हो चुकी है. अब सिवाए प्रेत के हमारी कोई अलग पहचान नहीं होगी. इसी क्षण से हमारी समस्त भावनाएं मृत जानी चाहिये, अब हम केवल महादेव के गण हैं. जिसे अपने परिवारों की चिंता हो, मोह हो वो अभी भी वापस जा सकता है, और जिस जिसको ‘साका’ स्वीकार है, वो एक कदम आगे बढ़ कर अपना पिंडदान स्वयं कर सकता है… हर हर महादेव”.
हर टुकड़ी का प्रत्येक सैनिक एक के बजाए दो कदम आगे बढ़ आया, और फिर समस्त नगर “हर हर महादेव” के नारे से गूंज उठा.
सामंत ने यह देखकर, आगे कहना प्रारंभ किया, “मित्रों, वैसे तो मिली सूचना के अनुसार अभी महमूद घायल है, और भयभीत भी. उसकी सेना की दशा भी अभी ठीक नहीं है. तो मेरे विचार से वो अभी कुछ दिन तक तो, तुरंत अजमेर से कूच नहीं कर सकता. परन्तु उसको सोमनाथ पहुँचने की शीघ्रता भी है, इसलिए हमारे पास समय कम है. आप सबमें से सभी लोग दस दस की टुकड़ी में बंट जाइये और यहाँ से महमूद के रास्ते में पड़ने वाले सारे के सारे गावों में, तीव्र गति से सूचना पहुंचा दीजिये कि महमूद गजनवी शीघ्र ही पहुँच जाएगा यहाँ. इसलिए अपने सारे पशु, धन, खाद्य सामग्री इत्यादि लेकर यथाशीघ्र अपना अपना स्थान छोड़ दें.”
सामंत एक क्षण ठहरा और पुनः बोला, “उसके बाद सबसे महत्वपूर्ण कार्य आरम्भ करना होगा. महमूद की सेना की राह में जितने भी तालाब पड़ते हों, उनमें जंगली जानवरों के शव डाल दो. राह के सारे पुल तोड़ डालो. फलदार वृक्षों के पेड़ों को आग लगा दो, खेत में खड़ी फसलों को भी आग के हवाले कर दो. परन्तु महमूद की सेना और उसके गुप्तचरों से उचित दूरी बनी रहे. और मैं अभी आगे का रास्ता अवलोकन करने जा रहा हूँ, आप लोग सारे कार्य निबटा कर, नान्दौल की पश्चिमी सीमा की पहाड़ी पर स्थित महादेवी मंदिर के प्रांगण में, मुझसे रात्रि के दूसरे प्रहर में मिलें. आगे की योजना पर वहीँ विचार किया जाएगा. और इधर उधर बिखरे जितने भी मेर, मीणा, कोल, भील इत्यादि पहाड़ी गांवों से, जितने दुर्धष योद्धा जिधर से भी मिलें, अगर वो महादेव के कार्य में युद्ध में भाग लेना चाहें, उनको भी साथ ले आयें.”
महमूद ने तीन दिन रुककर स्वास्थ्य लाभ लिया, और उसी की आज्ञानुसार उसके सिपहसालार तथा गुप्तचर आसपास के गांवों में घूम घूमकर लालची हिन्दुओं को धन से खरीद कर सेना की संख्या बढ़ा रहे थे. धूर्त सूफी शाह मदार ने वर्षों से इस कार्य में लगकर ऐसे लोगों को चिह्नित और सूचित कर ही रखा था, जिससे महमूद की सेना पुनः पूर्ववत विशाल और शक्तिशाली हो गई. तीन दिन के आराम से हाथी घोड़े, सैनिक भी स्वस्थ हो गए. बढती संख्या देखकर सेना का मनोबल भी बढ़ गया.
अब चौथे दिन, महमूद ने सेना को कूच करने का आदेश दिया. अब यहाँ से धीरे धीरे अत्यंत हरियाली वाला क्षेत्र देख कर महमूद का हृदय प्रसन्न हो गया. इधर उधर घूमते वन जीव, स्वच्छ जल से भरे तालाब, फलों से लदे वृक्ष और खेतों में खड़ी लहलहाती फसलें देख देख कर यवन सेना का हृदय हर्षित होता रहा.
लेकिन थोड़ा आगे बढ़ते ही महमूद की आँखें संदेह से सिकुड़ गईं. अब धीरे धीरे उसको जानवर, पशु, पक्षी कम होते दिखने लगे. कुछ देर पश्चात् तो उसके आश्चर्य का पारावार न रहा, जब उसने देखा कि फलदार वृक्ष खड़े खड़े जल गए हैं, खेतों में खड़ी फसलें भी जली हुई मिलने लगीं. इतना हरा भरा क्षेत्र होते हुए भी, पूरा निर्जन दिख रहा था. इंसान तो एक भी नहीं दिखा, अब जानवर भी दिखने बंद हो गए. जब तक सेना नान्दौल पहुंची, वहां एक चिड़िया भी नहीं दिखाई दी.
महमूद यह सब देखकर बहुत चिंतित हुआ, उसने अपने गुप्तचरों को हिन्दुओं के भेष में चारों ओर पता लगाने भेजा. अपने सेनापति और मुख्य सिपहसालार मसूद को दुभाषिये नाई को, सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ नान्दौल के किले में भी संधि प्रस्ताव के साथ भेजा.
मसूद जैसे ही किले में पहुंचा, दंग रह गया. एकदम निर्जन किला, एक कुत्ता भी घूमता नहीं दिखा उसको. ऐसा लग रहा था, जैसे अचानक जादू से यहाँ से हर जीवित वस्तु को गायब कर दिया गया हो.
नाई ने कहा, ‘हुजुर, साफ़ ऐसा लग रहा है, कि जैसे कल तक लोग यहाँ रहते रहे हैं पर रात के रात में ही अचानक से गायब हो गए हैं.“ मसूद पहले से ही चिंतामग्न था. फिर उसने चिढ़ कर पूरे नगर को आग लगाने का आदेश दे दिया. सारा नगर धू धू कर जलता छोड़ कर मसूद पीछे छावनी में लौटा.
कुछ ही घड़ी में महमूद के गुप्तचरों ने हर दिशा से आ आकर जो सूचना दी, उसको सुनकर महमूद और उसके साथ बैठे दूसरे सिपहसालारों के होश उड़ गए.
गुप्तचरों ने बताया कि, “इधर उधर जंगलों में इक्का दुक्का साधारण लोग छिपे हुए हैं, जो ज्यादातर किसान हैं. उन्होंने बताया कि तीन चार दिनों से यहाँ घोघाबापा के प्रेत का साया है. वो हर चीज नष्ट कर देता है. बहुत ही क्रूर प्रेत है, और उसके पास सैकड़ों प्रेतों की सेना है. वो इंसानों, पशुओं इत्यादि को मार कर खा जाता है. खेतों को कुछ ही क्षणों में जला देता है. देखते ही देखते हरे भरे पेड़ धू धू कर जलने लगते हैं. लेकिन आग लगाने वाला कोई दिखाई नहीं देता है. वो और उसकी सेना कभी दिखती है, तो कभी पलक झपकते ही अदृश्य हो जाती है. जिन जिन लोगों ने उसको देख भी लिया, वो तड़प तड़प कर मर गया. कोई नहीं जानता कि वो कैसे दिखते हैं, बस काली परछाइयों से लगते हैं. उसने प्रतिज्ञा की हुई है कि जब तक सारी यवन सेना को इसी भारत भूमि पर भस्म नहीं कर देगा, तब तक किसी को चैन से बैठने नहीं देगा. उसी के डर से सब लोग गाँव नगर छोड़ छोड़ कर चले गए हैं.”
यह सुनते ही महमूद समेत सभी दरबारियों की हालत यह हो गई कि काटो तो खून नहीं. भय के मारे सबके चेहरे फक्क पड़ गए. सबको रेगिस्तान का कालभैरव ‘सज्जन चौहान’ याद आ गया. लोगों के कलेजे फटने लगे. सभी को अजमेर के युद्ध में भी अचानक दिखती और यवनों को काट कर उड़ जाती वो ‘रहस्यमय परछाईयां’ भी याद आने लगीं. हाँ, केवल युद्ध के आखिरी दिन वो परछाईयां नहीं दिख रही थीं.
मसूद, नान्दौल के किले को जलाने का आदेश देकर छावनी में वापस आ पहुंचा था, और गुप्तचरों के पीछे ही खड़ा था, जब उसने ‘घोघाबापा का प्रेत’ का नाम सुना. उसके चेहरे से हवाइयां उड़ने लगीं. सब लोग जड़ हो चुके थे, सबका दिमाग ठस्स हो चुका था.
इसी ठस्सपने में सबसे पहले मसूद ही चीख कर बोला, “जहाँपनाह, अभी कुछ हजार इंसानी हिन्दुओं ने हमारी इतनी बड़ी सेना का ये हाल किया है, अब प्रेतों से कैसे लड़ें? वो एक अकेले सज्जन चौहान ने हमारी सेना को किसी जिन्न की तरह ही तबाह किया. अजमेर में हमें अपनी जान बचाने को लाले पड़ गए थे, जिन्दगी की सबसे बड़ी अपमानजनक संधि करनी पड़ी.”
फिर वो ऊपर हाथ खोल कर खड़ा करते हुए कहने लगा, “या अल्लाह! या मेरे मालिक! रहम कर अपने नेक बन्दों पर!” और फिर वो वहीँ जमीन पर बैठ कर सजदा करने लगा.
यह दृश्य देखकर सभी दरबारी कांपते हुए सजदा करने लगे. कुछ समय पश्चात्, प्रत्येक बार की तरह, सर्वप्रथम महमूद चैतन्य हुआ, और अपना गला खंखार कर बोला, “ऐ अल्लाह के नेक बन्दों, सुनो! प्रेत, भूत पिशाच कुछ नहीं होते. ये सब काफिर मूर्तिपूजकों द्वारा फैलाये हुए भ्रम हैं. कोई मत डरो, हम अल्लाह के नेक काम के लिए चुने हुए लोग हैं. अल्लाह जरुर हमारी मदद करेगा, जैसा हर बार करता आया है. इसलिए कोई फ़िक्र न करो.”
मसूद चीख कर बोला, “कैसे फ़िक्र न करें हुज़ूर?? जब फ़रिश्ते हो सकते हैं, जिन्नात हो सकते हैं दुनिया में, तो प्रेत क्यों नहीं हो सकते??”
सभी दरबारियों के साथ महमूद भी पुनः जड़वत हो गया यह सुनकर. लेकिन पुनः अपने हृदय को अपने नियंत्रण में करते हुए कहा, “लगता है कि कोई जिन्नात ही हमारे किसी काम से नाराज होकर हमारे पीछे पड़ गया है. आज ही रात यहाँ से कूच करके आगे बढ़ो, हम सब अल्लाह से दुआ करेंगे कि वो इस जिन्नात पर काबू करें, जिसको यहाँ के लोग ‘घोघाबापा का प्रेत’ कह रहे हैं.
(सामंत ने अपने हर सैनिक को यह कह रखा था कि, “किसी भी गाँव में, जो भी कोई मिले, उनको ‘घोघाबापा के प्रेत’ और उसकी सेना के बारे में बढ़ चढ़ कर दुष्प्रचार, अफवाह सुनाते चलो. शत्रु का मनोबल तोड़ते रहना, किसी भी चतुर योद्धा का प्रथम कार्य होना चाहिए.“)
अब चाहे घोघाबापा के प्रेत का डर कह लें, या सोमनाथ पट्टन पहुँचने की जल्दी, यवन सेना नान्दौल नगर को जला देने के बाद तुरंत नान्दौल को पार करके, सामने के बीहड़ वन में घुस गई.
रात्रि के एक प्रहर बीतने के उपरांत, सामंत महादेवी मंदिर के प्रांगण में स्थित चबूतरे पर, अपने दोनों हाथ पीछे कमर पर बांधे हुए, इधर से उधर घूम रहा था. उसकी आँखें चमक रही थीं, जैसे उसको कोई मनोवांछित चीज मिल गई हो. धीरे धीरे प्रेतसेना इकट्ठी हुई जा रही थी. महा ने कहा, “सामंत, यहाँ से पहले के तीन तालाब और आसपास के खेत हमारी टुकड़ी नष्ट नहीं कर पाई. समय कम पड़ गया.“
सामंत ने कहा, “कोई बात नहीं महा, अभी पूरा एक दिवस है हमारे पास. इस बैठक के बाद समय ही समय होगा हमारे पास.”
थोड़ी देर में सारे लोग इकठ्ठा हो गए. कोल, भील, मेर और मीणा इत्यादि लगभग पांच सौ पहाड़ी दुर्धष योद्धाओं से वो प्रांगण भर गया. सारे के सारे लोग अपने हथियार, धनुष, भाले और बर्छियां इत्यादि लेकर आये थे.
सबके उपस्थित हो जाने के बाद सामंत ने थोड़ी देर एक संक्षिप्त ओजपूर्ण भाषण के द्वारा अपनी गुप्त योजना उन सबको समझाई, और सबको काम पर लग जाने को बोल दिया. सभी वीरों ने राजगुरु नंदीदत्त के पैर छुए, और बदले में “जय हो, जय ही हो” की शुभकामनाएं पाईं.
यवन सेना, घोघाबापा के प्रेत से पीछा छुड़ाने की शीघ्रता में उस बीहड़ वन में घुस तो गई, लेकिन जल्दी ही उनको अपनी गलती का एहसास हो गया. वन अत्यंत जटिल और घना था, जिसमें घुस कर सेना की गति मंद पड़ गई. इतनी बड़ी सेना को उस घने वन में संभाल पाना भी एक समस्या ही थी, जिससे पार पाना महमूद के लिए भी संभव नहीं था. सूर्यास्त हो रहा था, थोड़ी देर में और अँधेरा हो जाता, अतः उसने थोडा ही अन्दर घुसते ही कोई समुचित जगह देख कर सेना को रुकने का आदेश दे दिया.
थोड़ी देर में वो एक थोड़ी समतल, खुली जगह ढूंढ ली गई. यह दो तीन कोस में फैला हुआ छोटी झाड़ियों वाला हिस्सा था. स्वच्छ, खुली जगहों पर महमूद, और उसके अन्य निकटतम लोगों के डेरे लग गए, बाकि सारे सैनिक इधर उधर फैल कर, पेंड़ों के नीचे अपने अपने खेमे डाल कर, जल्द ही सोने का उपक्रम करने लगे. सेना थकी हुई थी, शीघ्र ही नींद भी आ गई सबको.
रात्रि के दूसरे प्रहर के आरम्भ में ही, जबकि सारी सेना सो रही थी, पहरेदारों को लगा कि अचानक सुबह हो रही है. चारों तरफ से हलकी हलकी रौशनी बढ़ने लगी उस घने वन के अन्धकार में. थोड़ी देर तक तो पहरेदार ही कुछ नहीं समझे. फिर जैसे जैसे उजाला निकट आया, अचानक कोई चीखा, “भागो यहाँ से, वन में आग लग गई है.“ लेकिन जबतक सेना जागती, संभलती तब तक, एक प्रहर में ही सेना को चारों तरफ से आग ने घेर लिया. आग धीरे धीरे ऐसे समीप आती दिख रही थी गोल घेरे में, जैसे कोई विशालकाय अजगर अपने शिकार को कसने के लिए, अपने घेरे को छोटा करने लगता है.
प्रत्येक व्यक्ति इस आग को देखकर भयभीत हो कर कांपने लगा. अभी यह स्थिति शुरू ही हुई थी, कि रीढ़ को कंपा देने वाली एक भयानक हँसी गूँज गई सम्पूर्ण वन में. हँसी इतनी खतरनाक थी, कि जैसे कब्र में से उठ कर कोई मुर्दा अट्टहास कर रहा हो, बिलकुल खूनी, कर्कश और पैशाचिक हँसी. धीरे धीरे उस हँसी में तीव्रता बढ़ने लगी, मानो सैकड़ों प्रेत मिल कर चारों ओर से भयानक हँसी से वन में प्रेतलीला करते हुए हँस रहे हों.
मारे भय से सबके शरीरों ने स्वेद (पसीना) उगलना आरम्भ कर दिया. इस परिस्थिति में कोई भी सूरमा भय के मारे पागल हो जाता, वे तो सब फिर भी अन्य देश से आये हुए भाड़े के टट्टू थे, जो लूटमार की लालच में सेना बन गए थे. यदि योद्धा थे भी तो, यहाँ लड़ें किससे? कोई सामने था तो बस ये दहकता दावानल और गूंजती दानवी हँसी. मारे डर के कितने अचेत हो गए, बहुतों के हृदय फट गए.
यह समाचार आग की भांति सम्पूर्ण सेना में फैल गया कि “प्रेतसेना आज हमें जलाकर मार डालेगी. ये घोघाबापा का प्रेत आज हमें जलाकर अपना बदला पूरा करेगा.”
सेना में भगदड़ मच गई. हाथी मतवाले हो उठे इस भयानक हँसी और चारों ओर दहकते दावानल को देखकर. वो अपनी ही सेना को कुचलते हुए इधर से उधर दौड़ने लगे. घोड़े उतावले होकर अपनी टापों से सैनिकों का संहार करने लगे. जिसको जो दिशा दिख रही थी, वो उसी दिशा में भाग रहा था. लेकिन जाए तो जाए किधर?
आग तो सम्पूर्ण दिशा से बढती हुई आ रही थी. बड़े बड़े वृक्ष अर्राकर गिरने लगे तथा हरे हरे पेड़ उस आग में चट-चट करके, चिटक कर ऐसे फट रहे थे, जैसे चिता की लकड़ियाँ फटती हैं. चारों तरफ दम घोंट देने वाला धुआं आसमान तक छा गया. बहती पहाड़ी हवा तो मानो घी का ही काम कर रही थी.
सेना में कोई व्यवस्था ही न बची. हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था. हर किसी को सिर्फ अपनी जान की ही चिंता सता रही थी. सारा समूह ही बस चीख पुकार करते हुए भाग रहा था. अनगिनत लोग हाथियों से कुचल कर मरने लगे, सैकड़ों घोड़ों की टापों के नीचे आकर दम तोड़ने लगे. कोई इनसे बचे तो उसके ऊपर जलता हुआ पेड़ गिर जा रहा था. सेना का सारा सामान ही जलकर ख़ाक होने लगा.
महमूद यह सब देखकर अपने इष्ट को पुकारते हुए, सजदे में बैठने लग गया, लेकिन भय के मारे वो भी जमीन पर गिर कर मूर्छित हो गया. वो अजमेर के युद्ध से घायल और कमजोर पहले से ही था. इतने में किसी गुप्तचर ने बताया कि पश्चिम दिशा में आग थोड़ी कमजोर है, थोड़े साहस के साथ वहां से निकला जा सकता है.
महमूद के जाबांज हब्शी अंगरक्षकों ने महमूद को गीले कम्बल में लपेट कर उठाया और उसी दिशा में ले भागे. सिपहसालार रास्ते बनाने लगे.
भारत का यह दुर्भाग्य ही रहा, कि महमूद यहाँ से भी जीवित बच निकला. महमूद का हृदय जितनी बार मूर्छा तोड़ कर चैतन्य होता, उसको प्रेत की भयानक हँसी पुनः याद आ जाती थी, और वो पुनः पुनः मूर्छित होता रहा. उसके अंगरक्षक उसको पालकी में लाद कर भागे ही चले जा रहे थे. पीछे बची खुची सेना ने भी उसी रास्ते का अनुसरण किया, और अपनी जान बचाकर गिरती पड़ती भागी, जैसे बाम्बी में से सांप निकलता हो तेजी से.
सेना का सारा सामान जल गया, बस जो कुछ हाथ में आ सका, वही बचा. महमूद के शाही खजाने को भी अत्यधिक क्षति पहुंची, पर कुछ बचा लिए गए. कोई भी सैनिक, कहीं न कहीं जले बिना नहीं बचा. किसी के कपड़े जल गए, तो किसी हाथ. किसी के पैर जल गए तो किसी दाढ़ी बाल झुलस गए. घोड़ों की पूंछ जल गई, हाथियों की सूंड, तो ऊँटों के नरम गद्देदार तलवे झुलस गए. सारी यवन सेना रोती, दहाड़े मारती, खांसती, कराहती, भागती हुई निकली वहां से.
क्रमशः…