‘बेल इन’ – सच झूठ – सही गलत – दुष्प्रचार

जब तक रुपया हमारी जेब में रहता है, हमारी तिजोरी पर्स में रहता है. वो हमारा होता है, हम उसके मालिक होते हैं. लेकिन जब यही पैसा हम बैंक में जमा करते हैं तो हम बैंक की बुक्स में एक सनड्राई क्रेडिटर हो जाते हैं. एक अनसिक्योर्ड क्रेडिटर. एक नाम.

सिक्योर्ड क्रेडिटर होते हैं अन्य बैंक, सरकार. अगर एक बैंक दिवालिया होता है तो बैंक जो पैसा बचा होता है, उस पर पहला हक़ सिक्योर्ड क्रेडिटर्स का होता है. उनका पैसा चुकाने के बाद जो बचा खुचा होता है वो अनसिक्योर्ड क्रेडिटर्स यानी डिपॉजिटर्स यानी की आम आदमी को मिलता है.

सन 1958 में दो बड़े बैंक फेल हुए. उनमे से एक अवध कमर्शियल बैंक था. आम जनता को बड़ा नुकसान हुआ. नेहरू सरकार ने 1961 में एक कानून बनाया जिसमें आम जनता के जमा पैसे को सुरक्षित करने के लिए इंश्योरेंस का प्रावधान किया गया.

लेकिन ये इंश्योरेंस केवल 5000 रूपए का था. भले बैंक करोड़ों रूपये जमा होते, लेकिन दिवालिया बैंक घोषित होने के बाद आपको केवल 5000 मिलते. ये राशि 1993 तक चार बार बढ़ा कर 30000 रूपये की गयी.

सन 1992 में भारत में हर्षद मेहता ने शेयर घोटाला किया. और उस घोटाले की चपेट में आम आदमी ही नहीं बहुत से बैंक भी आये.

उनमें से एक बैंक, बैंक ऑफ़ कराड दिवालिया घोषित हो गया. उसके डिपाजिटर्स को मात्र 30-30 हजार मिले, जमा लाखों में थे. बहुत हल्ला मचा. एक और बैंक मेट्रोपोलिटन को-ऑपरेटिव बैंक. वो दिवालिया तो नहीं हुआ. लेकिन उसके डिपाजिटर्स रोज सवेरे सवेरे लाइन में लगते थे, उनको बैंक ने 500-500 रूपए करके भुगतान किया.

इसके बाद नरसिम्हा राव सरकार ने डिपॉजिट रकम के इंश्योरेंस की राशि को बढाकर एक लाख किया.

यानी आज अगर कोई बैंक डूबता है, तो उसके जमाकर्ताओं को मात्र एक लाख रूपये वापस मिलेंगे, भले आपकी FD करोड़ों रूपये में हो. रिटायरमेंट के बाद मिले लाखों रूपये आपने बैंक में जमा किये हों, उधार लेकर बीस लाख रूपये आपने बेटी की शादी करने के लिए बैंक में जमा किये हों. आपको मिलेंगे मात्र एक लाख.

ये अभी का कानून है, प्रिय कांग्रेस पार्टी द्वारा बनाया हुआ, जो आज ‘बेल इन’ प्रावधान पर सरकार को घेर रही है.

आज़ादी के बाद से बहुत बैंक फेल हुए हैं. इनमें से अधिकतर बेहद छोटे निजी बैंक या को-ऑपरेटिव बैंक रहे हैं. इन्हे मेनिप्यूलेट करना हमेशा आसान रहा है. बैंक डायरेक्टर्स के मित्रों ने मैनीप्युलेट किया कभी राजनीतिज्ञों ने किया.

1963 में डालमिया जैन ग्रुप ऑफ़ कम्पनीज़ ने दिखाया कैसे मित्र बैंको को मैनिपुलेट कर लेते हैं. हर्षद मेहता का स्कैम भी हमने देखा. और राजनीतिज्ञों द्वारा दबाव डालकर अपनी चहेती कंपनियों को लोन दिलवाने मामलो में उदाहरण देने की ज़रूरत ही नहीं.

ऐसे अधिकतर मामलों में बैंक का पैसा डूबता है. और छोटे बैंक दिवालिया होने लगते हैं. फिलहाल सरकार के पास कोई खास नीति नहीं है कंपनियों और बैंकों को दिवालिया घोषित करने के लिए.

पता नहीं किसी को आश्चर्य होता है कि नहीं, लेकिन आज़ादी के 70 साल बाद भी कोई कंपनी दिवालिया होना चाहे, या बैंक, इंश्योरेंस कंपनी कोई स्टॉक एक्सचेंज अपने को दिवालिया घोषित करना चाहे या रेगुलेटर किसी कंपनी, बैंक को दिवालिया घोषित करना चाहे तो उसका प्रॉपर फ्रेमवर्क नहीं है.

मोदी सरकार ने कुछ ही महीने पहले कंपनियों के लिए इन्सॉल्वेंसी एन्ड बैंक्रप्ट्सी कानून बनाया.

अब बैंकों को मालूम है कि कोई कंपनी लोन लेकर डूब गयी तो उन्हें क्या करना है. कैसे कंपनी लिक्विडेट होगी. कैसे उसके एसेट बेचे जायेंगे या उसका मालिकाना हक़ बदल कर अपनी राशि वापस वसूलेंगे.

मोदी सरकार ने कंपनियों के बाद फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन के लिए ऐसा ही कानून प्रस्तावित किया है. FRDI 2017. बैंकों, इंश्योरेंस, स्टॉक एक्सचेंज, नॉन बैंकिंग फाइनेंशियल कंपनियों के लिए दिवालिया कानून.

इसके अन्तर्गत एक कार्पोरेशन का गठन किया जायेगा. जो लगातार फाइनेंशियल कम्पनीज़ की सेहत मॉनिटर करेगा. क्रिटिकल स्टेज में पहुंचे बैंक, इंश्योरेंस कंपनियों को टेकओवर करेगा. और अधिकतम दो साल में या तो उन्हें रिवाइव करेगा या लिक्विडेट कर देगा.

रिवाइवल के लिए ये कार्पोरेशन बैंक के मैनेजमेंट को टेकओवर कर सकता है, एक नयी ब्रिज कंपनी बनाकर बैंक को उस नयी कंपनी के हवाले कर सकता है.

ये रिज़ोल्यूशन कार्पोरेशन क्रिटिकल बैंक को किसी मजबूत स्थिति वाले बैंक में मर्ज कर सकता है. किसी दूसरे बैंक को बीमार बैंक को एक्वायर करने को कह सकता है. या फिर ‘बेल इन’ के लिए केंद्रीय सरकार को कह सकता है.

सामान्यतः सरकारें बेल आउट करती हैं, जैसे अभी सरकार ने दो लाख करोड़ का बेल आउट पैकेज घोषित किया.

लेकिन ‘बेल इन’ इसका उल्टा है. अब बीमार बैंक को बचाने के लिए सरकार टैक्स पेयर मनी का इस्तेमाल नहीं करती बल्कि बैंक को अपने पैरों पर वापस खड़ा करने के लिए उसके क्रेडिटर्स के पैसो का इस्तेमाल होता है.

डिपाज़िटर्स की जमा राशि को बैंक के शेयर्स में बदला जा सकता है. लॉन्ग टर्म फिक्स्ड डिपॉजिट में बदला जा सकता है.

जैसे एक शेयर होल्डर, कंपनी या बैंक के लॉस में हिस्सेदार होता है, वैसे ही एक डिपोज़िटर बैंक के लॉस में हिस्सेदार हो जाता है.

‘बेल इन’ के ऊपर दुनिया भर में चर्चा चल रही है. जहाँ पिछले साल सायप्रस में ‘बेल इन’ फेल रहा और डिपॉज़िटर्स को अपनी आधी राशि का नुकसान उठाना पड़ा. वहीँ डेनमार्क ने दिखाया कि कैसे सिस्टमेटिक तरीके से ‘बेल इन’ के द्वारा बैंकों को उबारा जा सकता है.

ये भी सत्य है कि ‘बेल इन’ अब तक का सबसे कम टेस्टेड उपाय है. एकदम नया है और आधी दुनिया इसे लागू करना चाहती है इसके प्रावधानों पर चर्चा करना चाहती है. भारत भी इनमें अब शामिल है.

‘बेल इन’ अंतिम ऑप्शन होता है. सरकार का ड्राफ्ट बिल साफ़ कहता है कि अन्य सभी उपायों के फेल होने के बाद ही ये विकल्प आजमाया जायेगा. और केवल उन बैंक के लिए जिनके बारे में कहा जाता है कि इन्हे फेल होने नहीं दिया जा सकता. ‘Too big to fail’.

और ‘बेल इन’ के लिए कार्पोरेशन सरकार को अप्लाई करेगा. अपनी एप्लिकेशन में बताएगा ‘बेल इन’ की जरूरत क्यों पड़ी, और कोई विकल्प क्यों नहीं है. सरकार ये रिपोर्ट संसद के दोनों सदन रखेगी, तब ‘बेल इन’ लागू होगा.

और ‘बेल इन’ का अर्थ ये भी नहीं की हर डिपॉजिटर, छोटे बड़े, का पैसा ‘बेल इन’ में फंसेगा.

सरकार छोटे डिपॉजिटर्स को इससे बाहर रखेगी, इसके अलावा एक निश्चित रकम का इंश्योरेंस होगा जिसकी सीमा एक लाख से बहुत ऊपर होगी.

तमाम सेफगार्ड्स के बाद अंतिम विकल्प के रूप में ‘बेल इन’ लागू होगा, वर्ना बैंक दिवालिया होगा.

और दिवालिया होने की सूरत में सरकार एक लाख नहीं बल्कि बढ़ी हुई इंश्योर्ड राशि देगी.

यही नया बिल है जो आर्थिक सुधारो में लैंडमार्क होगा.

अभी ये ड्राफ्ट बिल है, संयुक्त संसदीय समिति के पास है. उसकी सिफ़ारिशों के साथ कैबिनेट के पास जायेगा. फिर आम जनता की प्रतिक्रिया माँगी जायेगी.

फिर फाइनली संसद में पेश होते होते इसके प्रावधान काफी हद तक सुस्पष्ट हो चुके होंगे. जमाराशि इंश्योरेंस कितना होगा, ज्ञात होगा.

अभी सरकार पर दबाव की जरूरत है कि ये अधिकतम हो, ‘बेल इन’ के नियम स्पष्ट हों, उनमें लूपहोल न बचें.

लेकिन ऐसा तभी होगा जब हम दुष्प्रचार से इतर इस बिल को समझ पाएंगे.

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