एरनाल्ड ने बुद्ध पर जो अदभुत किताब लिखी है: लाइट ऑफ एशिया. उसमें जो वर्णन है, रात्रि में बुद्ध का घर छोड़ने का, बहुत प्यारा है. देर तक पीना-पिलाना चलता रहा. देर तक नाच-गान चलता रहा. देर तक संगीत चला. फिर बुद्ध सो गए. लेकिन आधी रात अचानक नींद खुल गई. जो नर्तकियां नाचती रही थीं, वे भी थक कर अपने वाद्यों को वहीं पड़ा छोड़ कर फर्श पर ही सो गई हैं. पूरी चांद की रात है. खिड़कियों, द्वार-दरवाजों से चांद भीतर आ गया है.
बुद्ध चांद की रोशनी में ठीक से उन स्त्रियों को देख रहे हैं, जिनको वे बहुत सुंदर मानते रहे हैं. किसी के मुंह से लार टपक रही है, क्योंकि नींद लगी है. किसी की आंख में कीचड़ भरा है. किसी का चेहरा कुरूप हो गया है. कोई नींद में बड़बड़ा रही है. जिसके सुमधुर स्वर सुने थे सांझ, वह इस तरह बड़बड़ा रही है जैसे पागल हो!
बुद्ध ने उन सारी सुंदर स्त्रियों की यह कुरूपता देखी और एक बोध हुआ कि जो मैं सोचता हूं, वह मेरी कल्पना है. यथार्थ यह है. आज नहीं कल देह मिट्टी हो जाएगी. आज नहीं कल देह चिता पर चढ़ेगी. इस देह के पीछे मैं कब तक दौड़ता रहूंगा? इन देहों में मैं कब तक उलझा रहूंगा?
यह आघात इतना गहरा था कि वे उसी रात घर छोड़ दिए. उनतीस वर्ष की उम्र कोई उम्र होती है! अभी युवा थे. मगर जीवन का यथार्थ दिखाई पड़ गया. जीवन बड़ा थोथा है. जीवन बिलकुल अस्थिपंजर है. हड्डी-मांस-मज्जा ऊपर से है, भीतर अस्थिपंजर है.
भाग निकले, जितने दूर जा सकते थे. जो सारथी उन्हें ले गया है छोड़ने स्वर्णरथ पर बिठा कर, वह बूढ़ा सारथी उन्हें समझाता है कि आप यह क्या कर रहे हैं? कहां जा रहे हैं? महल की याद करें! इतना सुंदर महल और कहां मिलेगा? यशोधरा की स्मृति करें! इतनी सुंदर स्त्री और कहां मिलेगी? इतना प्यारा राज्य, इतनी सुख-सुविधा, इतना वैभव-विलास–इस सब स्वर्ग को छोड़ कर कहां जाते हो?
बुद्ध ने लौट कर पीछे की तरफ देखा. पूर्णिमा की रात में उनका संगमरमर का महल स्वप्न जैसा जगमगा रहा है. उस पर जले हुए दीये, जैसे आकाश में तारे टिमटिमाते हों. लेकिन उन्होंने सारथी को कहा, जाना होगा. मुझे जाना ही होगा. क्योंकि तुम जिसे कहते हो महल, मैं वहां सिवाय लपटों के और कुछ भी नहीं देखता हूं. मैं वहां चिंताएं जलती देख रहा हूं. आज नहीं कल, देर नहीं होगी, जल्दी ही सब राख हो जाएगा.
इसके पहले कि सब राख हो जाए, इसके पहले कि मेरी देह गिरे, मुझे जान लेना है उसको, जो शाश्वत है. यदि कुछ शाश्वत है, तो उससे पहचान कर लेनी है. मुझे सत्य से परिचय कर लेना है; सत्य का साक्षात्कार कर लेना है.
धर्मेंद्र, तुम कहते हो: जो भी मैंने चाहा, उसे पा न सका.
कौन पा सका है? कुछ पा सके, उन्होंने पाकर पाया कि व्यर्थ. कुछ नहीं पा सके, वे भरमते रहे, भटकते रहे. अच्छा ही है कि तुम्हें यह बात समझ में आ गई कि चाह में ही कुछ बुनियादी भूल है; कि चाहो, और पाना मुश्किल हो जाता है! और यह डर सार्थक है कि कहीं परमात्मा को चाहने लगूं, और ऐसा तो न होगा कि उसे भी न पा सकूं!
तुम चौंकोगे. तुमने अगर किसी और से पूछा होता, किन्हीं और तथाकथित संत-महात्माओं से पूछा होता, तो तुम्हें यह उत्तर न मिलता जो उत्तर तुम मुझसे पाओगे. तुम्हारे संत-महात्मा तो कहते, चाहो–परमात्मा को चाहो–जी भर कर चाहो; एकाग्र-चित्त होकर चाहो; जरूर पाओगे.
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, अगर परमात्मा को भी चाहा, तो बस, चूकोगे. चाह चुकाती है. चाह को छोड़ो. चाह को जाने दो. परमात्मा को पाने की विधि है: चाह से मुक्त हो जाना.
थोड़ी देर को, चौबीस घंटे में कम से कम इतना समय निकाल लो, जब कुछ भी न चाहो. उसी को मैं ध्यान कहता हूं. घंटे भर को, दो घंटे को, दिन में या रात, सुबह या सांझ, कभी वक्त निकाल लो. बंद करके द्वार-दरवाजे शांत बैठ जाओ. कुछ भी न चाहो. न कोई मांग, न कोई चाह. शून्यवत! जैसे हो ही नहीं. जैसे मर गए. जैसे मृत्यु घट गई.
ध्यान मृत्यु है– स्वेच्छा से बुलाई गई मृत्यु. ठीक है, श्वास चलती रहेगी, सो देखते रहना. और छाती धड़कती रहेगी, सो सुनते रहना. मगर और कुछ भी नहीं. श्वास चलती है, छाती धड़कती है, और तुम चुपचाप बैठे हो.
शुरू-शुरू में कठिन होगा. जन्मों-जन्मों से विचारों का तांता लगा रहा है, वह एकदम से बंद नहीं हो जाएगा. उसकी कतार बंधी है. क्यू बांधे खड़े हैं विचार. सच तो यह है, ऐसा मौका देख कर कि तुम अकेले बैठे हो, कोई भी नहीं, टूट पड़ेंगे तुम पर सारे विचार. ऐसा शुभ अवसर मुश्किल से ही मिलता है. तुम उलझे रहते हो–काम है, धाम है, हजार दुनिया के व्यवसाय हैं–विचार खड़े रहते हैं मौके की तलाश में कि कब मौका मिले, कब तुम पर झपटें!
लेकिन जब तुम शांत बैठोगे, ध्यान में बैठोगे, तो मिल जाएगा अवसर विचारों को. सारे विचार टूट पड़ेंगे, जैसे दुश्मनों ने हमला बोल दिया हो. कुरुक्षेत्र शुरू हो जाएगा. तरह तरह के विचार, संगत-असंगत विचार, मूढ़तापूर्ण विचार, सब एकदम तुम पर दौड़ पड़ेंगे. चारों तरफ से हमला हो जाएगा. उसको भी देखते रहना.
लड़ना मत, झगड़ना मत, विचारों को हटाने की चेष्टा मत करना. बैठे रहना चुपचाप. जैसे अपना कुछ लेना-देना नहीं–निष्पक्ष, निरपेक्ष, असंग. जैसे राह के किनारे कोई राहगीर थक कर बैठ गया हो वृक्ष की छाया में, और रास्ते पर चलते लोगों को देखता हो. कभी कार गुजरती, कभी बस गुजरती, कभी ट्रक गुजरता, कभी लोग गुजरते, उसे क्या लेना-देना!
कोई इस तरफ जा रहा, कोई उस तरफ जा रहा. जिसको जहां जाना है, जा रहा है. जिसको जो करना है, कर रहा है. राह के किनारे सुस्ताते हुए राहगीर को क्या प्रयोजन है! पापी जाए कि पुण्यात्मा; सफेद कपड़े पहने कोई जाए कि काले कपड़े पहने; स्त्री जाए कि पुरुष; जाने दो जो जा रहा है. रास्ता चलता ही रहता है. चलते रास्ते से राहगीर जो थक कर बैठ गया है, उसे क्या लेना है!
ऐसे ही तुम अपने चित्त के चलते हुए रास्ते के किनारे बैठ जाना, देखते रहना. कोई निर्णय नहीं. कोई पक्ष-विपक्ष नहीं. कोई चुनाव न करना. इस विचार को पकड़ लूं, उसको छोड़ दूं; यह आ जाए, यह मेरा हो जाए; यह न आए, यह कभी न आए–ऐसी कोई भावनाएं न उठने देना. और धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता एक दिन ऐसी घड़ी आएगी, जब रास्ता सूना होने लगेगा. कभी-कभी कोई भी न होगा रास्ते पर. सन्नाटा होगा. अंतराल आ जाएंगे. उन्हीं अंतरालों में पहली बार तुम्हें परमात्मा की झलक मिलेगी. क्योंकि न कोई चाह है, न कोई कल्पना, न कोई विचार.
परमात्मा की झलक मिलेगी–कहीं बाहर से नहीं; तुम्हारे भीतर ही बैठा है. विचारों की धुंध हट जाती है, तो दिखाई पड़ने लगता है.
जो तुमने प्रेम के अनुभव से जाना है, उस अनुभव को उपयोग कर लेना. जो तुमने अब तक संसार की प्रीति में सीखा है, उस पाठ को भूल मत जाना. चाहत करके तुमने जो देखा है, कि सदा हारे, वह एक बड़ी संपदा है. उस पाठ का अगर उपयोग कर लिया, तो परमात्मा के संबंध में असफल न होना पड़ेगा.
चाहो न–और परमात्मा पाया जा सकता है. लाओत्सू का प्रसिद्ध वचन है: खोजो मत–पा लो. मांगो मत–पा लो. न कहीं जाना है, न खोजना है. वह परम धन तुम्हारे भीतर है. वह तुम्हारा स्वरूप है
– ओशो
मृत्युार्मा अमृत गमय–प्रवचन-07