उस घने पेड़ के नीचे बिछ जाते थे मौलश्री के पुष्प, जैसे पूरी धरती पर गलीचे की तरह बिछा होता था तुम्हारा स्नेह. टहलते हुए या शिवस्तुति का कोई श्लोक गुनगुनाते तुम पीछे से आकर सहलाते थे मेरे केश, जिन पर तितलियों की तरह चिपके होते थे सफेद फूल.
तुम्हारे रूमाल में मैं, बाँध लेना चाहती थी पूरी पुष्प-सृष्टि, तुम्हारी उँगलियाँ बनती थीं सहायक, मेरी छोटी-छोटी उँगलियों की. निकल निकल भागते थे पुष्प, श्वेत मोतियों से…… और मैं कस कर पकड़ लेती थी उस पोटली को. नाक में भर लेना चाहती थी उनकी समूची गंध.
पिता मेरे, आज फिर आकर बैठी हूँ, उस मौलश्री के पेड़ के नीचे. उसी तरह फैले हैं पुष्प…. गंध भी वही है, पर मेरे पास तुम्हारा रूमाल नहीं है! तुम्हारी उँगलियाँ नहीं हैं, जो थाम ले, मेरे काँपते, खुरदुरे हाथों को.
पिता मेरे, पेड़ पिताओं से ज़्यादा क्यों जीते हैं?
॥ तुम यहीं लेटे थे अंतिम बार ॥
इस शहर में जब भी आती हूँ, किसी भी तरह पहुँच जाना चाहती हूँ, अस्पताल के उस कमरे में, जहाँ तुमने अपनी अंतिम रात बिताई थी, सूर्योदय की प्रतीक्षा में किसी बादलों में विलीन होते चाँद की तरह.
तूफानों, आँधियों और चक्रवातों में लड़खड़ाती ज़िंदगी को भूल कर, मैंने अस्पताल के उस छोटे से कमरे में तुम्हारे साथ गुज़ारे थे बाईस दिन, तुम्हारी माँ बनकर! अपने हाथों से बनाया तुम्हारा बिस्तर, डाँट कर खिलाया खाना और रूमाल से साफ किया था तुम्हारा मुँह पर तुम अपनी धुन में, चले ही गए उस ठिठुरती भोर में.
अस्पताल से घर तक तुम लेट कर आए, मेरी ही गोद में….. मैं मसलती रही तुम्हारे तलवे कि जैसे अचानक जाग जाओगे तुम और डाँट कर कहोगे, बिटिया, तुमने क्यों छुए मेरे पाँव?
पिता मेरे, तुम्हारे शरीर पर हल्दी, चंदन और घी का लेपन करते हुए, आँसुओं से तुम्हें नहलाते हुए, मुझे बार बार लगा, शायद यह सृष्टि का अंतिम दिवस है. उस दिन खूब झरा होगा, हमारा मौलश्री का पेड़, अकेले-अकेले!
पिता मेरे तुमने क्यों नहीं जाना, बेटियाँ जीवन भर पिता ही खोजती रह जाती हैं हर सम्बंध में!
दबे पाँव चलती हूँ अस्पताल के कॉरीडोर में, झाँकती हूँ उस कमरे में, क्षण भर को लगता है, तुम अब भी वहीं लेटे हुए, मेरी प्रतीक्षा कर रहे हो.
पिता मेरे क्या हम सब ऐसे ही प्रतीक्षा करते हैं अपनी मृत्यु की?