काश्मीरीय शैव-दर्शन : भाग 1

प्रातः स्मरणीय, वंदनीय श्री म. महो. गोपीनाथ जी कविराज की पुस्तक से अंश प्रस्तुत है.

काश्मीरीय शैव-दर्शन

1. सूचना

काश्मीरीय शैव-दर्शन प्रत्यभिज्ञा-दर्शन के नाम से प्रसिद्ध है. पाठक ‘प्रत्यभिज्ञा-दर्शन’ नाम सुनकर ऐसा न समझें कि मैं किसी नई दर्शन-प्रणाली का सूत्रपात कर रहा हूँ.

प्रत्यभिज्ञा दर्शन नई वस्तु नहीं है. यह भारतीय विचार-साम्राज्य की एक अति दुर्लभ संपदा है. काल की विचित्र गति से आज यह अपरिचित प्राय हो गई है, तथापि यह बात माननी ही पड़ेगी कि एक दिन इसका प्रभाव भारतीय साधना-क्षेत्र में परिव्याप्त था.

जो लोग हमारी सभ्यता की विशिष्ट धारा की ऐतिहासिक दृष्टि से सूक्ष्म भाव से पर्यालोचना करने की चेष्टा करते हैं, वे प्रत्यभिज्ञा दर्शन के महत्त्व को सहज ही समझ सकते हैं.

निगम और आगम, अर्थात वेद और तंत्र क्या हैं, तथा इनका पारस्परिक संबंध क्या है, यहां इसके विचार करने की आवश्यकता नहीं है. किंतु यह ध्रुव सत्य है कि इस निगम और आगम के अंदर ही ‘भारतवर्ष की सनातन साधना का बीज निहित है’.

श्रीमदभागवत को ‘निगम-कल्पतरु का गलित फल’ कहा गया है. मेरे विचार से इसमें आंशिक ही सत्य है; क्योंकि श्रीमदभागवत जिस प्रकार निगम का, उसी प्रकार ‘आगमकल्पतरु’ का भी “गलित फल” है. पांचरात्र आगम में जो कुसुमित होता है, वही श्रीमद्भागवत में परिपक्व रस से भरपूर फल रूप में परिणित है.

इसी प्रकार प्रत्यभिज्ञा-सिद्धांत भी आगम का – शैवागम का सारभूत रस-स्वरूप है. जैसे, श्रीमद्भागवत का अवलंबन कर गौड़ीय वैष्णवों ने ‘अचिन्त्यभेदाभेद’ रूप अपूर्व दार्शनिक सिद्धांत की अवतारणा की है, उसी प्रकार स्वच्छन्द, मालिनीविजय प्रभृति आगम एवं तैत्तिरीय सहिंता प्रभृति निगम-समुद्र का मंथन करके काश्मीरीय शैवों ने ‘ईश्वराद्वयवाद’-रूप जाज्वल्यमान रत्नमाला का आविष्कार किया है. दोनों ही भारतीय साधना के गौरव-स्तंभ हैं.

2. नामकरण

‘प्रत्यभिज्ञा-दर्शन’ नाम बहुत पुराना है, ऐसा नहीं प्रतीत होता. माधवाचार्य ने सर्वदर्शनसंग्रह में इस नाम का प्रयोग किया है और हम लोगों ने उन्हीं का अनुसरण कर इसी नाम को ग्रहण किया है.

अवश्य ही प्रत्यभिज्ञा-हृदय, ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी प्रभृति प्राचीन ग्रंथों के नामकरण में प्रत्यभिज्ञा शब्द का व्यवहार किया गया था, किन्तु हमारा विश्वास है कि यह न्याय, वैशेषिक प्रभृति के समान दार्शनिक सिद्धांतविशेष का वाचक नहीं है.

सर रामकृष्ण गोपाल भण्डारकार ने कहा है कि काश्मीरीय शैवागम दो भागों में विभक्त है – प्रथम स्पन्द शास्त्र और द्वितीय प्रत्यभिज्ञा-शास्त्र.

स्पन्द शास्त्र के प्रचारक वसुगुप्त हैं और प्रत्यभिज्ञा शास्त्र के प्रवर्तक सोमानन्द हैं. यह विभाग ऐतिहासिक दृष्टि से कुछ अंश में सत्य होने पर भी विचार करने पर भ्रांतिमूलक जान पड़ता है; क्योंकि स्पन्द और प्रत्यभिज्ञा-प्रतिपादक ग्रंथों में अवान्तर विषयों में किञ्चित मतभेद का आभास होने पर भी दोनों शास्त्रों के मूल सिद्धांत और आलोचना- प्रणाली में कुछ भेद नहीं है.

सुतरां ‘प्रत्यभिज्ञा-दर्शन’ शब्द से स्पंदन और प्रत्यभिज्ञा दोनों ही मतों का निर्देश होता है. प्राचीन साहित्य में ‘त्रिकदर्शन’, ‘माहेश्वरदर्शन’, प्रभृति नाम विशेष प्रचलित थे, किन्तु माधवाचार्य के अनुकरण होने से अब प्रत्यभिज्ञा नाम का ही अधिक प्रचार है.

क्रमशः

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