अधखुली पलकों पर रात का कोई
याद आता ही होगा-सा
भूला हुआ सपना लेकर
आँखों को मलते हुए
खिड़की से झाँका
तो पेड़ पर कल रात के सपने को लटके देखा..
सूरज के बर्तन से आती
उबलते धूप की खुशबू को
कप में ढालकर चुस्कियां ले ही रही थी…
कि खिड़की से कूदकर मेरे कमरे में आ गया
पूछने लगा क्यों अब भी याद नहीं मैं
या जानबूझकर भूली हो
मैंने बेपरवाही से उसे नज़रअंदाज़ कर दिया..
वो रोज़ मेरी खिड़की से झांकने लगा है
मैं रोज़ उस छलिये को भगा देती हूँ
आज भी आया था हाथों में गुलाब लिए
मैंने भी कह दिया बचपन की बात और थी
अब मैं बड़ी हो गई हूँ ऐसे खिड़की से न आया करो…
आज वो दरवाज़े पर खड़ा है
साकार रूप लेकर….
कितनों के सपने सच हो पाते हैं..
मैं खुशकिस्मत हूँ…
पिछले जन्म का सपना
इस जन्म में साकार हो गया…
आ रही हूँ बाबा… दरवाज़ा ही तोड़ दोगे क्या…