दो बिन्दुओं के संधिस्थल
जैसा सूक्ष्म होता है
वास्तविक एकांत
जहाँ पसरी होती है
एक आत्मिक शांति
ये होता है बेहद संक्षेप
इसलिए कोई भी विस्तार
एकांत के साथ होती है
एक नियोजित छेड़छाड़
एकांत को बचाने के लिए
अक्सर जरूरी होता है
एक जगह रुके रहना.
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खुद से बात करता मनुष्य
प्रतीत होता है आधा पागल
खुद से बात करने के लिए
जरूरी है आधा पागल होना
और दुनिया से बात करने के लिए
पूरा पागल.
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एकांत में भी
रहता है कोई साथ सदा
एकांत की यही होती है ख़ूबसूरती
भले कोई रहे साथ भी
नहीं होती इच्छा
उससे बतियाने की
इस तरह से एकांत हुआ
दोहरा एकांत.
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अकेलापन पूछता है सवाल
एकांत देता है जवाब
दोनों को देखकर
मुस्कुराता है मन
तीनों को समझकर
मनुष्य करता है विश्वास
इसलिए भी नहीं होता है स्वीकार
छल पर कोई स्पष्टीकरण
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उसने पूछा
क्या तुम्हारे एकांत में दाखिल हो सकती हूँ मैं
मैंने कहा- नहीं
फिर वो दाखिल हुई
और मुझे बोध न हुआ
एकांत में दाखिल होने की अनुमति माँगना
एकांत का अपमान है
और बिन पूछे दाखिल होना एक कौशल.
– डॉ. अजित