गब्बर- “अरे ओ सांभा! ये भारत वाले आजकल कौन चक्की कौन अनाज का आटा खा रहे हैं बे!
स्स्स्साला बहुते कंटीली कंटीली बीमारियां हो रही हैं इनको आजकल!”
सांभा- “सरदार मैंने आपका नमक खाया है. सच बताऊं भारत वाले पतंजलि, आशीर्वाद, आई टी सी शक्तिभोग गेहूं का आटा खा रहे हैं वह भी बिना चोकर वाला.”
“कितने अनाज थे? और ये.. बस गेहूं खा रहे हैं, यह तो बहुत नाइंसाफी है.
“हां सरदार अनाज तो बहुत था जौ, जई, चना, मक्का, मड़ुआ, कोदो, सावां, ज्वार, बाजरा, टांगुन, रागी लेकिन भारत वाले आजकल बबुआ हो गए मोटा नहीं खाएंगे.”
“हा हा हा मोटा नहीं खाएंगे तो सब गोली खाएंगे शूगर की, बी पी की, गठिया की, कैंसर की.”
“सरदार, पिछले साल बुद्धिराम एलर्जी से मर गया बड़ा डाक्टर साहब बता रहे थे कि कौनो ग्लूटेन का कमाल था जौन यह डंकल गेहूँ मा मौजूद है”
“मरैं ..मरन दो बड़ा याराना लगता है इनको गेहूँ से. यहाँ से पचास पचास कोस दूर तक जब कौनो आदमी हमारे पास अपनी समस्या लै के आवत है, हम ससुरा से कहते हैं कि
भोजन और भजन वैसे ही करना जैसे तुम्हारे बाप दादा करते आए हैं. लेकिन ये बदजात नवा खाएंगे और नवा भजन गाएंगे और बाद में नाक पकड़ कर रोएंगे.
सच में शोले ही भड़का रखे हैं हमने. सुनिए-
गेहूं की रोटी खाने से मना करने की वजह है गेहूं में पाया जाने वाला एक प्रोटीन जो गेहूं के अलावा जौ, राई व टिट्रिकेल (गेहूं और राई के संयोग से तैयार एक प्रजाति) में भी पाया जाता है. इस प्रोटीन को ग्लूटेन कहते हैं. यही वह प्रोटीन है, जो गेहूं के आटे को गूंथने पर उसे बांध देता है.
पहले लोग गेहूं के साथ मोटा अनाज (जौ, चना, बाजरा) भी खाते थे, इसलिए मोटे अनाज से उन्हें पौष्टिक तत्व मिलते थे और वो तंदुरूस्त रहते थे.
आजकल लोगों ने मोटा अनाज खाना छोड़कर केवल गेहूं का उपयोग करना शुरू कर दिया है. इससे उन्हें पर्याप्त मात्रा में पौष्टिक तत्व नहीं मिल पाते हैं.
ज्वार, बाजरा, रागी तथा अन्य मोटे अनाज उदाहरण के लिए मक्का, जौ, जई आदि पोषण स्तर के मामले में वे गेहूं और चावल से बीस ही साबित होते हैं.
कई मोटे अनाजों में प्रोटीन का स्तर गेहूं के नजदीक ठहरता है, वे विटामिन (खासतौर पर विटामिन बी), लौह, फॉस्फोरस तथा अन्य कई पोषक तत्त्वों के मामले में उससे बेहतर हैं.
ये अनाज धीरे धीरे खाद्य श्रृंखला से बाहर होते गए क्योंकि सरकार ने बेहद रियायती दरों पर गेहूं और चावल की आपूर्ति शुरू कर दी. साथ ही सब्सिडी की कमी के चलते मोटे अनाज के उपयोग में कमी जरूर आई लेकिन पशुओं तथा पक्षियों के भोजन तथा औद्योगिक इस्तेमाल बढऩे के कारण इनका अस्तित्व बचा रहा. इनका औद्योगिक इस्तेमाल स्टार्च और शराब आदि बनाने में होता है.
पिछले दिनों बातचीत में एक डॉक्टर साहब ने बताया ‘मैंने अपने यहां इलाज करवाने आए करीबन 500 बच्चों में गेहूं से एलर्जी के मामलों का दस्तावेजी अध्ययन किया है’. मैंने पूछा ‘गेहूं से एलर्जी …भी इस गेंहू-भोजी इलाके में’? उन्होंने बताया ‘दरअसल यह ‘व्हीट-एलर्जी’ गेहूं में पाए जाने वाले ग्लूटन के प्रति एलर्जी पैदा होने से हो जाती है, लेकिन यह पदार्थ मोटे अनाज जैसे कि बाजरा आदि में नहीं होता. मानवीय शरीर की क्षमता एक हद से ज्यादा ग्लूटन की मात्रा को जज्ब करने के लिए नहीं बनी है’. वैसे भी बाजरा गेहूं से ज्यादा पौष्टिक है क्योंकि इसमें रेशा और लौह की मात्रा उससे अधिक है. पूरी तरह से गेंहू-आधारित खुराक की तरफ चले जाना एक मुसीबत मोल लेने जैसा है.
बड़े बूढ़ों से सुना था कि उनके बचपन में बाजरे की रोटी और खिचड़ी ज्यादातर रोजाना की आम खुराक थी. गेहूं की रोटी एक तरह की विलासिता थी जो कभी-कभार ही मय्यसर होती थी वह भी तब जब कोई मेहमान घर आया हो.
जाहिर है चावल तो हमारे लिए और भी ज्यादा अनजाना था सिवाए उत्सवों पर या विशेष तौर कभी-कभी बनने वाली खीर या घी-बूरा के रूप में दिए जाने वाले मिष्ठान के तौर पर. जहां तक मुझे अपने बचपन की याद है तो सफेद मक्खन और गुड़ के साथ खाए जाने वाली बाजरे की रोटी हमें सर्दियों में कभी-कभार ही मिला करती थी.
हां इतना जरूर है कि जो गेहूं की रोटी हम खाया करते थे वह दरअसल यह गेहूं के आटे में चने और जौ का सम्मिश्रण हुआ करती थी. आज मिलने वाला पॉलिश किया गया चावल उस वक्त तक भी हमारी खुराक का हिस्सा नहीं बन पाया था.
फिलवक्त मैदे से बने नान-रोटी, दाल-मक्खनी ,छोला भटूरा और मटर-पनीर ने उत्तर भारतीयों की थालियों पर ‘धावा’ बोल रखा है. यह एक पौष्टिकताहीन-त्रासदी है क्योंकि हम रेशे युक्त भोजन की बजाए लगातार निम्न स्तर के भोज्य पदार्थों की ओर खिंचे चले जा रहे हैं.
इस मुसीबत की जड़ हमारी खाद्यान्न नीति और राजनीति में है. जिस घटनाक्रम को ‘हरित-क्रांति’ के नाम से जाना जाता है उसे व्यावहारिक तौर पर गेहूं-क्रांति कहना ज्यादा उचित होगा. वर्ष 1965 और 67 के बीच देश में अकाल पड़ा था. तत्कालीन सरकार ने अपनी प्रतिक्रिया को देश के छोटे से हिस्से में बड़े पैमाने पर विभिन्न स्रोतों को झोंककर गेहूं की पैदावर को उन्नत करने और विकसित करने पर जोर देकर व्यक्त किया था.
यही कारण है कि पहले पहल गेहूं की ज्यादातर पैदावार पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुआ करती थी, जिसे देशभर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से बांटा जाता था. एकाएक कम कीमतों पर उपलब्ध हुए इस गेहूं की वजह से अन्य रिवायती मोटे खाद्यान्न जैसे कि बाजरा, ज्वार, जौ, रागी और कोड़ू की ओर रूझान कम होने लगा. आगे चलकर आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में कम दरों पर उपलब्ध करवाए जाने वाले चावल ने इस प्रकिया में और ज्यादा तेजी ला दी थी और मोटा अनाज भोजन की थाली में वहां भी लगातार छिटकता गया.
इसका समाधान राजनीति में है जो केवल चुनावी राजनीति पर आधारित न हो, इसके लिए सरकारी नीति, राजनीतिक पहल और जनजागरण के सम्मिश्रण की जरूरत है. सरकार को गेहूं और चावल के प्रति लाड़लापन छोड़कर मोटे अनाज को प्रोत्साहित करने पर ध्यान देना होगा. सरकारी वितरण प्रणाली और मिड-डे मील में बाजरे की आपूर्ति को बढ़ाना होगा.
खेती और प्राथमिक शिक्षा को बचाना हो तो दो रू. चावल और गेहूं वाला पी डी एस और मिड डे मील बन्द करो.