कुछ नहीं कहने को
बहुत कुछ है जीने को…
थोड़ा-सा उन्हें जी लूं,
थोड़ा-सा पी लूं.. पुराने ग़मों को…
सह लूं कुछ नई चोटें… और क्या..
गला भर गया है गले तक
जैसे पानी है सर से ऊपर बहने को… फूटफूटकर…
लेकिन नहीं ….अभी नहीं..
अभी भी थोड़ा बाकी है कुछ पीने को….
अब भी बाकी है वो आख़िरी कदम
जिसके पड़ते ही मंज़िले
सामने नज़र आने लगती है
और धुंधला जाती है
पीछे छूट गयी सड़कों पर गिरे पत्थरों की चुभन
नहीं अब भी बाकी है थोड़ी सी थकन
वो आख़िरी बूँद पसीने की
और पहली बूँद आंसू की…
बस आँखों में भर सी गयी है…
जो बह गयी तो
पीछे से पूरा सैलाब आएगा
और माथे पर लगा हर दाग धुल जाएगा
उभर आएंगी लकीरें
किस्मत की लकीरें
जिसे समय ने खुरच खुरच कर उकेरा है
और खड़ा कर दिया है धरती के उस टुकड़े पर
जिसकी मिट्टी हर घाव को भर देती है..
और देती है ताकत
फिर फिर नए जोश से जीने के लिए
बस एक पल के लिए और…
….और फिर मैं एक पल और जीती चली जाती हूँ,
बस इतना-सा और जी लूं
फिर पा लूंगी पूरा आकाश,
मेरे हिस्से की पूरी धरती…
बस एक पल और जी लूं…
जी लूं इससे पहले कि
वो पहली बूँद टपक पड़े आँखों से,
जिसके पीछे एक सैलाब को रोके हूँ…
– कतरा कतरा मिलती है कतरा कतरा जीने दो…. ज़िंदगी है… बहने दो… प्यासी हूँ मैं, प्यासी रहने दो… रहने दो ना… – जीवन