इन दिनों गानें ‘हिट’ नहीं होते. फ़िल्म से पहले गाना प्रोमो में चलता है और फिल्म उतरने के बाद गाना भी उतर जाता है. मैंने पहले के लेखों में कहा है कि भारत के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र किसी भी फ़िल्मी गीत की सफलता को मापने के सबसे बड़े पैमाने हैं.
इस समय गांवों में बाहुबली के गीत चलन में हैं. ख़ास तौर से कैलाश खेर का गाया ‘क्या कभी अंबर से सूर्य बिछड़ता है’ रिंगटोन के रूप में खूब बज रहा है. ग्रामीण क्षेत्रों में केवल गीत नहीं ‘गीत से जुड़ी सिचुएशन, फिल्मांकन’ को भी ध्यान में रखा जाता है. कहने का मतलब ये कि जिन गीतों में भारतीयता का स्पर्श होता है, गीतों में कहानी होती है, वे गीत भारत के जनमानस में पैठ जाते हैं.
इस समय मुझे गीतों की लोकप्रियता में आ रही कमी के कुछ ख़ास बुनियादी कारण दिखाई दे रहे हैं. गीतों के लिए अब सिचुएशन पैदा नहीं की जा रही. इस साल बाहुबली/टॉयलेट-एक प्रेम कथा को इसमें अपवाद मानता हूँ. इन दोनों फिल्मों में गीतों के लिए जरुरी ‘ज़मीन’ तैयार की गई थी.
बाहुबली में जब अमरेंद्र की एंट्री एक छोटे से फाइट सीक्वेंस से होती है. हाथी को काबू करने का दृश्य चंद सेकंड में अमरेंद्र की ‘कैरेक्टर बिल्डिंग’ कर देता है. हाथी पर नियंत्रण किया/माँ को बचाया/पूजा में व्यवधान नहीं आने दिया/प्रजा पर आंच नहीं आने दी. लीजिये गीत की सिचुएशन तैयार है. जब गीत इस तरह से परदे पर प्रकट होता है तो अत्याधिक रोमांच उत्पन्न होता है और फिल्म दर्शक को बाँध लेती है.
इस जादू को परदे पर साकार करने के लिए निर्देशक/संगीत निर्देशक/गीतकार/कोरियोग्राफर को मिलकर प्रयास करने पड़ते हैं. गीतकार सबसे पहले गीत की सिचुएशन मांगता है. गीत क्यों लाना पड़ा, ये सबसे अहम होता है.
दर्शक को गीत स्वाभाविक रूप से आता हुआ लगे, ठूंसा हुआ न प्रतीत हो, जैसे इन दिनों ठूंसे जा रहे हैं. ऐसे तो कई गीत हैं जो अपनी ख़ास सिचुएशन के कारण हमारे दिलों में बस गए. तीन दशक बीत गए लेकिन उनका शहद कम नहीं होता. जब वो गीत नज़रों से गुज़रते हैं तो उनकी सिचुएशन भी याद आती है. आज एक ऐसे ही क्लासिक गीत की बात करूँगा.
जैक्सन तोलाराम प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी का सुपरवाइज़र अरुण प्रदीप अपनी प्रेमिका ‘प्रभा’ से इज़हार नहीं कर पाता. वजह उसके व्यक्तित्व की है. उसमे आत्मविश्वास की कमी है. प्रभा का सहकर्मी नागेश उसके आड़े आ रहा है. नागेश बहुत बोल्ड है और अरुण में ‘माचोमैन’ जैसी कोई प्रतिभा नहीं है.
अंततः अरुण कर्नल जूलियस नागेंद्रनाथ विल्फ़्रेड सिंह की शरण में जाता है. कर्नल उसके व्यक्तित्व में रूपांतरण ले आते हैं. अब अरुण की वापसी होती है. अपने प्यार को पाने के लिए वह ‘गेम्समैनशिप’ का सहारा लेता है. नागेश को चालबाज़ी से पराजित करता है.
सिचुएशन यही है कि एक हारा हुआ खिलाड़ी नए गुर सीखकर फिर मैदान में आता है. जैसे सचिन तेंडुलकर अपने बल्ले का वजन काटकर पुनः वापसी करते हैं. नागेश को चायनीज़ खाना नहीं आता इसलिए अरुण जानबूझकर प्रभा और उसे लेकर एक चायनीज़ रेस्टॉरेंट में गया है.
बैकग्राउंड में योगेश का लिखा कालजयी गीत सलिल चौधरी के संगीत में मुकेश की उल्लासित स्वर लहरियों से शुरू होता है. ‘ये दिन क्या आए, लगे फूल हंसने, देखो बसंती-बसंती, होने लगे मेरे सपनें’. नागेश झुंझला रहा है. अरुण के चेहरे की चमक बढ़ गई है और प्रभा के अहसास उसकी सम्मोहित करने वाली हंसी से ज़ाहिर हो रहे हैं. गीत बैकग्राउंड में चलता है और सामने हम अरुण की नागेश पर मनोवैज्ञानिक विजय होते देखते हैं.
इस गीत की सिचुएशन बहुत स्ट्रांग बनाई गई थी. आज भी इस फिल्म के गीतों की ताज़गी बरक़रार है. जानेमन-जानेमन/न जाने क्यों/ये दिन क्या आए, इन तीन गीतों की लोकप्रियता ने फिल्म की सफलता की दिशा तय कर दी थी. प्रदर्शित होने के बाद इन गीतों की लोकप्रियता आसमान छूने लगी थी.
न शानदार कैमरे थे, न इफेक्ट वाले तामझाम और आइटम डांस तो बिलकुल नहीं हुआ करते थे. संगीत सृजन के लिए भी साधन सीमित ही थे. गायक/गायिका के स्वरों को नियंत्रित करने वाले सॉफ्टवेयर भी तब नहीं थे. तब समर्पण था. एक रचनात्मक संतुष्टि थी. इन गीतों को सुन/देखकर आज ये समझ आता है कि कालजयी रचनाएं कितने वैचारिक मंथन और श्रम के बाद तैयार होती थी.
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