साधारण सा प्रश्न है – जितनी जीत में हम खुश हो रहे है, लहालोट हुए जा रहे हैं, क्या हम हारते तो शत्रु इतने सस्ते में, केवल मज़ाक बनाकर छोड़ देते?
यह खेल नहीं है कि हार जीत के बाद शेकहैंड किया जाये और साथ बैठकर पेयपान किया जाये.
याद करें कि इतिहास में जब भी हम हारे तो लंबे समय तक, पीढ़ियों तक क्यों पुनरुत्थान की प्रतीक्षा करनी पड़ी. और वहाँ भी नसीब साथ न देता तो क्या होता.
और जहां भी हारे हुए शत्रु के शरणागत होने पर उसे बख्श दिया वहाँ कितने कम समय में हम उसके हाथों हारे. और फिर कितने सालों तक कोई पुनरुत्थान न हुआ तथा हारने पर हमारे साथ क्या व्यवहार किया गया.
छोड़ दिये गए शत्रु, जान ही नहीं, अपनी सामरिक क्षमता बचाकर भी निकल गए. और इसीलिए अपेक्षाकृत तुरंत लौटकर हमला कर पाये. हुदैबिया कब समझेंगे हम?
[जीत नज़र नहीं आती तो हुदैबिया की सुलह, जब जीते तो उमर का सुलहनामा!]
यहाँ हम क्या कर रहे हैं? क्या चुनाव एक ही रण हैं जहां हम से युद्ध किया जा रहा है? या हमारा इतना कबूतरीकरण कर दिया गया है कि हमें बस यही एकमात्र रणभूमि लग रही है? असलियत कब समझेंगे हम?
[शांतिदूतों के शांति प्रस्ताव – उमर का सुलहनामा – 1000 वर्ष बाद भी वही बात]
असलियत तो यही है कि चुनाव एकमात्र रणभूमि है जिस पर हम लड़ना चाहते हैं. क्योंकि वहाँ जान माल का खतरा कम लगता है. बाकी रणों का हम संज्ञान ही नहीं ले रहे हैं क्योंकि वहाँ वास्तविक नुकसान है, कभी आर्थिक, कभी सामाजिक तो कहीं जान का भी.
आँख मूंदकर बिल्ली को इग्नोर कर रहे हैं. जिस कबूतर को वो झपट्टा मार कर खींचे ले जा रही है उसकी फड़फड़ाहट सुन तो रहे हैं लेकिन और सिमट रहे हैं और मन ही मन चाह रहे हैं कि अगला नंबर किसी और का हो.
जो चिह्नित घोषित शत्रु हैं उनकी संख्या, उनका धन बल सब वैसे ही है. आप को आतंकित करने की उनकी क्षमता भी वैसे ही है. Deep state के पेट का पानी हिला नहीं है, जो है वह ऊपरी फड़फड़ाहट ही है.
चुनाव उनके लिए असली रण थे ही नहीं, निर्णायक तो कतई नहीं. जो हमसे लड़े वे कुछ स्वांग किए बहुरूपिये थे. शिवाजी महाराज की कहानियाँ हम पढ़ते तो हैं, लेकिन यहाँ हम ही मुगलाए हुए हैं. लोकतन्त्र के चारो खंभों पर किला शत्रु का खड़ा है. और उसमें तोपें लगी हैं और गोलाबारूद की कोई कमी नहीं दिख रही.
अन्य युद्धों का संज्ञान लेना चाहिए, और वहाँ शत्रु को खत्म करने के लिए क्या करना चाहिए यह सोचना होगा. नेतृत्व से यह अपेक्षा जतानी होगी लेकिन साथ साथ उनको याद दिलाते रहना होगा, दबाव बनाते रहना होगा. नहीं तो वे जनेऊ पहनेंगे, जय श्री राम भी बोलेंगे, काँवड़ भी ले चलेंगे. उनके लिए नौटंकी है, नौटंकी का क्या?
लेकिन अंत में अगर हम गाफिल रहे – जो दिख भी रहा है कि हम हैं – तो यही कलावा बांधे जिहादी जय श्री राम का नारा लगाते हुए आएंगे और चूंकि आप उनकी असलियत नहीं समझ पा रहे, आप का काम तमाम भी कर जाएँगे. घोड़े के पेट से उतरी ग्रीक सेना.
आगे भी लिखेंगे, बात खत्म नहीं हुई है.