ग्रीष्म की क्लांत रातों में,
जब, अकसर नदी का भलभलाना..
उसके किनारें बसे लोगों को सृष्टि की उपस्तिथि का भान कराता है
उस वक़्त, वह किनारों को एक पुनः बासी अर्ज़ी दे आगे बढ़ जाती है.
जैसे, उसने किनारे की निर्लिप्तता को ऋतुकाल की तरह स्वीकार किया हो.
और किनारा उसकी उमड़ते हुए शरीर की थकान को..
उसकी ज़ख्मी पीठ को सहलाने की कोशिश भर ही कर पाता है कि
वह हुलसकर विदा ले लेती है..
वे दोनों क्या करें?
प्रकृति ने अचर किनारे को, चर सी नदी को थामने का सहचर जो बनाया है.
किनारे ने कई बार उसे पुकारा भी है….
जबकि, उसे मालूम है कि प्रतिध्वनि भी वहीं सार्थक है,
जहाँ, निमिष मात्र भी कोई रुकने की प्रतीक्षा में हो…
उसने सदैव नदी की आँखों व बाँहों में उसके प्रति निर्मोही होने का भाव देखा है
वह कैसे बताये कि
नदी की थरथराहट व अकुलाहट से घबराकर उसने खुद को पिघलाया है
जिसे लोगों ने “घाट” नाम दिया है और इन घाटों के लिये नदी भी अतिथि मात्र ही है.
उसे यह भी पता है कि,
नदी को उसके बनिस्पत, मुहाना ज्यादा खींचता है,
जहाँ, वह समर्पण की लहरें और
प्रेम का उत्कर्ष लिए मिलन की उत्कंठा में आत्मोत्सर्ग प्राप्त करती है.
सम्भवतः, इस सृष्टि में सर्वाधिक दुस्साहसी रचना, नदी ही है….
जिसकी नाभि में निर्बाध प्रेम का बीज़ फलता है…
– मंजुला बिष्ट