दोनों लोग महमूद की दी हुई ऊंटनी पर चढ़ चले. सामंत अपनी ऊँटनी पर बैठा हुआ कुढ़ रहा था, कि इतना अच्छा मौका मिला महमूद गजनवी को मारने का, लेकिन वो चूक गया.
उसने अपनी छाती पर घूंसा मारते हुए कहा, “बाबा, क्या अब मैं इतना कमजोर हो गया हूँ कि चार पांच लोग मुझ पर अधिकार कर लें? धिक्कार है मेरी वीरता और शक्ति को.”
नंदीदत्त ने समझाते हुए कहा, “बेटा, तुम जाने कितने दिन से कुछ खाए बिना भटक रहे हो. अपने दुर्जय वीर चौरासी परिजनों के शोक से संतप्त हो भटक रहे हो. तुम्हारे जैसी परिस्थिति में कोई इंसान जीवित है यही बड़ी बात है.”
“पर बाबा, मैं सुल्तान को भारत से वापस नहीं जाने देना चाहता. मैं सोमनाथ तक नहीं पहुँचने देना चाहता. अगर वो किसी भी तरह सफल हो गया, तो मैं खुद को क्षमा नहीं कर पाउँगा.”
बाबा ने बहुत प्रेम से कहा, “बेटा, सारा दारोमदार तो तुम्हारे ही कन्धों पर है अब. एक तुम्हीं हो जिसको सुल्तान की सारी सेना की स्थिति, शक्ति, ठीक ठीक संख्या इत्यादि ज्ञात है. वो इतनी भारी सैन्य संख्या के साथ कब तक, और कितनी देर में कहाँ तक पहुंच सकता है, तुमसे सही ये अंदाजा कोई नहीं लगा सकता. इसलिए मार्ग में पड़ने वाले राजाओं को तुम होशियार कर, उनको व्यूहबंद कर उनकी मदद कर सकते हो, उनको मजबूती पहुंचा सकते हो. अगर वो लड़ने को तैयार नहीं हों, हिचकिचा रहे हों, तो तुम उनको प्रेरित कर सकते हो.”
नंदीदत्त ने आगे कहा, “लेकिन पुत्र, ये तभी हो पायेगा, जब तुम स्वयं को संभाल पाओगे. जब तुम स्वयं की सुरक्षा कर पाओगे. इसके लिए तुम्हें अपने तन और मन दोनों को शांत और स्वस्थ रखना होगा. तुम्हें खुद को शारीरिक और मानसिक रूप से ताकतवर रखने पर भी ध्यान देना चाहिए. अपने शोक को मन के एक कोने की एक टांड पर टांगना होगा, ताकि सिर्फ समय पर उसको उतार कर उसका प्रयोग कर सको. बेटा, हर वक़्त उस हिमालय जैसे विशाल और भारी शोक को अपनी अंतरात्मा पर लेकर घूमोगे, तो वो शोक तुम्हें ही नष्ट कर देगा. क्या अपने शोक को एक नियत समय तक त्यागने के लिए तैयार हो? क्या ऐसा कर पाने में सक्षम हो?”
“बाबा, चाहता तो हूँ मैं भी पर संभव नहीं जान पड़ता है. मेरे परिजनों की शक्लें मेरे आगे आ जा रही हैं. आप ही मुझे संभालिये बाबा, आप बताइए मैं क्या करूँ?”
पैंसठ की आयु पार कर चुके नंदीदत्त समझ ही रहे थे कि इस छोटी सी आयु के बालक पर क्या बीत रही थी. वो चलते चलते सोचने लगे कि क्या क्या किया जा सकता है.
थोड़ी देर तक शांत चलने के पश्चात् अचानक सामन्त के नथुने फूलने पिचकने लगे. क्रोध से उसकी आँखें एकदम लाल होकर चमकने लगीं. गुस्से में उसकी साँसों की धौंकनी की आवाज सुनकर, नंदीदत्त फिर से चिंतित हो गए. उसकी अवस्था देख कर उनको दया आने लगी.
इतने में सामन्त बोल पड़ा, “बाबा, पीछे मुड़कर मत देखना. सुल्तान की एक टुकड़ी हमारी टोह में छुपते छुपाते, हमारे पीछे पीछे आ रही है. सुल्तान ने शायद यह सोचकर हमें जीवित छोड़ा है कि हम इस रेगिस्तान के छोटे रास्ते से ही ‘सोमनाथ’ पहुंचेंगे. तो वो रास्ता आसानी से सुल्तान को पता चलता रहेगा. इनकी संख्या चालीस के आसपास है, हम उस टीले के पीछे पहुँचते हैं. आप वहां छिपे रहना और मैं इनको निबटा कर आता हूँ.”
इतना कहते कहते उसकी आवाज में छिपी खूनी भयंकरता महसूस करते ही, राजगुरु नंदीदत्त फिर से सिहर गए. इनको लगा कि युवा रक्त की गर्मी में ये पुनः कोई अविवेकी कदम न उठा बैठे.
नंदीदत्त ने सामन्त से कहा, “पुत्र सामंत, क्या ऐसा न किया जाय कि इनको अपने पीछे लाकर भटकाते हुए, अजमेर की ओर ले जाया जाय. वहां के चौहान राजा धर्मगज देव, एक तो तुम्हारे सम्बन्धी भी हैं, और परम धार्मिक भी. उनके पास सेना भी अच्छी है. उनको आस पास के परम खूंखार कबीलों जैसे कोल, भील, मीना इत्यादि पर्वतीय और जंगली जातियों का सहयोग भी मिल सकता है. ये जातियां छापामार युद्ध में प्रवीण होती हैं, लेकिन आपस में ही लड़ती रहती हैं. अगर सपाट मैदान में कोई सेना इस समय गजनवी की सेना से भिड़ेगी, तो हार निश्चित है. परन्तु यदि पहाड़ों, जंगलों में भटका कर उसे उलझा दिया जाय और छिपते प्रकट होते उसपर प्रहार किया जाय, तो महमूद की सेना को स्थायी क्षति पहुंचाई जा सकती है. अभी इन चालीस पचास के मरने से क्या बिगड़ जाएगा उस अक्षौहणी सेना का?”
“पर बाबा, अगर मैं अपने पिता की तरह, सुल्तान की बची खुची सेना को भी, इसी रेगिस्तान में भटका कर समाप्त कर दूँ तो? इससे अच्छा और क्या होगा?’
राजगुरु ने बहुत गंभीरता से नकार में सिर हिलाया, और बोले, “सामन्त, वो महमूद गजनवी है. वो इसके पहले सोलह बार भारत को रौंद कर, लूट और तबाही मचाकर सकुशल वापस गया है. वो तुम्हारे पिता जी के जैसी चाल में दुबारा फंसने वाला नहीं है. इसीलिए उसने तुम्हारे पीछे अपने जासूस और पथ प्रदर्शक भेजे हैं. वो अपनी पूरी सावधानी और तसल्ली के बाद ही अब सेना को आगे बढ़ाएगा. जब अजमेर की ओर चल कर हरियाली दिखने लगेगी, तो उसके सिपहसालार और सेना खुश हो जायेगी. वो सैकड़ों कोस की रेगिस्तान की यात्रा में झुलस कर मरने के बजाय, अब हरियाली के रास्ते से जाकर, ‘लड़ कर मरना’ पसंद करेंगे. इसीलिए वो सुरक्षित रास्ते की तलाश के पहले कदम नहीं बढ़ाएगा.”
सामन्त ने ध्यान से एक एक बात सुनी राजगुरु की. अब उसके चेहरे से तनाव की छाया उसके चेहरे से जाती प्रतीत हुई, और तनाव कम होते ही उसने धीरे से मुस्कुरा दिया. वो प्रणाम करते हुए कह उठा, “बाबा, आपने आज से मुझे एक नई राह दिखाई है. अब देखिये मैं क्या करता हूँ.”
सामन्त ने अपनी तिरछी नजरों से देखते हुए ऊंटनी की दिशा, दक्खिन से परिवर्तित कर दक्खिन-पूर्व कर दिया. पीछा करने वाले भी उसी अनुपात में अपनी दिशा परिवर्तित कर लिए. चलते चलते दो दिन हो गए.
धीरे-धीरे रेगिस्तान पीछे छूटता गया, और कहीं कहीं पेंड़ पौधे नजर आने लगे. सामन्त का पीछा करने वाले हर्षित हुए कि चलो इस जानलेवा रेत के तूफ़ान से मुक्ति मिली. उन्होंने अपने कुछ साथियों को समाचार लेकर वापस भेजा सुल्तान के पास, कुछ वहीँ रुके और कुछ सामन्त के पीछे दो ढाई कोस की दूरी रखकर चलते आये.
लेकिन अब अँधेरा छाने लगा था, तो एक पेड़ के पास कुछ झुरमुटों के बगल में सामन्त और राजगुरु उतर गए. वे वहां खाने और सोने का उपक्रम करते दिखाई दिए. पीछा करने वाली टोली भी, एक ऊँचे टीले के पीछे रुक गई और दो तीन लोग सामन्त और राजगुरु पर निगाह रखने लगे.
थोड़ी शाम गहराते ही राजगुरु ने अपनी और सामन्त की ऊंटनी खुले में एक पेड़ से बाँध दी, जो दूर से ही पीछा करने वालों को चमक रही थी. बीच बीच में बाबा ऊंटनी के पास आते रहे और फिर गहरी काली रात गहराती गई. पीछा करने वाले भी अपना डेरा जमा कर सोने का उपक्रम करने लगे.
इधर झुरमुट आते ही सामन्त ने कहा, “बाबा, आप यहाँ रुको. और थोडा थोडा उन पीछा करने वाले मलेच्छों को दिखाते रहना कि हम दोनों ही यहीं हैं. लेकिन मैं अभी चलता हूँ. थोडा आगे ही अजमेर की नीलमगढ़ नाम की पहली चौकी है, वहां से कोई मेरे कपडे पहन कर आएगा, और फिर आप दोनों खूब धीरे धीरे, अत्यधिक समय व्यतीत करते हुए आगे अजमेर में पुष्कर की ओर बढ़ते रहिएगा. कोशिश यही रहे कि कई दिन लग जाय आपको. आप जितना समय व्यतीत करेंगे, अजमेर को उतना ही समय मिलेगा व्यवस्थित होने के लिए.” कह कर सामन्त तेजी से पैदल ही आगे बढ़ गया.
नीलमगढ़ की दुर्गनुमा चौकी का बूढा दुर्गपाल खर्राटे मारकर सो रहा था. चारों तरफ जंगल की आवाजें सांय सांय कर रही थीं. जंगली जानवरों, सियारों की आवाजें उस आवाज में मिलकर और भी भयावह आवाज उत्पन्न कर रही थीं.
अचानक वातावरण में दुर्ग के सांकल की खड़ खड़ की आवाज सुनाई दी. तीव्र श्रवण शक्ति वाले बूढ़े दुर्गपाल के खर्राटों पर एक दम से विराम लगा. लेकिन फिर उसने खर्राटे मारना शुरू कर दिया कि इतनी रात गए इस बियाबान जंगल में कौन आएगा. लेकिन दरवाजे की खड़ खड़ फिर से हुई, और कुछ ज्यादा ही तीव्र हुई.
अब उसको लगा कि जरुर कोई बात है. उसने अपने साथियों को उठाया, सब कह उठे कि, “इस बियाबान में दिन में तो कोई आता नहीं, फिर रात में कौन सांकल बजा रहा है. कहीं कोई भूत प्रेत तो नहीं?”
यह विचार आते ही चौकी में उपस्थित हर इंसान के चेहरे से हवाइयां उड़ने लगीं. चौकी की छत पर तैनात तीरंदाजों के हाथ पैर भी कांपने लगे, क्योंकि घने अन्धकार में नीचे कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था. इतने में सांकल फिर से बज गई.
“कौन है?” दुर्गपाल अपनी सारी शक्ति समेट कर बोल उठा.
“मैं अजमेर के महाराज से मिलने जाना चाहता हूँ, अत्यधिक आवश्यक कार्य है”, एक गंभीर स्वर सुनाई दिया.
“क्या नाम है?”
“चौहान हूँ. गढ़ खोलो और सबसे तीव्र गति का घोड़ा दो मुझे, अजमेर पर गंभीर संकट है.” चौहान ने अधिकार से कहा.
दुर्गपाल ने कुछ साथियों को साथ लेकर तुरंत द्वार खोला, लेकिन वो अब भी घबरा रहा था. सामने वाला उसको एक छाया जैसा ही दिख रहा था. बोला, “इस समय क्यों आये?” बोलते बोलते वो रुका, उसने सामने वाले को देख लिया.
सामने वाला एक 20-22 साल का युवक लग रहा था. गाल सूख कर पिचके हुए, चेहरा पीला हुआ, लाल लाल चमकती हुई भीतर को चुभती सी आँखें चेहरा एक दम पत्थर की तरह सपाट, निर्विकार.
“समय को मत सोचो दुर्गपाल, समय ही तो ख़राब इस देश का.” युवक ने बहुत ही गंभीर और अधिकार पूर्वक कहा, “मुझे एक तीव्र घोड़ा दो, और एक युवक. इसके बाद तुम सब इस दुर्ग को छोड़ कर जंगल में भाग जाओ. आसपास कोई गाँव मिले, उनको भी होशियार करते जाओ.”
“मैं? पचासों साल से इस सीमावर्ती दुर्ग का दुर्गपाल इसको छोड़ कर चला जाऊँ?” दुर्गपाल हँसते हुए कहा, “इन राजपूत हाथों ने चूड़ियाँ नहीं पहनी हैं छोकरे, वो गजनी का सुल्तान आ रहा है उसके डर से? हम तेरे जैसे कायर नहीं हैं.”
युवक हँसा, इतनी कर्कशता से हँसा कि उसकी आवाज गूंजने लगी. सारे उपस्थित लोगों को कंपकंपी छूट गई इस हँसी को सुनकर. ‘ये मनुष्य है या भूत?’ सबके मन में यही प्रश्न उठा. अचानक उसने हँसना बंद कर भयंकर आवाज में कहा, “मैं और कायर? घोघाराणा का नाम सुना है कभी?”
दुर्गपाल घोघाबापा का नाम सुनकर चौंक गया. वो तो परम भक्त था बापा का. उनको बचपन से जानता था. रेगिस्तान के इस छोर पर रहने वाले इस बूढ़े चौकीदार ने, अपने साथ रहने वाले नवयुवकों को, घोघाबापा की वीरता और उनके चमत्कार की ही कहानियां सुनाते सुनाते अपनी जीवन गुजार दिया था. पचासों बरस पहले वो बापा से मिला था, उस समय बापा की जवानी की ही तस्वीर उसके मन में अंकित थी.
उसने हाथ में पकड़ी हुई मशाल, युवक के चेहरे के पास कर दिया. “आहा, वही चेहरा, वही खूंखार आँखें, वही मूंछें, वैसे ही कसे हुए होंठ, और वैसे ही दबंग शरीर के साथ दबंग आवाज… लेकिन, लेकिन? सुनने में तो आया है कि घोघाबापा अपने सम्पूर्ण कुल के साथ स्वर्गवासी हो गए हैं. उन्होंने तो अपने 800 जवानों के साथ “साका” (मृत्यु निश्चित, फिर भी युद्ध करना) कर लिया था. फिर ये कौन हुआ? बिलकुल उनके जैसे ही? क्या घोघाबापा का भूत?”
उसने हाथ जोड़कर कहा, “क्या बापा स्वयं?”
युवक प्रेत की तरह ही ठंडी हँसी हँसा, “मुझे घोड़ा दो, और एक युवक. बाकि सारे जंगल में भाग जाओ. गजनी सब कुछ जलाता उजाड़ता आ रहा है. तुम लोग उसे नहीं रोक पाओगे. उसको सिर्फ मैं ही रोक पाउँगा. जल्दी करो, समय कम है मेरे पास. मुझे सोमनाथ को बचाने जाना है.”
दुर्गपाल काँप गया, साक्षात् बापा कह रहे हैं. वो जल्दी से सबसे अच्छा घोड़ा निकालने चला गया. उसके साथी भी जल्दी से अपने परिवार को सुरक्षित रखने के लिए भागने का उपक्रम करते हुए वहां से चले गए.
लेकिन दुर्गपाल का लड़का वहीँ खड़ा रहा. उसने हाथ जोड़कर पूछा, “आप कौन हैं? आपसे हमारे पिता जी इस तरह क्यों डर गए कि जैसे प्रेत को देख लिया हो?”
“तू तो नहीं डर रहा? क्या नाम है तेरा?”
“मेरा नाम महेंद्र है, माँ मुझे ‘महा’ के नाम से पुकारती है. भयभीत तो मैं भी हूँ इन सब लोगों की तरह, पर उतना नहीं. आप अवश्य कोई महान पुरुष हैं, जिनके नाम से मेरे वीर पिता थर थर काँप गए.”
“मतलब तुम इन सबसे अधिक साहसी हो?” चुभती हुई आवाज.
“नहीं, मैंने ऐसा नहीं कहा. मेरा कहना इतना है कि असली साहस की परीक्षा तो युद्ध में ही होती है.”
“सुनो महा, तुम्हारा साहस मुझे अच्छा लगा. समय बहुत कम है. मैं चाहता हूँ कि तुम मुझ से कपड़े बदल लो, और यहाँ से दक्खिन-पश्चिम में, सात कोस की दूरी पर घोघागढ़ के राजगुरु नंदीदत्त हैं दो ऊंटनियों के साथ. इसी क्षण उनसे मिल लो, वे तुम्हें सारी जानकारी दे देंगे. तुम्हें युद्ध का शौक है, तो वो अवसर जल्दी आ रहा है मित्र. बाबा सोमनाथ के लिए लड़ने से अच्छा और क्या हो सकता है?”
इधर दुर्गपाल एक सबसे अच्छे काले रंग के काठियावाड़ी घोड़े के साथ वापस आया. घोड़ा शक्तिशाली और अत्यधिक शानदार था. लम्बा ऊँचा कद, गर्दन के ऊपर लम्बे काले बाल और गर्वीली चाल. उसका गर्व देखकर ही ऐसा लगता था, जैसे वो अपने ऊपर चुने हुए इंसान को ही बैठने देगा.
आकर बूढ़े दुर्गपाल को दिखा कि आगंतुक का वस्त्र पूर्णतया बदल गया है, रूप बदल गया है. अब उसकी इस धारणा को फिर से बल मिला कि ये इंसान सचमुच का प्रेत है, और जब चाहे अपना हुलिया भी बदल लेता है. उसने घोड़ा पकडाते ही, सिर झुकाकर हाथ जोड़ लिया.
और जब सिर उठाया तो देखा कि, सवार उड़ता चला जा रहा है. जमीन पर पैर ही नहीं टिक रहे थे घोड़े के. और क्षण भर में वो अदृश्य भी हो गया. क्या कोई इंसान सच में उड़ सकता है? क्या कोई आँखों सामने से अदृश्य हो सकता है?
यह तो सचमुच ही प्रेत है. अब भागते हुए जितने भी लोगों से दुर्गपाल ने वार्तालाप किया, सबको ही बताया कि, “घोघबापा का प्रेत आ गया है, वो सोमनाथ की रक्षा करने गया है. घोघाबापा का यही आदेश है कि जंगलों में भाग चलो. सोमनाथ में ही वो प्रेत उस गजनवी की बलि देगा.”
किसी के पूछने पर उसने बताया, “मैंने जो पचासों साल पहले चेहरा देखा था घोघाबापा का, बिलकुल वही चेहरा और वही आँखें.” पता नहीं कि लोगों ने उसकी बात पर यकीन किया या गजनवी के अत्याचारों पर, लेकिन वो ये दुर्ग छोड़ चले.
जिसके हाथ अपना जो भी सामान लगा, वो उसे ही लेकर जंगल में गुम हो गया, लेकिन उन्होंने भी घोघाबापा के प्रेत की कहानी सुन रखी थी, सो बात करने के लिए इससे ज्यादा ज्वलंत प्रकरण और कौन सा हो सकता है. हर किसी के मुंह से यही सुनने को मिलने लगा, “मैंने देखा एक घोड़े पर घोघाबापा उड़े जा रहे थे.”
अगले दिन किसी और गाँव वालों ने देखा, परसों किसी और ने देखा कि ‘घोघाराणा’ अपने घोड़े पर उड़े चले जा रहे हैं. किसी से उस प्रेत ने पीने के लिए पानी माँगा, तो किसी से घोड़े के लिए, किसी को उस प्रेत की जलती आखें दिखाई दीं, तो किसी के सामने से वो परछाई की तरह गुजर गया.
कुछ ने बताया, “बापा की आँखें ‘पलक भी नहीं झपक रही थीं”. जितने मुंह उतनी बातें, अस्तु, हर किसी को घोघाबापा के प्रेत में विश्वास और असीम श्रद्धा उत्पन्न हो गई. सब लोग उस प्रेत के कहे अनुसार जंगलों में भाग गए. सामन्त ने किसी के भ्रम को जानते बूझते हुए भी नहीं तोड़ा कि वो प्रेत नहीं एक साधारण इंसान है. वो तो इस अफवाह को बढ़ने के लिए हवा ही देता रहा अपनी हरकतों से.
“आ मेरे पुत्र, आ” कहते हुए धर्मगजदेव ने बाहें खोल दीं सामन्त की ओर. सामन्त ने “मामा” कहकर किसी निरीह शावक की तरह उनकी बाहों में दौड़ कर समा गया. वो रो पड़ा, और उसकी हिचकियों को सँभालने में महाराज को बहुत प्रयास करना पड़ा.
उन्होंने उसको रो लेने दिया और वो रोया भी, तबियत से भरपूर. उसको मालूम था कि ये रोना उसके लिए कितना महत्वपूर्ण है. क्योंकि इसके बाद तो जीवन भर ही नहीं रोना है, अब कभी कमजोर नहीं दिखना है.
राजदरबार तुरंत बिठाया गया. सामन्त को समझ आ गया कि मामा ने तैयारी तो कर रखी है. सेना करीब आधे लाख के आसपास है. लेकिन इतनी सेना से महमूद का क्या बिगड़ेगा? सोच ही रहा था, कि अचानक महाराज आ गए.
उन्होंने कहा, “देख सामन्त, तूने महमूद की सेना की विशालता देखा है. तू होशियार है लेकिन मैं अपनी सेना का अधिपति हूँ. मुझे ज्ञात है कि मेरी सेना महमूद की सेना के सामने एक दिन ही टिक पाएगी. तो मेरा कहना यह है कि तू अभी जाकर अगले राज्यों जैसे, अन्हील्पाटन इत्यादि जैसे को सावधान कर. तब तक इस मलेच्छ को मैं रोकता हूँ, जितनी मेरी सामर्थ्य है. कम से कम अपनी संख्या से दुगुनी से अधिक सेना मार कर ही मरेंगे भांजे.”
प्रेत हँसा, और ऐसा हँसा कि सबको कंपकंपी छूट गई. रीढ़ को कंपाती हुई सिहरन से उसने कहा, “मैं संदेशवाहक हूँ मामा? आपने एक दिन का वादा किया है, तो युद्ध के प्रथम दिन मैं भी यहाँ रहूँगा. अगर मुझे दिखा कि हमारी सेना कमजोर हो रही है, तो मैं आगे निकल जाऊँगा.”
सामन्त ने अपनी देखी हुई सेना के हिसाब से सबकुछ निर्धारित किया. उसने व्यूहबद्ध होना सिखाया, अजमेर के सेनापति और कोल, भीलों, मीणाओं के सरदारों को. छापामारी को ही परम संहारक हथियार बनाया.
तीसरे ही दिन सुल्तान के दूत ने, अजमेर के दरबार में कहना शुरू किया,. “हम आपकी मित्रता चाहते है. आप गजनी की मित्रता से आजीवन खुश रहेंगे. हमें सोमनाथ जाने का मार्ग दे दें.”
सन्देश देने वाले की घमंडी और अपमान जनक वाणी सुनकर धर्मगजदेव ने कहा, “जाकर अपने सुल्तान से कह कि मित्रता बराबर सोच वालों में होती है. ये कैसी मित्रता कि हमारा मित्र बनकर तू हमारे लोगों को मारे, हमारे आराध्य का धाम तोड़े? अपने सुल्तान को कह दे कि मैं मित्रता स्वीकार कर लेता हूँ, अगर वो जहाँ है, तुरंत वहीँ से अपने देश को वापस हो ले. अन्यथा राजपूती सेना तैयार बैठी है!!”
क्रमश:…