एक प्रश्न पूछता हूँ. बचपन में हमारे माता-पिता क्यों कहते थे कि किसी भी चीज़ को समझ-बूझकर कर खरीदो.
अगर कोई सस्ते में आलू बेचे तो देखो कि उसमें सड़े हुए आलू तो मिक्स नहीं है? तराजू के नीचे हाथ तो नहीं लगा रखा, कटियाँ तो नहीं मारी हुई है? इसी तरह अगर कोई लॉलिपॉप दे, तो उन अंकल के साथ मत जाना.
फिर हम क्यों पब्लिक सर्विस, ट्रैन टिकट, सस्ती बिजली, पानी इत्यादि आदि के बारे में यह प्रश्न नहीं पूछते है?
क्यों हम लागत से कम ट्रैन टिकट चाहते है? क्यों हम सस्ती बिजली, पानी से खुश है, और फिर शिकायत करते है कि बिजली 8 घंटे गोल रहती है, पानी, वह भी गन्दा, केवल एक घंटे आता है?
इटैलियन अर्थशास्त्री ग्लोरिया ओरिज्जी (Gloria Origgi) एक ऐसी अर्थव्यवस्था के बारे में बतलाती है जिसमे क्रेता और विक्रेता, दोनों पक्ष उच्च गुणवत्ता के उत्पाद या सर्विस का सौदा करते है. यानी कि उत्तम उत्पाद या सर्विस के बदले उच्च भुगतान. लेकिन होता यह है कि इस सौदे में किसी भी पार्टी को ना ही उत्तम सर्विस या उत्पाद की अपेक्षा है, ना ही अच्छे भुगतान की. ग्राहक को औसत या निचले दर्जे का उत्पाद मिलता है, और बेचने वाले को पूर्व में हुए समझौते से कम राशि का भुगतान.
ओरिज्जी ने इस अर्थव्यवस्था को काकोनॉमिक्स का नाम दिया जिसमे दोनों पार्टियों में एक दोहरा सौदा होता है : जिसमें दोनों एक उच्च गुणवत्ता के स्तर पर आदान प्रदान करने के अपने इरादे की घोषणा करते हैं, लेकिन एक मौन समझौते के तहत ऐसी कोई उम्मीद नहीं रखते. (Kakonomics, from the Greek “kako-“, meaning harsh or incorrect (sucky, basically), and the suffix “-nomics”, meaning “give me a lucrative book deal”.
उदहारण के लिए, आप संगमरमर खरीदना चाहते हैं. अच्छे संगमरमर के लिए अच्छी कीमत देनी होगी. लेकिन ग्राहक वह कीमत देने को तैयार नहीं है. परिणाम यह हुआ कि दूकानदार चिटका, निम्न क्वालिटी का संगमरमर बेचेगा और ग्राहक भी कम कीमत देगा. दोनों पार्टी खुश, भले ही माल खराब हो या पैसा कम मिले.
यही हाल पब्लिक सर्विस या जन सेवाओं का है. क्योकि भारत का अभिजात्य वर्ग काकोनॉमिक्स का मास्टर है. उसे पता है कि जनता को सस्ती कीमत पे उच्च सेवा का वादा देकर वह बरगला सकता है क्योंकि जनता भी प्रदूषित पानी, उतार चढ़ाव वाली बिजली, वह भी कुछ घंटो के लिए, टूटी-फूटी सड़के, देर से पेंशन, राशन में चोरी इत्यादि को सहन कर लेगी, क्योकि कीमत कम है और उसे अच्छी गुणवत्ता की आशा नहीं है.
जबकि वही अभिजात्य वर्ग प्राइवेट टैंकर का पानी, जेनेरेटर से बिजली, प्राइवेट सिक्योरिटी, हवाई जहाज़ इत्यादि का प्रयोग करके अच्छी गुणवत्ता की सेवाएं अच्छे दाम देकर या हमारे टैक्स के पैसे से फ्री में ले रहा है.
इसी अभिजात्य वर्ग ने जनता को बरगला कर स्वतंत्रता के बाद से कब्ज़ा किया हुआ था. सन 2000 से सिनेमा का टिकट कम से कम पांच गुना बढ़ गया, रेस्टोरेंट में खाने का दाम बढ़ गया, चाय महंगी हो गयी, लेकिन पिछली सरकार के समय रेल का भाड़ा – उपशहरी, लोकल, सामान्य, नॉन-AC का – नहीं बढ़ा.
क्योकि इन्ही लॉलिपॉप से भ्रष्ट elites ने सत्ता पर कब्ज़ा किया हुआ है, हमारी उन संस्थाओं को extractive (यानि कि, शोषण करने वाली) बना दिया. हमारी संस्थाएं – जैसे कि, सरकार, उद्योग, ब्यूरोक्रेसी, विधानसभाएं, NGOs इत्यादि elites – अभिजात वर्ग – ने कब्जिया लिया. उन्हें पता है कि स्लोगन, नारेबाजी, और सस्ते दामों के नाम पर वो मेजोरिटी को उल्लू बना सकते है. मतदान के द्वारा सत्ता परिवर्तन केवल एक भ्रम था.
शक्तिशाली अभिजात्य वर्ग अक्सर आर्थिक प्रगति के खिलाफ खड़े हो जाते है, क्योंकि वह अपने हित को – अपनी constituency – जैसे कि अपनी सीट, अपना उद्योग, अपना NGO – सुरक्षित रखना चाहते है.
उन्हें डर है कि आम जनता अगर सशक्त हो गयी तो उनका रचनात्मक विनाश (creative destruction) हो जायेगा. उनका आर्थिक स्थिति खो जाएगी. उन्हें अपने विशेषाधिकार खोने का डर है. और इसीलिए ‘वे’ ग्रोथ या विकास में बाधा डाल देते है, और हमारी आँखों पर पट्टी.
तभी मुझे लगता है कि पहली बार कोई सरकार जनता के हित की बात कर रही है, कह रही है कि हम बीस ट्रिलियन डॉलर (अमेरिका से भी बड़ी) की अर्थव्यवस्था बनाने का सपना क्यों नहीं देख सकते? कई ऐसी नीतियां बना रही है जो क्रांतिकारी साबित होंगी. इस अभिजात्य वर्ग की रीढ़ की हड्डी तोड़ देगी…!