‘पानी की टंकी में काई से कैसे मान लूं कि पानी पीने लायक नहीं है. इस पानी की लैब से जांच करवाओ‘.
‘लेकिन सर होस्टल के बच्चे खुद ऑफिशियल बयान दे रहे हैं, टंकी में काई जमी हुई है, इसके फ़ोटो भी है’.
‘नहीं मैं कैसे मान लूं कि पानी पीने लायक नहीं, मुझे लैब की टेस्ट रिपोर्ट चाहिए‘.
ये वार्तालाप नंबर वन कहे जाने वाले दैनिक अखबार के एक संपादक से हुआ संवाद है.
मेहनत से तैयार की गई रिपोर्ट को संपादक छापना नहीं चाहता. दरअसल उसके मन में ये डर है कि इस रिपोर्टर ने एक बार ‘रस्सी’ पकड़ ली तो छोड़ेगा नहीं.
वह येन-केन प्रकारेण रिपोर्टर को निराश करना चाहता है. लेकिन रिपोर्टर भी धरती पकड़ पहलवान है. वह भी मन ही मन जान रहा है कि संपादक उसे काम नहीं करने देगा.
‘सर इंदौर का स्वच्छता अभियान जहां से चल रहा, वो मुख्य अधिकारी ही गंदगी के ढेर पर बैठा है. ये देखिये फोटो’.
‘ये कूड़ा-करकट की खबरें मैं नहीं छापता‘.
‘लेकिन सर ये स्वच्छता से जुड़ा मुद्दा है’.
‘मेरे अखबार में ऐसी खबर नहीं लगेगी‘ (जैसे ये ही मालिक है अखबार का)
‘सर पहली बार आंकड़ा निकाला है इंदौर में चाकूबाजी के मामलों का. बहुत रोचक है. हथियार बनाने वालों के खिलाफ पुलिस ने अब तक बड़ा अभियान नहीं चलाया. एसपी साहब ने खुद स्वीकार किया है’.
‘तुमको रिपोर्टर किसने बना दिया. तुम पत्रकार बनने लायक नहीं हो‘. (रिपोर्टर को तोड़ने के अंतिम प्रयास में भाषा निचले स्तर पर जाने लगी और स्वर गड़बड़ाने लगा)
‘अंदर की खबरे लाओ, खुलासे करो. विभागों की खबर लाओ‘. (यानि जन सामान्य के लिए खबरे मत बनाओ, सनसनीखेज बनाओ ताकि अखबार बिके और मेरी कॉलर ऊंची हो जाए).
‘मुझसे मिलने कलेक्टर / एसपी क्यों नहीं आते, क्या वो तुम लोगों से नहीं डरते‘ (ये शहर है भैया, आपका गांव नहीं जो गश्त पर जाते समय एसपी एक चाय आपके साथ पीने आ जाए)
ये एक बानगी समझें. ऐसे संपादकों से ही ये फील्ड भरी पड़ी है. किसी का कॅरियर खत्म करने में इनके हाथ जरा भी नहीं कांपते. ये रंगे सियार हैं.
पत्रकारिता को लेकर इनका कोई उद्देश्य नहीं है. ये और इनका कुनबा ‘कैंसर’ है जो पत्रकारिता को खा गया है.