चील बड़े ऊंचे वृक्षों पर अपने अंडे देती है. फिर अंडों से बच्चे आते हैं. वृक्ष बड़े ऊंचे होते हैं. बच्चे अपने नीड़ के किनारे पर बैठकर नीचे की तरफ देखते हैं, और डरते हैं, और कंपते हैं. पंख उनके पास हैं. उन्हें कुछ पता नहीं कि वे उड़ सकते हैं. और इतनी नीचाई है कि अगर गिरे, तो प्राणों का अंत हुआ. उनकी मां, उनके पिता को वे आकाश में उड़ते भी देखते हैं, लेकिन फिर भी भरोसा नहीं आता कि हम उड़ सकते हैं.
तो चील को एक काम करना पड़ता है.. इन बच्चों को आकाश में उड़ाने के लिए कैसे राजी किया जाए! कितना ही समझाओ—बुझाओ, पकड़कर बाहर लाओ, वे भीतर घोंसले में जाते हैं. कितना ही उनके सामने उड़ो, उनको दिखाओ कि उड़ने का आनंद है, लेकिन उनका साहस नहीं पड़ता. वे ज्यादा से ज्यादा घोंसले के किनारे पर आ जाते हैं और पकड़कर बैठ जाते हैं.
तो आप जानकर हैरान होंगे कि चील को अपना घोंसला तोड़ना पड़ता है. एक—एक दाना जो उसने घोंसले में लगाया था, एक—एक कूड़ा—कर्कट जो बीन—बीनकर लाई थी, उसको एक—एक को गिराना पड़ता है. बच्चे सरकते जाते हैं भीतर, जैसे घोंसला टूटता है. फिर आखिरी टुकड़ा रह जाता है घोंसले का. चील उसको भी छीन लेती है.
बच्चे एकदम से खुले आकाश में हो जाते हैं. एक क्षण भी नहीं लगता, उनके पंख फैल जाते हैं और आकाश में वे चक्कर मारने लगते हैं. दिन, दो दिन में वे निष्णात हो जाते हैं. दिन, दो दिन में वे जान जाते हैं कि खुला आकाश हमारा है, पंख हमारे पास हैं.
हमारी हालत करीब—करीब ऐसी ही है. कोई चाहिए, जो आपके घोंसले को गिराए. कोई चाहिए, जो आपको धक्का दे दे.
गुरु का वही अर्थ है…