मैं ईश्वर की प्रयोगशाला हूँ

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यूं तो हर इंसान ऊपरवाले की प्रयोगशाला में एक उपकरण मात्र है. जिस पर वह अपना प्रयोग करता है और उपकरण के गुणधर्मों के अनुसार कोई न कोई ऐसा रसायन तैयार करता है जिससे उपकरण की उपयोगधर्मिता, उसके गुण और अधिक उन्नत हो सके.

लेकिन मेरे जीवन में जितने भी प्रयोग वो महामाया करती रहती है लगता है, मैं सिर्फ एक उपकरण नहीं, उसकी पूरी प्रयोगशाला हूँ.

कई बार इस प्रयोगशाला को मैंने मानसिक और आध्यात्मिक ही नहीं, भौतिक रूप से भी ध्वस्त होते देखा है और कई बार ध्वस्त मलबे से पुनर्निमाण या जिसे मैं पुनर्जीवन कहती हूँ… होते देखा है.

इस प्रयोगशाला को उसने जब जब ध्वस्त करके पुनर्निमाण किया है… वो पहले से अधिक उन्नत और उपकरणों से सुसज्जित बनी है.

इस प्रयोग में न सिर्फ दुर्गुणों, कभी कभी सद्गुणों को भी मिटना पड़ता है… मेरे जीवन की प्रयोगशाला में महामाया ने न सिर्फ ईर्ष्या, नफरत, कुंठा पर काम किया है, बल्कि सबसे अधिक प्रयोग प्रेम पर किया है. प्रेम के वास्तविक अर्थ प्रकट करने के लिए…

पता नहीं लोग प्रेम, प्यार, इश्क़ की कितनी बड़ी और गहरी परिभाषाएं देते हैं… रिश्तों की लम्बाई समय में नापने के बाद उन्हें किसी दिन पता चलता है कि शायद प्यार जैसा कुछ हुआ है… लेकिन मेरे लिए तो बस एक क्षण की बात होती है… प्रेम है… उसके बाद उस पर सारे प्रयोग होते हैं…

प्रयोग भी सबकुछ विध्वंस कर देने की कगार तक… बकौल स्वामी ध्यान विनय “विनाश और विध्वंस नए सृजन के लिए”. और ये सृजन मेरे अकेले का नहीं होता, मेरे दायरे में आ रहे हर उस व्यक्ति का होता है जो मेरे साथ इस विध्वंस होने की प्रक्रिया को पूर्ण समर्पण के साथ झेल सके.

आते हैं कई लोग समर्पण के बड़े बड़े दावे लेकर… और कुछ ही प्रयोग के बाद उनका स्वाभिमान जाग जाता है. और मुझे सिखा जाता है एक नया सबक… पात्र चुनने की स्वतंत्रता भले मेरी है, जिसे मैं प्रेम कहती हूँ.. लेकिन पात्र अपनी पात्रता बनाये रखने में हमेशा सफल नहीं होता… और यकीन मानिये मैं दोतरफा पीड़ा झेलती हूँ … उसकी पीड़ा भी मुझे ही झेलना होती है और मेरी पीड़ा तो मैं किसी के साथ बाँट भी नहीं सकती…

मेरी प्रेम की परिभाषा में लेने जैसा कोई भाव नहीं होता, मेरी कभी कुछ लेने की चाह नहीं होती, मैं हमेशा देने ही आती हूँ… और देने का ये भाव ताउम्र बना रहता है… इसलिए उनके माथे पर भले प्रेम और वात्सल्य से भरा चुम्बन न दे सकूं लेकिन पीठ फेरकर जाते हुए भी वो आशीर्वाद तो पा ही लेते हैं.

एक पुराना किस्सा है. 2006 में इंदौर में एक स्कूल में शिक्षिका थी, पर्सनालिटी डेवलपमेंट की. तो बच्चों के साथ तरह तरह के खेल और प्रयोग करते हुए, उन्हें रोज़ कुछ नया सिखा देती थी. जो उनको और अधिक ऊर्जावान और सभी के प्रति प्रेममय बनाने के लिए होता था.

उसी स्कूल में एक शिक्षक थे, बहुत सीधे सादे से… लेकिन हट्टे कट्टे जवान… अक्सर प्रिंसिपल से किसी न किसी बात पर डांट खाते हुए. हमारे विषय बहुत अलग थे इसलिए कभी कोई संवाद नहीं होता था. एक बुझे हुए चेहरे के साथ उनको सुबह आते देखती, और उसी मायूसी के साथ लौटते हुए. बस ये दो समय ही मैं उन्हें देख पाती थी.

मेरे मन में अक्सर ये ख़याल आता था.. अरे ये आदमी तो मर रहा है… शरीर से भले ज़िंदा रहेगा… तंदरुस्त रहेगा.. लेकिन चेतना के किसी स्तर पर मैं उसकी मृत्यु देख पा रही थी.

फिर मैंने एक प्रयोग करना शुरू किया. सुबह स्कूल पहुँच कर और स्कूल छूटने के समय मैं जान बूझकर उसके सामने से गुजरने लगी. दो तीन दिन तक उसका ध्यान नहीं गया… चौथे दिन उसे लगा कोई दो आँखें हैं जो उसे देख रही है…

पहले कुछ दिन बहुत सहज भाव से उसने नज़रें मिलाई. कभी नज़रें चुराई भी कि कहीं किसी और ने उसे देखते हुए देख लिया तो लोग बाते बनाएंगे… हम आधा जीवन तो इसी चिंता में ख़त्म कर देते हैं कि लोग क्या कहेंगे. इस मामले में मैं शुरू से विद्रोही रही हूँ, तो मैं बिना किसी की चिंता किये आँखों में पूरा प्रेम उड़ेल कर उसे दोनों समय देख लिया करती थी…

सिर्फ एक हफ्ते के अन्दर उस आदमी को मैंने ज़िन्दा कर दिया था… फिर वो सुबह आता तो आँखें बुझी हुई नहीं, मेरी तलाश में इधर उधर फिरती दिखती थी, और मुझे देखते से ही चमक उठती थी… पूरे छः घंटे का स्कूल का समय वो इस प्रतीक्षा में काटता कि जाते समय मैं उसे देखती हुई मिलूंगी.

आप यकीन मानिए, मैं पूरे दो साल उस स्कूल में रही, न मैंने उससे कभी बात की, न उसने कभी ऐसा कोई प्रयास किया. मुझे उसके प्रति कोई आकर्षण नहीं था, न ही मैं उससे कुछ पाना चाहती थी.. बस एक किसी अद्भुत क्षण में अन्दर से आवाज़ आई… प्रेम… और मैं पूरी की पूरी प्रेम में तब्दील हो गयी… और माध्यम थी बस ये दो आँखें…

पता है ना ये आँखें चोर खिड़कियाँ होती हैं, इसमें से आप झांककर सामने वाले का पूरा ख़याल रख सकते हो. जैसे माँ खिड़की में से झांककर आँगन में खेलते बच्चों पर एक नज़र रखे रहती है. इतना ख़याल आप अपने देह के दरवाज़े पूरी तरह खोलकर भी नहीं रख पाते कई बार.

ये किस्सा और ऐसे कई किस्से मेरे ज़हन में बरसों तक ताले में बंद पड़े रहे, क्योंकि उस समय मैं जिन लोगों के बीच रह रही थी, ऐसे किस्सों का उजागर होना सीधे सीधे चरित्रहीनता का प्रमाणपत्र था. वो तो खैर बाद में भी मिला ही. लेकिन मैंने कब दुनिया की फिक्र की है.

फिर जीवन में आगमन हुआ स्वामी ध्यान विनय का, तब उनको एक बार यह किस्सा सुनाया… वो कुछ नहीं बोले… मेरे पापा के सबसे पसंदीदा गाने की दो पंक्तियाँ गुनगुना दी…
“सूरज ना बन पाए तो बनके दीपक जलता चल”….

और फिर उनकी बाहें थी मेरा सिर और आँखों से झरते आंसू… ये आदमी मेरे जीवन में न होता तो मैं भी उस शिक्षक की तरह चेतना के किसी स्तर पर मर चुकी होती… देह की लाश ढोते हुए…

 

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