सबसे पहली बात तो ये है कि भारत की आबादी का करीब 22% अपनी किशोरावस्था में है. अगर 2011 के जनगणना के आंकड़ों की मानें तो भारत में करीब 24 करोड़ किशोरावस्था (10 से 19 वर्ष) की आयु के लोग हैं.
जनता का सवा सौ करोड़ में से करीब बीस फीसदी अगर इस आयु का हो तो वो देश के लिए खुश होने की बात होनी चाहिए.
अब जब हम ये जोड़ लें कि इस चौबीस करोड़ में से 70 फीसदी के करीब लड़कियां, और करीब 50 प्रतिशत लड़के खून की कमी (अनीमिया) से जूझ रहे होते हैं तो यही आंकड़ा भयावह भी लगने लगता है.
इसके साथ ही ये जोड़िये कि यूनिसेफ की 2016 में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक, इन में से 47% लड़कियों की शादी अट्ठारह वर्ष के होने से पहले ही हो जायेगी तब ये आंकड़ा और डराने वाला लगता है.
यहाँ एक बड़ा कमजोर सा तर्क पेश किया जाता है कि समाज के एक बड़े हिस्से में शादी और गौना अलग अलग चीज़ें हैं. इसलिए आप बच्चों के विवाह को विवाह कहके सही नहीं कर रहे.
डाटा को थोड़ा और देखें तो इसका जवाब भी अपने आप ही मिल जाता है. इसी 2011 का सेन्सस और भी काफी कुछ बताता है.
2011 का सेन्सस ये भी बताता है कि करीब 20 लाख लड़कियों की शादी हो चुकी है. इन्हीं कम उम्र लड़कियों के दस लाख बच्चों में से दस प्रतिशत की मौत हो गई. तो गौना नहीं होता जैसी बातें पूरी तरह सच नहीं है.
डाटा को और गौर से देखें तो दिखता है कि 10-14 साल की लड़कियों में से पांच प्रतिशत में से भी कम की शादी हुई थी. यही आंकड़ा 14 से 19 के बीच देखते ही फ़ौरन बीस फीसदी से ऊपर चला जाता है.
ये कहा जा सकता है कि रजस्वला होते ही लड़की की शादी करवाने का चलन है. साहित्य में ‘उसने कहा था’ नाम की विख्यात कहानी का “अभी पंद्रह की नहीं हुई, अभी गौना नहीं हुआ” वाला हिस्सा भी याद ही होगा.
पहले से ही अशिक्षा और गरीबी का दंश झेल रहे अनुसूचित जातियों में ये बाल विवाह की दर अन्य समुदायों से करीब डेढ़ गुना तक ज्यादा है. अनुसूचित जातियों में बाल विवाह की दरें अलग अलग जगहों पर 35% के आस पास तक देखी गई हैं जबकि अन्य जातियों में ये 20% के आस पास मंडराती होती है.
कुछ लोग इसे नारीवादी, यानि लड़कियों की समस्या कहकर भी कालीन के नीचे धकेलना चाहते हैं. सच्चाई ये है कि शादी के लिए लड़के का कमाऊ होना भी एक जरूरी गुण होता है. यानि मैट्रिक पास करने से पहले ही पढ़ाई छोड़कर उस पर कमाने जाने का दबाव होगा.
बिहार में ये दिखता है कि करीब आधी शादियाँ बाल विवाह ही हैं. ऐसे में मुख्यमंत्री नितीश कुमार का बाल-विवाह और दहेज़ के खिलाफ़ चलाया जा रहा अभियान निस्संदेह एक अच्छा कदम है.
राजनैतिक दिग्गजों के जुड़ने से ऐसी सामाजिक समस्याएँ जिनसे कानून अकेले निपटने में असमर्थ है, उनका मुकाबला करने में मदद मिलेगी. कल का सवेरा एक नया दिन लाएगा, आखिर इसी उम्मीद के साथ तो हर नयी शुरुआत होती है.