कहीं राम-राम का जप मरा-मरा तो नहीं हो रहा?

आज सुबह-सुबह छोटे बेटे गीत बाबू अपनी एक नई फरमाइश के साथ हाज़िर हुए, मैंने अपनी सुविधा अनुसार उन्हें कल का आश्वासन देते हुए कहा- कल पक्का ला दूंगी.

गीत बाबू का जवाब- लेकिन मम्मा कल तो कभी आता ही नहीं.

मुझे लगा मैंने बात कल पर टाल दी इसलिए शिकायती लहजे में कह रहे होंगे, मैंने पूछा- कल क्यों नहीं आएगा?

उनका जवाब था – क्योंकि कल तो आते-आते आज बन जाता है, तो फिर कल कैसे आएगा?

इतने छोटे बच्चे के मुंह से इतनी बड़ी बात सुनकर मैं अचंभित थी, जब उनसे पूछा गया कि आपको ये किसने बताया कि कल कभी नहीं आता तो पता चला बड़े सुपुत्र के दिमाग की उपज है.

उनसे पूछा गया आपको किसने बताई ये बात तो उनका जो उत्तर आया उसने मुझे और भी अधिक अचंभित किया, कहने लगे – जब मैं आपके पेट में था तभी ये सब बात पता चल गयी थी… और वैसे भी मुझे सब पता होता है क्योंकि मैं एक अलग तरह का भगवान हूँ और आपको पता नहीं क्या कि मैं इस धरती पर सबसे पहले आया हूँ.

शब्दों में कहीं अतिशयोक्ति न बरतते हुए मैंने ज्योतिर्मय की बातें ज्यों की त्यों आप लोगों के सामने रख दी हैं. उनका दिमाग आम बच्चों से काफी अलग तरह से विकसित हो रहा है ये तो हमें तभी पता चल गया था जब उन्होंने खुद ही बताया था कि शक्ति का रंग लाल होता है, और ये जो मेरे हाथ में लकीरें बनी है ना वो तभी बनना शुरू हो गयी थी जब मैं मम्मा के पेट में था.

हम बहुत कोशिश करते हैं कि उनके सामने ऐसी कोई बात न करें जो उनके विचार क्षेत्र के बाहर की हो लेकिन वो खुद ही अपनी सीमाओं को तोड़कर जब इस तरह की बातें करते हैं तो हमें इस बात पर विश्वास प्रबल हो जाता है कि आत्माएं पूर्वजन्म की विद्या साथ लेकर ही पैदा होती हैं. और ये जो हम अध्यात्म, प्रकृति, सत्य की खोज में बड़ी-बड़ी दार्शनिक बातें सोचते रहते हैं, आने वाली पीढ़ी उसे पार कर के ही जन्म ले रही है.

इससे बड़ा सत्य और क्या हो सकता है कि कल कभी नहीं आता, वो तो आते आते ही आज में बदल जाता है. सच भी तो है यहाँ सब वस्तुएं तो सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं है. और इस सापेक्षता के अपने नियम, लाभ और हानि भी तो हैं. पानी पर पड़ती परछाई की भांति ही तो है सत्य भी. जब तक वस्तु है तब तक उसकी पानी में परछाई भी है, लेकिन उस परछाई को पकड़ने के लिए हम पानी के अस्तित्व को नकारते हुए उसमें छलांग लगा दें तो डूबना तो निश्चित ही है.

जैसे सूर्य भी पृथ्वी के सापेक्ष ही पूर्व से उदित और पश्चिम में अस्त होता प्रतीत होता है, लेकिन केवल प्रतीत होने के बावजूद दिन, रात के अलावा मौसम भी बदलते हैं और बदलते मौसम के साथ हमारे क्रिया कलापों और शरीर पर प्रभावों में भी बदलाव आता है.

सापेक्षता के सिद्धांत पर ही सूर्य जिस दिशा से उगता प्रतीत होता है उस ओर हम जल का अर्घ्य देकर उस परमात्मा को धन्यवाद देते हैं कि हमें किसी और ग्रह पर जन्म न देकर पृथ्वी पर जन्म देकर कृतार्थ किया है. हो सकता है किसी और ग्रह के लोग अपने सूर्य की उपासना करते हुए उस परमात्मा के अस्तित्व को बनाए रखे हों जिसे उन्होंने देखा नहीं. लेकिन जैसे हमने उन्हें आठ हाथों के बल जितना शक्तिशाली और तीन खोपड़ियों जितना ज्ञान और जाने क्या क्या उपमाएं और कल्पनों में साकार किया है वैसे ही किसी और परिस्थिति के अनुसार, वैसे ही किसी ग्रह के एलियंस ने उस परमात्मा की मूरत हम साधारण मानव जैसी बनाई हो.

हमारे ऋषि मुनि और ग्रन्थ जो कहते आए हैं ये संसार माया है जहां जो दिखाई देता है वास्तव में वो है ही नहीं तो क्या गलत कहते हैं लेकिन उनकी बातों को मानकर बैठ जाने से कि जब जगत माया है तो कुछ करने की क्या आवश्यकता है, तो जीवन की निरंतरता और आत्मा की उन्नति दोनों ही रुक जाएगी.

अध्यात्म, दर्शन, मनोविज्ञान, कला, साहित्य सबकुछ उस आत्मोन्नति के मार्ग की खोज है. जिस दिन जिस किसी को इस माया का पता चल जाता है वह सत्य की खोज, उसके तर्कों, द्वंद्वों और बहसों से बाहर हो जाता है और लोगों को मार्ग दिखा जाता है कि जाओ हमने इस मार्ग से सत्य को पाया है. लेकिन ये भी सत्य है कि अपना मार्ग उन लोगों द्वारा दिखाए गए मार्ग से अलग भी हो सकता है. अक्सर अलग ही होता है.

इसलिए आस्था रखोगे तो एक दिन मरा-मरा का जप करते हुए भी राम को पा लोगे लेकिन आस्था नहीं होगी तो कितना भी राम-राम जप लो वो मरा-मरा ही प्रतिध्वनित होगा.

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