तुम बहुत देर से आए साजन,
तुम तब आते न,
जब बाद -ए – सबा के जैसे महकती थी मैं,
तुम तब आते न,
जब हसीं ख्वाब तैरते थे मेरी आँखों में,
तुम तब आते न,
जब मेरे पाँव नाचते थे मोरनी से,
जब मेरी कमर लहरा लहरा जाती थी,
हरे भरे खेतों सी,
जब मेरे गेसूं घने काले लंबे खुल खुल जाते थे,
घटाओं से;
जो तुम तब आते, मेरे साजन,
तुम्हारे चेहरे को ढँक अपने गेसुओं से,
मैं काले घने बादलों सी हो जाती,
अपने सजीले ख्वाब तुम्हारी आँखों में भर,
चांदनी सी हो जाती
अपनी आब से महका देती जीवन सारा,
पायल सी बजती तुम्हारे कानों में,
जुगनू सी चमकती अँधेरे सायों में,
पी जाती हलाहल तुम्हारे तक पहुँचने से पहले;
मगर तुम बहुत देर से आये साजन,
तुम कहते हो,
तुम्हें सिर्फ़ ‘साजन’ सुनता है,
मुझे तो सुनते हैं बाकी के शब्द भी,
मैं नहीं चल सकती अब तुम्हारे साथ,
काश मैं लौट सकती ज़िंदगी के उस पड़ाव में,
जहाँ तुम खड़े हो,
पर ऐसा हो नहीं सकता,
मेरे हमनफ़ज़,
तो तुम्हें जाना होगा,
वक़्त ने चाहा तो फ़िर कहीं और,
कभी और मिलेंगे,
हालाँकि कल पे कोई है ऐतबार नहीं मेरा,
जो है बस यही इक पल है,
तो फ़िर हम अब कभी नहीं मिलेंगे,
या फ़िर मिलेंगे वक़्त के उस पार,
जहाँ वक़्त अपने सब मायने खो देता है…
तुम इतनी देर से क्यूँ आये, साजन….?