वामपंथ से जीतना है तो पॉलिटिकल करेक्टनेस को करिए अस्वीकृत और अनधिकृत

क्रिटिकल थ्योरी यानि कीचड़ उछालो थ्योरी वाले लेख पर किसी ने यह बहुत प्रासंगिक प्रश्न पूछा – सबकी आलोचना करने वाले, क्रिटिकल थ्योरी वाले ये वामपंथी कभी भी इस्लाम की आलोचना क्यों नहीं करते?

[वामपंथ की क्रिटिकल थ्योरी : कुछ भी सम्माननीय और पवित्र नहीं, सबको कीचड़ में लपेटो]

प्रश्न वाजिब है, उत्तर सरल… किसी की भी तलवार और ढाल आपस में नहीं लड़ती….

इस्लाम वामपंथ का स्ट्राइक आर्म है. वामपंथ के पास इतना संख्या बल कभी नहीं होगा कि वे अपने बल पर सत्ता पर कब्जा कर सकें. उनका उपद्रव मूल्य (Nuisance value) है.

वे अव्यवस्था और गंदगी फैला सकते हैं. पर शक्ति के लिए वे इस्लाम की शक्ति का प्रयोग करने से परहेज नहीं करेंगे. इस्लाम के लिए भी वे उपयोगी मूर्ख हैं… इस्लाम को भी उनका उपयोग करने से परहेज नहीं है.

इस्लाम तलवार है… फिर इनकी ढाल क्या है?

ढाल है पॉलिटिकल करेक्टनेस.

पॉलिटिकल करेक्टनेस का उपद्रव भी फ्रैंकफर्ट स्कूल की देन है. 60 के दशक में इन्हीं में से एक ने (इन सभी बुद्धि-पिचाशों के अलग अलग नाम लेकर इन्हें प्रचार देने का इरादा नहीं है) एक कॉन्सेप्ट दिया – रिप्रेसिव टॉलरेन्स.

इसे कुछ ऐसे परिभाषित किया गया कि समाज को स्थापित मूल्यों के प्रति असहिष्णु होना चाहिए और वैकल्पिक मूल्यों के लिए सहिष्णु होना चाहिए. यानि परंपरागत सामाजिक मूल्यों पर प्रहार जारी रखा जाए और इनके सुझाये मूल्यों के विरुद्ध कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता नहीं हो.

लगभग उसी समय माओ ने चीन में सिद्धांत दिया कि समाज में सिर्फ मार्क्सवाद द्वारा प्रमाणित ‘वैज्ञानिक’ जीवन मूल्यों को ही मान्यता दी जाए.

इस तरह से इन वामियों ने अपने चुने हुए कुछ मुहावरे समाज पर स्थापित कर दिए, और उनके विरुद्ध कुछ भी बोलना असहिष्णुता गिना जाने लगा.

ये वैकल्पिक वामपंथी सिद्धांत ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ सिद्धांत गिने गए… इनके विरुद्ध कुछ भी बोलना सोचना संभव नहीं रह गया.

नंगापन और यौन उच्छृंखलता नारीवाद के पीछे छुप गया, इस्लामिक आतंकवाद सेक्युलरिज्म और सर्व-धर्म सम्मान के पीछे छुप गया, कामचोरी और निकम्मापन समानता की माँग के पीछे छुप गया, अनुशासनहीनता और आपराधिक मनोवृति सामाजिक भेदभाव के विरोध के पीछे जाकर छुप गया.

स्कूलों में खूब एग्रेसिव तरीके से इनकी ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ सोच को घुसा दिया गया. ये किसी के भी विरुद्ध, किसी भी स्थापित मूल्य के विरुद्ध कुछ भी अनर्गल बोल सकते हैं… वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है…

आप उनके किसी भी असामाजिक, कुसांस्कृतिक, यहाँ तक कि देशद्रोही गतिविधि के विरुद्ध कुछ भी नहीं बोल सकते… आप उनके किसी ना किसी सिद्धांत को तोड़ रहे हैं, किसी ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ सीमा रेखा का उल्लंघन कर रहे हैं… कहीं स्त्री के सम्मान का हनन हो रहा है, कहीं निजता के अधिकार का तो कहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का.

वे लोकतांत्रिक मूल्यों का हवाला भी देते हैं… अगली ही साँस में लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए एक प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को अपशब्द कहकर अभिव्यक्ति वाली दीवाल के पीछे छुप जाते हैं. उनका हर योद्धा किसी ना किसी पॉलिटिकल करेक्टनेस की आड़ लेकर बैठा है…

हमारी समस्या यह है कि हम अक्सर अपने विमर्श में इन्हीं पॉलिटिकली करेक्ट मूल्यों को मान्यता दिए बैठे हैं. बिना यह समझे कि ये सारे शब्द जिनकी महत्ता और मर्यादा की दुहाई देते हुए हम आपस में लड़ते हैं, वे सभी किसी ना किसी देशविरोधी, धर्मविरोधी या समाजविरोधी शक्ति की ढाल हैं.

एक देशद्रोही चैनल मीडिया की स्वतंत्रता के पीछे छुपा है, एक समाजविरोधी फिल्मकार कलात्मकता की स्वतंत्रता के पीछे, दो नंबर के पैसे को सफेद करने वाला एक दलाल समाजसेवा के पीछे छुपा है, तो नक्सलियों और जिहादियों की फौज धर्मनिरपेक्षता की ओट लिए खड़ी है…

सॉल अलिन्सकी के ‘रूल्स फ़ॉर रेडिकल्स’ का पहला नियम है – शक्ति सिर्फ वह नहीं है जो आपके पास है… शक्ति वह भी है जो शत्रु समझता है कि आपके पास है. तो ये नियम सिर्फ वामपंथी ही इस्तेमाल करें जरूरी नहीं है… हमें भी समझने चाहिए.

हमने इन वामियों को सामाजिक विमर्श की भाषा निर्धारित करने की शक्ति दे दी है, जो उनके पास वास्तव में नहीं है. यह शक्ति उनकी है, ऐसा सोचने से ही यह शक्ति उन्हें मिली है… हम जब वापस छीन लेंगे, नहीं रहेगी.

इन वामियों से इनकी शक्ति छीन लीजिये. इनका पॉलिटिकल करेक्टनेस का किला ढहा दीजिये… ये खुले में खड़े होंगे…

नहीं, हम आपके बनाये हुए झूठे मानकों को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता गई तेल लेने… कलात्मक सम्प्रेषण दो पैसे की चीज नहीं है…

किसने कहा कि सभी धर्मों को समान अधिकार हैं? संविधान ने? संविधान सौ दफा संशोधित हो चुका है… उसकी क्या औकात है? संविधान देश चलाने के लिए बनाया गया है… देश इस संविधान को खपाने के लिए नहीं है.

नारीवाद क्या होता है? यह देश सीता और सावित्री जैसी नारियों की पूजा करता है, किसी वाद के बहाने से ताड़काएँ और पूतनाएँ सीताओं-सावित्रियों की बराबरी नहीं कर सकतीं.

खुल कर प्रश्न कीजिये… पॉलिटिकल करेक्टनेस के हर मानक को अस्वीकार कीजिये… वह एक सिद्धांत नहीं है, शत्रु का बंकर है! वह टूटा तो शत्रु सामने होगा…

और शस्त्र के नाम पर उसके पास अकेला शस्त्रसज्जित इस्लाम है… बिना पॉलिटिकल करेक्टनेस को अस्वीकृत और अनधिकृत किये यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती.

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