करीब पचासी वर्ष के राजगुरु नन्दीदत्त ने सामन्त को कोई कड़वी दवा पिलाते हुए कहना शुरू किया, “तो सुन, कहते हुए तो मेरा कलेजा काँपता है, लेकिन तुझे अपने पूर्वजों की शौर्यगाथा सुननी तो पड़ेगी ही.
तुम पिता पुत्र के यहाँ से सोमनाथ को प्रस्थान करने के कुछ ही दिन पश्चात् यह सूचना मिल गई कि गजनी का महमूद एक विशाल सेना लेकर भगवान् सोमनाथ का धाम तोड़ने आ रहा है.
लम्बे तगड़े तेजस्वी घोघाबापा ने अपनी धवल श्वेत मूंछों पर ताव देते हुए अट्टहास किया और कहा, “आ तो सही तू मलेच्छ. लोहकोट में भीमपाल बैठा है, मुल्तान में मुखिया अजय सिंह है, सपालदक्ष में मेरा वीर मित्र बालमदेव और रेगिस्तान के मुख पर साक्षात् मैं बैठा हूँ. पहले इन सबसे बचकर तू आ तो सही.”
“फिर कुछ दिन बीते, तो समाचार मिले कि लोहकोट के भीमपाल का कायर पुत्र जयपाल, उस मलेच्छ से हाथ मिलाकर अपने पूर्वजों की कीर्ति को मिट्टी में मिला लिया है. उसके बाद मुल्तान के मुखिया अजयसिंह ने भी उससे संधि कर ली.
महमूद की सेना, मुल्तान राज्य की नारियों से जबरन यौनेच्छा पूर्ति कर रही थी, और उसका मुखिया महमूद के संधि प्रस्ताव को लेकर हर राज्य में घूम रहा था. जब से गजनी के सुल्तान ने मुल्तान में ऐश करना शुरू किया, घोघाबाप्पा एक दम चुप हो गए थे. उनकी सफ़ेद मूंछे गुस्से से खड़ी हो गईं थी. वो गुस्से और असमर्थता में बिलकुल गंगापुत्र भीष्म की तरह दिखने लगे. फिर उस मलेच्छ का संधि प्रस्ताव लेकर दो लोग आये, एक तो यवन युवक सालार मसूद और दूसरा भारतवंशी एक नाई, दुभाषिये के काम के लिए.”
सामन्त ने बहुत ठंडी आवाज में पूछा, “फिर क्या कहा घोघाबाप्पा ने?”
नंदिदत्त की बूढी हड्डियों में जान आ गई. वो अकड़ कर बोला, “घोघाबाप्पा ने उस मलेच्छ की रत्नों से भरी थाल को, लात की एक ठोकर से उड़ा कर कहा, ‘हर भारतीय बिकाऊ नहीं है. जाकर अपने उस कायर सुल्तान से बोल देना.’
कहकर जो उन्होंने एक हाथ से मूंछों को ताव दिया और दूसरे से ताल ठोंकी, उस महावीर की यह छटा देखते ही बनी. उस मलेच्छ यवन का चेहरा देखते ही बन रहा था. घोघाबाप्पा ने दूत की मर्यादा रखते हुए उसको जान से बख्श दिया, नहीं तो वो दोनों वहीँ मरे पड़े होते.”
“आगे क्या हुआ?” सामन्त ने पूर्ववत ठन्डे लहजे में ही पूछा.
नंदिदत्त शुरू हुए, “फिर होना क्या था? कुछ ही दिनों में सुलतान महमूद की अट्ठारह अक्षौहिणी सेना (एक अक्षौहिणी में 21,870 रथ, 21,870 हाथी, 65,610 सवार और 1,09,350 पैदल सैनिक होते हैं.) ने दुर्ग को घेर लिया साँपों की भांति. लेकिन हमारा पर्वत पर स्थित दुर्ग, संसार का अद्भुत योद्धा ही जय कर सकता था. महमूद को कई दिन हो गए दुर्ग को घेरे हुए. इधर आठ सौ राजपूत सैनिक तैयार बैठे थे किसी भी अनहोनी को लेकर.
महमूद नीचे रेगिस्तान में फुंफकारता घूम रहा था. फिर उसको लगा कि इस अजेय दुर्ग को जीतने के चक्कर में कई वर्ष लग जायेंगे, तो एक सुबह देखा गया कि उसकी सेना दुर्ग के बगल से रेगिस्तान में घुस गई. ये देखकर राजपूत बहुत हर्षित हुए कि मलेच्छ हार गया. लेकिन घोघाबाप्पा के मुख से चिनगारियाँ निकल पड़ीं.
“तुम लोग किस बात की ख़ुशी मना रहे हो? वो हमारा दुर्ग विजित नहीं कर पाया या वो हमें छोड़ कर सोमनाथ बाबा को भ्रष्ट करने आगे बढ़ गया? लानत है हमको हमारे खून में राजपूती खून होने से. जिस महादेव ने हमको धरती पर पैदा किया, अब वो हमें वापस बुला रहे हैं. ये हर्ष का नहीं ललकार का समय है. वो मलेच्छ हमारे बाबा का धाम तोड़ने जा रहा है. हमारे जीते जी? मैं अकेला जाऊंगा उसको रोकने, अगर कोई भी न आया साथ तो.”
राजपूत सैनिकों ने ख़ुशी को छोड़ कर, गर्व में अपनी तलवारें हाथ में निकाल कर बोले, “बाप्पा, गलती हो गई मूर्खता की वजह से. आप कहें तो अपनी गरदन काट दें.”
“बाप्पा ने कहा, “मूर्खों, पापी यवनों के सिर काट कर हमें अमर होना है. हम राजपूत हैं, अपना सर खुद क्यों काटकर आत्महत्या का पाप लेकर देवाधिदेव के दरबार में पहुंचना?”
“दुर्ग के दरवाजे खोल दिए गए. राजपूत लड़ाके अपनी अपनी वीरांगनाओं से तिलक करवा कर, घुंघरू वाले घोड़े और ऊँटनियों से बाहर निकले. बलिदान के मतवालों की वो छटा फाटक से निकलते हुए देखते ही बनती थी. उन सारे आठ सौ योद्धाओं को पता था कि आज जीवित वापस नहीं लौटना है, फिर भी किसी चेहरे पर दुःख, विषाद इत्यादि कि कोई छाया नहीं थी. ऐसे सजे हुए प्रफुल्लित और हर्षित थे जैसे अपनी बारात में जा रहे हों.”
“पहले तो यवन समझ ही नहीं पाए कि ये सेना की छोटी सी टुकड़ी उनके पीछे क्यों आ रही है. जब समझ आया कि ये तो मरने और मारने ही निकले हैं, तो वे चकित से रह गए. इतनी हिम्मत? इतनी बहादुरी? मरने का कोई खौफ नहीं?
फिर युद्ध हुआ, और भयानक युद्ध हुआ. राजपूत सेना तीर की तरह उस अट्ठारह अक्षौहिणी सेना में घुस गई. यवनों की सेना में हाहाकार मच गया. सबसे आगे थे बाप्पा घोघाराणा, केसरिया बाना और सफ़ेद चमकती दाढ़ी में वो साक्षात् गंगापुत्र भीष्म ही लग रहे थे. वो सुल्तान तक पहुँचने की कोशिश कर रहे थे. सुल्तान के सैनिक उसको सुरक्षित रखने का प्रयास कर रहे थे. धीरे धीरे बाप्पा की पगड़ी छिपती हुई दिखाई दी. उस अथाह सैनिकों के समुद्र को ये छोटी सी टुकड़ी भला कैसे पार कर पाती?”
नन्दीदत्त ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा, “मेरा बेटा, जिसको शस्त्र विद्या का ज्ञान नहीं नहीं था, उसको भी मैंने इस युद्ध में बापा के साथ भेजा था. जब हम ब्राह्मण जीते जी मोक्ष दिलाते हैं, तो मरने में अपने यजमान का साथ कैसे न दें. बाप्पा के गिरते ही मैं समझ गया कि अब बाप्पा के वचन का समय आ पहुंचा है.
मैंने आंसुओं को अपने हाथों से साफ़ करते हुए गढ़ में एकत्रित हुए बच्चों को छिपे रास्ते से बाहर निकलवा दिया. फिर तैयार रखी चन्दन की चिताओं में आग लगवा दी. कुल छः सौ वीरांगनायें थीं जिनके चेहरे की दिव्य आभा से देवताओं की स्त्रियां भी लजा रही होंगीं. सबने एक के बाद एक मंगल गीत गाते हुए उन जलती हुई चिताओं में प्रवेश करके जौहर कर लिया. एक भी नहीं हिचकी. मेरी खुद की पुत्रववधु जब मेरे पैर छूने आई तो हँस कर बोली, “क्या बापा, अपनी बेटी को रोते हुए विदा करोगे?”
“मैं सच कहता हूँ रे सामन्त, इच्छा हुई कि धरती अभी फटे और मैं उसमें समा जाऊँ. लेकिन बाप्पा का आदेश था कि मुझे जीवित रह कर तुम्हें और और तुम्हारे पिता सज्जन को चौहानों की इस यशगाथा को सुनाऊँ. बस इसीलिए ये वृद्ध ब्राह्मण जिन्दा रह गया.”
उसके बाद यवनों की सेना गढ़ में घुस आई! पहले सहमते, डरते हुए लेकिन फिर किसी अवरोध को न पाकर उत्पात मचाने लगी! लेकिन उनके हाथ आना ही क्या था!! छः सौ स्त्रियों की चिताएं जलती मिलीं केवल!! फिर उन्होंने मंदिर तोड़े, दरवाजे तोड़े और फिर सांप की तरह लहरा कर सेना रेगिस्तान में घुस गई!!
सामन्त रात भर खड़े होकर मंदिर के बाहर टहलते हुए ये कथा सुन रहा था. एक रात में ही वो अब बीस वर्षीय बालक से वृद्ध हो चुका था. उसका बालकपन जाता रहा और वो अब प्रेत के समान ही शुष्क, निर्निमेष हो चुका था. पूर्वजों का प्रेम, क्रोध, शोक बदला लेने को आतुर उसका गुलाबी चेहरा गुस्से से काला पड़ चुका था.
नन्दीदत्त अपने आंसू पोंछते हुए सामन्त के पास आये और बोले, “बेटा अब क्या सोचता है.”
“मैं?” क्रूर और रसहीन हँसी हँसते हुए सामन्त ने कहा, “मैं क्या सोचूंगा? मैं तो अब अपने पिता की खोज में निकलूंगा. उनसे मिलने की उम्मीद भी कम ही है क्योंकि सुल्तान उसी रेगिस्तान के रास्ते गया है. आप क्या करेंगे?”
नन्दीदत्त ने कहा, “मैं भी अब इस श्मशान में रह कर क्या करूँगा? तू ले चले अपने साथ तो प्रभास चलकर सोमनाथ के चरणों में अपने प्राण त्याग करना है.”
क्रमशः…