70 के दशक के शुरू में मुझे जब से फिल्मों को देखने और उनको समझने की समझ आयी तब ही से मुझे भारत में बनने वाली फिल्मों और विदेश की, खास तौर से हॉलीवुड और योरप में बनने वाली फिल्मों के बीच के मूलभूत अंतरों को लेकर बड़ी उलझन होती थी.
मुझे तकनीकी रूप से विदेशी फिल्मों का भारतीय फिल्मों से उच्च होना कोई विशेष बात नहीं लगती थी लेकिन उनकी फिल्म की कम लम्बाई, उनके कलाकारों का पात्रानुसार गेटअप होना और कथानक की समृद्धता ज़रूर आकर्षित करती थी.
हालांकि 70 के दशक में ‘भुवन शोम’, ‘उसकी रोटी’ ऐसी फिल्मों के कारण नई तरह की फिल्मों का दौर आ गया था, जिसे नई वेव सिनेमा या आर्ट फ़िल्म भी कहा जाता है लेकिन वो फ़िल्में ज़्यादातर कथानक की गम्भीरता के कारण बोझिल हो जाती थी और उनका दर्शकों तक पहुंचना भी उतना आसान नहीं था.
फिर 70 के दशक में अच्छी अच्छी फिल्में देने के बाद 80 के दशक में वही फिल्मकार भी चूक गये क्योंकि वह अब हमारे लिये फ़िल्म नहीं बनाते थे. वो अब कहानी पर फ़िल्म न बनाकर अपनी वामपंथी विचारधारा की कहानी बनाते थे और एक फिल्मकार की हैसियत से बईमान हो गये थे.
ऐसे में मेरे जैसे फिल्मी रसिया का एक ही शौक होता था, यह कल्पना करना कि जो फ़िल्में मेरी नज़र में, अच्छी बनते बनते रह गयी है या फिर कथानक के मूल में भटकाव है, उनमें उनकी कमियों को दूर कर के फिर से बनायी जाय तो कैसी रहेगी? यह एक्सपेरिमेंट मैं हिंदी की असफल और सफल दोनों ही फिल्मों पर करता था.
उदाहरण के तौर पर एक फ़िल्म आयी थी यशराज फिल्म्स की ‘दूसरा आदमी’ जिसके निर्देशक थे रमेश तलवार. यह फ़िल्म एक अलग तरह की फ़िल्म थी जो अपने समय से आगे की फ़िल्म थी. कहानी के मूल में एक अधेड़ महिला की एक नवयुवक के प्रति आसक्ति थी जिसे लेकर तो कथाकार अच्छा चले थे लेकिन आख़िरी आधे घण्टे में कहानी के मूल से घबराये यश चोपड़ा व निर्देशक रमेश तलवार ने फ़िल्म के अंत मे शुचिता और आदर्श दिखाने के चक्कर में फ़िल्म के कथानक की ही हत्या कर दी.
मुझे आज भी इस बात की कोफ्त है कि कहानी के साथ यह अन्याय क्यों? शायद वह बॉक्स आफिस और भारतीय जनता की हिपोक्रेसी से डर गये थे.
यहां एक बात महत्वपूर्ण है आज के भारत की जो हमारी फिल्मेरिया वाली पीढ़ी है वह 70/80 के दशक में बनी वर्ग संघर्ष आधारित फिल्मों की पैदाइश है जिसे मीठे जहर की तरह वामपंथी नरेटिव पिलाया गया है
हमारे बाद की पीढ़ी तो उसी नरेटिव की पैदाइश है. इस नरेटिव से लोगों ने लड़ने की एकाकी कोशिशें जरूर की है लेकिन मुम्बईया फ़िल्म नगरी के मापदंड और उसके मठाधीश उसको सांस नही लेने देते.
लेकिन आज ज़माना बदल गया है, आज तकनीकी और नेट ने यह सम्भव कर दिया है कि आप बिना दुबई में बैठे फाइनेंसर या मुम्बई की फ़िल्म इंडस्ट्री का मुंह देखे अपनी कहानी, अपने तरीके से बना सकते है और दिखा सकते हैं.
आज हम अपने परसेप्शन को चरित्रों और छाया चित्रों के माध्यम से बिना बिके बेच सकते हैं. आज हम वह कहानी दिखा सकते हैं जो कहानी छिपायी जाती रही है. आज हम वह इतिहास दिखा सकते है जो तोड़ा मरोड़ा गया है. आज हम हिन्दू लड़के मुस्लिम लड़की की प्रेम कथा बिना सेक्युलरिज़्म का नारा लगाय दिखा सकते हैं. आज हम बिना हिन्दू मुस्लिम भाई भाई और गंगा जमुनी तहजीब को घुसेड़े अपने भारत को भारत दिखा सकते हैं.
इसी सब को सजीव बनाने के उद्देश्य से मेरे मित्र संजीव कुमार ने वाराणसी की पावन भूमि पर ‘अपनी इंडस्ट्री अपना सिनेमा’ का नारा लगाते हुये, ‘आरोहण फिल्म्स’ की स्थापना की है और हमारे अपने सपनों को साकार करने के लिये 2 शॉर्ट फिल्मों और 1 फीचर फ़िल्म बनाने की तरफ पहला कदम बढ़ा दिया है.
मुझे संजीव के इस प्रयास से बहुत आशाएं हैं क्योंकि यह एक ऐसा द्वार है जिसमें नयी कहानियां प्रवेश लेकर जीवंत होगी. इसमे जहां भारत की आत्मा होगी वहीं राष्ट्रवाद की महक भी होगी.