संघ जैसा संगठन और संख्याबल यदि वामियों के पास होता तो…

एक वीडियो आया था Whatsapp पर, संघ का परिचय करा देता हुआ. देखकर मन में जो भावनाएँ आई, लिख रहा हूँ.

सच कहें तो संघ के लिए क्या कहें समझ नहीं आता. अगर कोई करोड़पति अपने सारे पैसे एक सेविंग अकाउंट में रखे तो आप उसे क्या कहेंगे, वैसे ही कुछ भावना होती है.

मुस्लिम हो, ईसाई हों या वामी हों, उनकी तमाम संस्थाएं उनके अपने कार्यकर्ताओं के लिए रोजी रोटी का जुगाड़ करा देती है. बड़े योजनाबद्ध तरीके से यह सब किया जाता है. इसके पीछे सोच बड़ी सरल और स्पष्ट है. मनुष्य अपनी रोजी रोटी के लिए लड़ता है.

जितने अधिक लोग आप से रोजी रोटी पाएंगे उतनी अधिक आवाज आप की तरफ से उठेंगी. फिर रोटी पर भले ही कभी संकट आए न आए, वो आप के पुकार का जवाब देने को बंधा रहता है, रास्ते पर उतरता है. उससे जैसे बन पड़े, विरोध करता है, आवाज उठाता है.

असल में उसे बताया जाता है कि वो कैसे विरोध करे या लड़ना है तो किस तरह से अपना कर्तव्य निभाए. खुद की अक़ल का इस्तेमाल करना नहीं होता.

बस जितना कहा गया है उतना पूरी निष्ठा से, समर्पित हो कर करना है, या कम से कम बिना कोई कोताही किए पूरी कोशिश करना इतना ही उसका काम होता है.

कोताही करना या काम न करने का परिणाम उसे पता होता है – जीते जी और अगर श्रद्धा, आस्था हो तो मरने के बाद भी. इसीलिए वो पूरे समर्पित भाव से उतरता है.

संघ के बारे में ऐसा कुछ काम नहीं दिखता. अपने लोगों को कहाँ तक नौकरियां दी या व्यवसायों में सेट करा दिया, यह शोध का विषय हो सकता है.

अगर घर फूंककर काम करना ही केवल सम्मान, वो भी शायद, दिला सकता है तो कितने लोग जुड़ेंगे या जुड़े रहेंगे, यह कहना कठिन है.

संघर्ष के लिए संख्या कम दिखती है क्योंकि लोग अपनी अपनी नौकरियाँ और बिज़नस सम्हालते हुए दायित्व निभाते हैं.

संगठन पर वे निर्भर नहीं होते इसलिए उस तरह से आग्रही नहीं हो सकते जैसे विपक्षी अपने लोगों से काम लेते हैं.

काम का दर्जा भी अगर विपक्षियों के सामने उन्नीस से भी बहुत कम है तो भी कुछ कह नहीं सकते क्योंकि करने वाला मुफ्त में ही कर रहा है, आप को उसको कुछ कहने की शक्ति नहीं है.

बुरा इसलिए लगता है कि अगर वामियों के पास इतनी मैनपावर होती तो क्या कर गुजरते! हाँ, पता है, हिंदुओं की दुर्दशा ही करते. लेकिन इसी बात का दुख अधिक है कि उनसे कई गुना अधिक संख्याबल हो कर भी हम उन्हें अपनी वाट लगाने देते हैं.

इंडस्ट्रियलिस्ट और बिज़नसमैन की संघ के पास कमी नहीं है, लेकिन हिंदुओं के लिए कितनों ने अपने संस्थानों में कुछ ठोस किया है?

ये विचार मैंने मूल मराठी में लिखकर वहीं पोस्ट किए थे जिस ग्रुप में वह वीडियो आया था. इस पर तुरंत उत्तर मिला जिसका अनुवाद दे रहा हूँ –

‘सही है, जो आप ने कम्युनिस्ट क्या कर सकते हैं बता दिया है. लेकिन संघ अलग है और इस श्रेणी में नहीं आता. भले ही रोजीरोटी की व्यवस्था न की हो, फिर भी 90 वर्षों से अधिक समय से संघ का अस्तित्व है और आज 90 देशों में उपस्थिति है इसे क्या कहेंगे…’

कुछ नहीं कहना. बस दशरथ मांझी याद आता है जिसने अनवरत लगे रहने से पर्वत खोद दिया था. अगर आप के लोगों की हत्याएँ हो रही हैं तो आप से युद्ध हो रहा है. लेकिन अगर आप इसे मानने से ही मना करें तो कुछ कहना ही क्या?

इतने में दूसरे कहीं एक रिपोर्ट आई TSR याने त्रिपुरा स्टेट राइफल्स पर. त्रिपुरा में सुदीप भौमिक नाम के पत्रकार की हत्या में इस दल का नाम लिया जा रहा है.

अब ये कोई सरकारी दल नहीं, लेकिन वहाँ के वामपंथी सरकार समर्थित एक दल है. आरोप यह भी है कि आतंक से निपटने के नाम से स्थापित इस दल का उपयोग टिपिकल वामी स्टाइल में आतंक फैलाने किया जा रहा है.

और भी आरोपों की बड़ी लिस्ट थी. उस पोस्ट को इस ग्रुप में लगा दिया, लेकिन लोगों को उत्तर देने के अलावा भी बड़े काम होते हैं न… खैर छोड़िए. नेति, नेति; चरैवेति, चरैवेति. शास्त्र ही कह रहे हैं.

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