सब बाहर हो रहा है!

और तुम इतने करीब सटकर खड़े हो जाते हो, उससे कठिनाई होती है. थोड़ा फासला बनाओ!

जब सुख आये, तो थोडा दूर खड़े होकर देखना. जब दुख आये, तब भी दूर खड़े होकर देखना. और सुख से शुरू करना, ध्यान रहे! दुख से शुरू मत करना.

हममें से अक्सर लोग, जब दुख होता है, तब दूर होने की कोशिश करते हैं. तब सफल न हो पाओगे. वह जरा कठिन मार्ग है. जब सुख होता है, तब दूर होने की कोशिश करना — क्योंकि दुख से तो सभी दूर होना चाहते हैं, वह बिलकुल सामान्य मन की वृत्ति है. सुख से तो कोई दूर नहीं होना चाहता.

इसलिए दुख से दूर होने की तुम कोशिश मत करना, क्योंकि वह तो तुम सदा से कर रहे हो, उससे कुछ फल नहीं हुआ. उलटे चलना होगा! अब वापस लौटना होगा, प्रतिक्रमण करना होगा!

इसको महावीर प्रतिक्रमण कहते हैं, पतंजलि ने प्रत्याहार कहा है — वापस लौटना, रिटर्निंग बेक टु दि सोर्स! थोड़े कदम वापस लौट आओ!

सुख जब आए, तब जरा दूर खड़े होकर देखो. मत धड़कने दो ह्रदय को जोर से, मत नाचो — इतना ही जानो कि आया है, यह भी चला जाएगा, रुकने वाला नहीं, कुछ रुकता नहीं! लहर है हवा की, आई और गई! तुम जान भी न पाए कि चली गई! बस दूर खड़े होकर साक्षी-भाव से देखते रहो.

क्या होगा? डर क्या है? सुख को हम देखते क्यों नहीं साक्षी-भाव से?

साक्षी-भाव से न देखने के पीछे कारण है — क्योंकि साक्षी-भाव से देखा कि सुख, सुख न रह जाएगा! वह सुख था ही, जितने तुम करीब थे. जितने तुम भूले थे, उतना ही सुख था. जितनी याद की, उतना ही कुछ न रह जाएगा. इसलिए कोई आदमी सुख का साक्षी नहीं होना चाहता! पर वहीं से यात्रा है!

सुख आए, साक्षी-भाव से देखना. देखते-देखते ही तुम पाओगे — सुख खो गया, तुम रह गए! और अगर तुम सुख में सफल हो गए , फिर तुम दुख में सफल हो जाओगे — कुंजी तुम्हारे हाथ में है.

फिर दुख आए, तुम दूर से खड़े होकर देखना. और दूर खड़े हो सकते हो, क्योंकि शरीर और तुम दूर हो. इससे बड़ी दूरी किन्हीं दो चीजों के बीच नहीं हो सकती! चेतना और पदार्थ की दूरी से बड़ी दूरी और क्या हो सकती है! चाँद-तारे भी इतने दूर नहीं हैं एक-दूसरे से, जितना तुम अपने शरीर से दूर हो. एक जड़ है, एक चेतन है. एक मिट्टी से बना है — मृण्मय है; एक चैतन्य से बना है — चिन्मय है! बड़ा फासला है! इससे ज्यादा विपरीत छोर नहीं मिल सकते.

सुख से शुरू करो, दुख तक ले जाओ! और एक ही बात स्मरण रखो कि तुम बाहर हो!

ओशो

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