गारंटीड नेशनल इनकम : अराजकता में सत्ता का रास्ता खोजते वामपंथी

बच्चे सपने देखते हैं, सपनों पर भरोसा करते हैं, सपनों को जीने के सपने देखते हैं… उन्हें सपने बेचना आसान होता है. बल्कि उन्हें कुछ भी बेचना हो तो सपनों में लपेट कर बेचा जाता है.

कुछ दिनों पहले बेटे से उसके कैरियर ऑप्शन्स पर बात कर रहा था. उसने कहा – हमें जॉब करने की जरूरत क्यों पड़ती है? होना तो यह चाहिए कि आदमी अपने काम को एन्जॉय करे… पैसे उसको यूँ ही मिलें, काम को सिर्फ क्रिएटिविटी या काम के महत्व के हिसाब से किया जाए…

फिर उसने बताया… कुछ लोग गारंटीड नेशनल इनकम की बात करते हैं. हर व्यक्ति को एक न्यूनतम पैसा मिले. काम करना ऑप्शनल हो, जिन्हें काम पसंद है वे यूँ भी करेंगे… जैसे कि तुम. इससे क्रिएटिविटी और प्रोडक्टिविटी बढ़ेगी.

यूटोपिया है, बच्चे यूटोपिया खरीदते हैं. यह सशस्त्र क्रांति के कम्युनिज्म और समानता के यूटोपिया से बेहतर है. खतरे से मुक्त, शान्तिपूर्ण… बेहतर बिकता है.

मैंने कल जाना, यह गारंटीड नेशनल इनकम का यूटोपिया कहाँ से आया?

अमेरिका में क्लोवर्ड और पिवेन नाम के वामपंथी पति-पत्नी हुए… प्रकाश और वृंदा करात टाइप… जिन्होंने 1966 में एक अखबार में अपने कॉमरेड बंधुओं को संबोधित करते हुए एक लेख लिखा.

उन्होंने कहा कि अगर हम स्टेट वेलफेयर सिस्टम पर ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़ दें तो देश इसका बोझ नहीं उठा पायेगा और इकॉनमी ध्वस्त हो जाएगी.

तो उन्होंने अपने कॉमरेड साथियों को सलाह दी कि वे उस हर व्यक्ति को, जो स्टेट वेलफेयर से पैसा लेने की पात्रता रखता है (गरीबी की रेखा से नीचे है) वेलफेयर रजिस्टर से जोड़ दें.

तो कॉमरेडों ने अमेरिका में जा जा कर लोगों को अपना काम छोड़कर बेरोजगारी भत्ता मांगने को प्रेरित किया.

उस लेख का निष्कर्ष है कि ऐसा करने से सरकारों पर गारंटीड नेशनल इनकम लागू करने का दबाव बनाया जा सकेगा. और इसका उद्देश्य है आर्थिक अराजकता… क्योंकि वामपंथी अराजकता में सत्ता का रास्ता खोजते हैं.

इस स्ट्रेटेजी को क्लोवर्ड-पिवेन स्ट्रेटेजी कहा गया और गारंटीड नेशनल इनकम की माँग इसी से निकली है.

क्लोवर्ड-पिवेन का नाम मैंने परसों ही सुना. पर उनका फैलाया हुआ जाल मेरे बच्चे तक पहले ही पहुँच गया. एक यूटोपिया के मखमली रैपर में लिपटा हुआ.

क्लासिकल मार्क्सवाद का निशाना मज़दूर थे. सांस्कृतिक मार्क्सवाद का निशाना बच्चे हैं.

एक और उदाहरण दूँगा – दो साल पहले बच्चों के स्कूल में गया था. स्कूल का एनुअल फंक्शन था.

चीफ गेस्ट एक विचित्र सी दिखने वाली महिला थी. बाल एक किनारे से छोटे छोटे कटे हुए थे. गले में अजीब अजीब सा बड़ा सा नेकलेस था, हाथ में विचित्र से ब्रेसलेट.

फंक्शन के अंत में उस महिला का परिचय दिया गया… उसने कहीं से पीएचडी किया था, और एक एनजीओ चलाती थी. कुल मिला कर उनकी सबसे बड़ी तारीफ यह थी कि वह लेस्बियन थी और गे और लेस्बियन लोगों के अधिकारों के लिए एनजीओ चलाती थी.

उसके पीएचडी को भी इस तरह से प्रस्तुत किया गया कि जैसे उसमें भी उसके लेस्बियन होने का योगदान था. उसने अपने भाषण में बताया कि लेस्बियन होने की वजह से उसे कितनी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है और लेस्बियन होना उसकी कितनी बड़ी उपलब्धि है.

यह सब बेटे से डिस्कस किया… उसे आगाह करने का प्रयास किया कि कैसे उन्हें अपना एजेंडा पूरा करने के लिए टारगेट किया जा रहा है. उसे विश्वास नहीं हुआ…

उसने पूछा – आखिर इसमें किसी का क्या फायदा है? कोई आखिर अपने देश की इकॉनमी को क्यों बर्बाद करना चाहेगा? किसी को किसी देश में संघर्ष और अव्यवस्था फैला कर क्या मिलेगा?

मैंने कहा… यही पावर है. जितनी अव्यवस्था होगी, जितने ज्यादा लोग विक्टिम आइडेंटिटी से बंधे होंगे, ये लोग उतने ज्यादा लोगों के प्रवक्ता होंगे. उतने ज्यादा लोग उनके पीछे खड़े होंगे. ये उतने ज्यादा शक्तिशाली होंगे. यह एक तरह का सॉफ्ट पावर है. जैसे कि एक वेबसाइट पर जितने ज्यादा हिट्स होते हैं उतनी ज्यादा उसकी वैल्यू होती है.

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